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Magazine - Year 1947 - Version 2

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प्रत्यक्ष अष्ट सिद्धियाँ।

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पिछले पृष्ठों पर वैज्ञानिक आध्यात्मवाद के जिन तथ्यों का प्रतिपादन किया है। उनको अपने विचार क्षेत्र में, विश्वास भूमि में स्थापित कर लेने तथा व्यावहारिक जीवन में कार्य रूप से प्रयोग में लाने पर मनुष्य की आन्तरिक स्थिति बहुत मजबूत हो जाती है। इस स्थिति पर पहुँचने से आठ सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं जो काल्पनिक सिद्धियों की अपेक्षा अनेक गुनी आनन्द दायक, कल्याणकारी और मंगलमयी सिद्ध होती हैं। इन अष्ट सिद्धियों का वर्णन नीचे किया जाता है।

(1) निराकुलता—छोटी छोटी बातों से मनुष्य बड़ा उद्विग्न, उत्तेजित एवं दुखी होता रहता है। मृत्यु, विछोह हानि आक्रमण आदि की अप्रिय अनिच्छित परिस्थितियाँ आ जाने पर क्रोध शोक, द्वेष, दुःख, चिन्ता एवं भय से व्याकुल हो जाता है। इस व्याकुलता को शाँत करने के लिए

वह अपनी शक्तियाँ बहुत बड़ी मात्रा में खर्च कर डालता है और कभी कभी तो आत्मघात तथा अन्यान्य भयंकर दुष्कर्म करने को तैयार हो जाता है। यह व्याकुलता मानसिक उद्विग्नता जीवन में उत्पन्न करने वाला एक भयंकर उत्पात है। आत्मवान् इस उत्पात से बच जाता है। वह जानता है कि संसार के पदार्थों में नष्ट या परिवर्तित होने का स्वाभाविक गुण है, इसमें शोक की कोई बात नहीं। दूसरों की दुष्टता को वह उनका पागलपन, मानसिक रोग एवं उन्माद समझता है और जैसे सान्निपात के रोगी द्वारा किये हुए अनुचित व्यवहार पर उसके आत्मीयजन कुपित नहीं होते, वरन् उसकी कड़ुई मीठी चिकित्सा कराते हैं उसी प्रकार वह दुष्टों से रुष्ट नहीं होता वरन् उनकी कड़ुई मीठी चिकित्सा की सद्भाव पूर्वक व्यवस्था करता है। ‘मैं आत्मा हूँ, मेरा धर्म कर्तव्य करना है’ इस विश्वास के साथ वह कर्तव्यों में प्रवृत्त होता है, सफलता असफलता का सुख दुख उसे उद्विग्न नहीं करता। इस संसार में जितना दुख दृष्टि गोचर होता है उसमें तीन चौथाई मानसिक और एक चौथाई रोग एवं अभाव अन्य है। आत्मवान् का बौद्धिक दृष्टि कोण आध्यात्म वादी होता है। इसलिए उसके मानसिक दुख नष्ट हो जाते हैं। और दुखों के एक बड़े भारी भाग से सहज में ही छुटकारा मिल जाता है।

आकुलता की अग्नि में आत्मिक रस जलते हैं और मनुष्य की मनोभूमि मरघट के समान ऊजड़ हो जाती है, इसके विपरीत आत्मवान् होने के कारण जिसे निराकुलता प्राप्त है वह हर घड़ी एक सात्विक शान्ति सन्तोष एवं प्रसन्नता का लाभ प्राप्त करता है। यह आत्मबल की प्रथम सिद्धि है।

(2) सहायता—आत्मबल की दूसरी सिद्धि है — दूसरों द्वारा अधिक सहायता प्राप्त होना। उदार स्वभाव, सेवाभावी, नम्र एवं मधुर भाषी होने के कारण आत्मवान् व्यक्तित्व की गहरी छाप उन लोगों के ऊपर पड़ती है जो उसके निकट संपर्क में आते है। थोड़ा बहुत भी जिससे संबंध होता है वे उसके गुणों पर मुग्ध हो जाते हैं मधुर भाषण को वशीकरण कहा गया है, पर जिस मधुर भाषण के साथ सचाई, सेवा, प्रेम और आत्मीयता भी मौजूद हो वह तो बहुत बड़ा वशीकरण बन जाता है, उसके द्वारा तो उनको भी वश में किया जा सकता है जो अन्य किसी उपाय से वश में नहीं आते। इस प्रकार जो व्यक्ति दूसरों के मन में अपने लिए स्थान बना लेता है उनके हृदय को जीत लेता है वह उनकी सहायता का अधिकारी भी बन जाता है ऐसे व्यक्तियों के लिए किसी वस्तु की कमी नहीं रहती। तन मन धन से लोग उसकी सहायता करते रहते हैं या करने को तत्पर रहते हैं। जन समाज की सहायता से अनेकों कठिनाईयाँ दूर होती हैं, अनेकों उत्कर्ष के अवसर मिलते है, अनेकों आपत्तियाँ टल जाती हैं। इसके अतिरिक्त उनकी सद्भावनाओं से आनन्द सन्तोष और साहस मिलता है। प्रशंसकों मित्रों और अनुयायियों के बीच रहते हुए मनुष्य को स्वर्गीय सुख का अनुभव होता है अपनी सद्वृत्तियों के कारण आत्मवान् मनुष्य सहज ही संसार की प्रचुर सहायता प्राप्त कर लेता है।

(3) आरोग्यता— चूँकि आत्मवान् मनुष्य संयमी होता है। उसके आहार विहार सात्विक होते है, चटोरेपन को वह पास नहीं फटकने देता। नियमित दिन चर्या रखता है और शक्तियों को अनावश्यक खर्च नहीं करता। ब्रह्मचर्य और तपश्चर्या को उसके जीवन में प्रधानता मिली होती है। शरीर और मन में पवित्रता के अंश पर्याप्त मात्रा में रहने के कारण बीमारियाँ उत्पन्न होने एवं पनपने के मार्ग बन्द हो जाते है। ऐसे व्यक्ति प्रायः बीमार नहीं पड़ते यदि कभी कोई अवसर आ भी गया तो बहुत जल्द अच्छे हो जाते हैं। उनकी आयु बढ़ती है। विषय सेवन एवं मानसिक उत्तेजनाओं के कारण जीवनीशक्ति का बहुत बड़ा भाग नष्ट हो जाता है और लोग अपनी पूरी आयु भोग नहीं पाते परन्तु आत्मवान् व्यक्तियों को ऐसी कठिनाई नहीं आती। वे अपनी पूरी आयु भोगते हैं दीर्घजीवी होते हैं और सदा स्वस्थ एवं प्रसन्न रहते हैं। यह आत्मबल की तीसरी सिद्धि है।

(4) सफलता—सफलता की लाभ की इच्छा से आरम्भ हुए कामों में अनेकों व्यक्ति अनेकों बार असफल रहते हैं, बार बार उन्हें विफलता का मुँह ताकना पड़ता है। इसका कारण कई बार तो परिस्थितियों की प्रतिकूलता भी होती है पर अधिकाँश ऐसा देखा जाता है कि कार्य करने वाले व्यक्ति की मानसिक व्यवस्था ठीक न रहने के कारण असफलता मिलती है। अस्थिरता, अन्यमनस्कता, असावधानी, अरुचि, उत्तेजना, निराशा, घबराहट आदि मानसिक त्रुटियों के कारण बड़े बड़े काम बिगड़ जाते हैं। यह त्रुटियाँ पग पग पर कठिनाई उत्पन्न करती और धीरे धीरे काम बिगाड़ती रहती हैं, अन्ततः एक दिन समूचा काम नष्ट होने का अवसर आ जाता है। आत्मवान् मनुष्य इस स्थिति से बच जाता है। उसका मन स्थिर होता है, चित्त एकाग्र रहता है, स्वभाव में धीरता, गंभीरता और सावधानी होती है, निश्चित दृष्टि कोण, निश्चित कार्यक्रम, निश्चित कर्त्तव्य होने के कारण क्षण क्षण में आशा निराशा के झूले में नहीं झूलना पड़ता, और न आवेशों की उत्तेजना रहती है। ऐसी स्थिति प्राप्त होने के कारण आत्मवान् व्यक्ति हाथी के समान निश्चित गति से सावधानी पूर्वक कदम धरता चला जाता है और अपने उद्देश्य को प्राप्त कर लेता है। आत्मवान् का मानसिक संतुलन ठीक रहता है उसका विवेक यथार्थवादी और निर्णय सूक्ष्म होता जिससे वह अपनी सामर्थ्य परिस्थिति और वस्तुस्थिति को देखकर कार्य आरंभ करता है और जितने श्रम, समय तथा साधन की आवश्यकता होती है उसे धैर्य पूर्वक जुटाता है, रास्ते में जो कठिनाईयों आती हैं उनसे बिना घबराये लड़ता है। और उलझी हुई समस्याओं को सुलझाता है इस प्रकार उसे आमतौर से सफलताएं ही उपलब्ध होती हैं असफलता के बहुत ही कम अवसर उसके सामने आते हैं। वह जो कार्य आरम्भ करता है वह पूरे ही हो जाते हैं। जिससे उसका साहस और आनन्द दिन-दिन बढ़ता जाता है यह आत्मबल की चौथी सिद्धि है।

(5) सम्पन्नता—लोग कहते हैं कि— “बेईमानी से धन कमाया जाता है।” पर यह उनकी भूल है। बेईमान लोग भी ईमानदारी की आड़ में ही कमाई करते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने बारे में यह सार्वजनिक घोषणा करके और एक साइनबोर्ड अपने गले में लटका ले कि “मैं चोर, ठग या बेईमान हूँ। मेरे काम बेईमानी और ठगी से भरे रहते हैं।” इस घोषणा के बाद भी कोई व्यक्ति बेईमानी के आधार पर कुछ कमा के दिखावे तो यह समझा जा सकता है कि बेईमानी में भी कमाने की शक्ति है। वास्तव में विशुद्ध बेईमानी से एक पाई भी नहीं कमाई जा सकती। बेईमानी की बहिन तो दरिद्रता है। कोई आदमी ईमानदारी की आड़ में बेईमानी कर ले तो इससे ईमानदारी की ही उत्पादन शक्ति सिद्ध होती हैं बेईमानी की नहीं।

सचाई और ईमानदारी के आधार पर स्थित कारोबार ही चलते और फलते फूलते हैं। विश्वास प्रतिष्ठा निश्चितता एवं प्रमाणिकता का आधार मिल जाने पर ग्राहक उसी दुकानदार को पकड़ लेता है। और सदा के लिए उसका एक लाभ पहुँचाने वाला सहायक बन जाता है। इसके विपरीत बेईमान दुकानदार से एक बार ठग जाने के उपरान्त, स्वयं तो उसे सदा के लिए छोड़ ही देता है, जहाँ तक उसका बस चलता है दूसरों को भी उसके पास जाने से रोकता है। निश्चय ही ईमानदारी की धर्म नीति पर अवलम्बित कारोबार द्वारा मनुष्य को सम्पन्नता प्राप्त होती है। भले ही वह धीरे-धीरे, अधिक काल में और क्रमशः आगे बढ़ने वाली हो पर होती वह सुनिश्चित है। बरगद का पेड़ देर में बढ़ता है पर ठहरता बहुत समय तक है। ईमानदारी के साथ किये जाने वाले कारोबार भी ऐसे ही होते हैं। उस कमाई से मनुष्य फलता फूलता और सुखी रहता है। बेईमान करोड़पति की अपेक्षा, ईमानदार मध्यवृत्ति का मनुष्य अधिक आनन्द में रहता है। उसी की सम्पन्नता सच्ची सम्पन्नता है। आत्मवान् व्यक्ति को अपने आत्मबल द्वारा पांचवीं सिद्धि सम्पन्नता प्राप्त होती है।

(6) लोकप्रियता—चरित्रवान् सत्यनिष्ठा कर्तव्य परायण, उदार, लोकसेवी, मनुष्य जनता में देवता के समान पूजे जाते हैं। उनकी सर्वत्र प्रशंसा होती है, स्थति, प्रतिष्ठा, श्रद्धा एवं सम्मान की उनके लिए कमी नहीं रहती। शरीर मर जाने पर भी उनका यश शरीर हरिश्चन्द्र दधीच, प्रह्लाद प्रताप, शिवाजी, हकीकतराय आदि की तरह अमर रहता है। उसके प्रकाश में युगयुगान्तरों तक जनता अपना पथ निर्माण करती है। ऐसे पुरुष बेताज के बादशाह कहे जाते हैं। कीर्ति युक्त, प्रतिष्ठित जीवन ही वास्तविक जीवन है। ऐसा जीवन यदि किसी प्रकार अभाव और कठिनाइयों से ग्रसित हो तो भी उसमें आनन्द की अजस्र धारा प्रवाहित होती रहती है। आत्मवान् का आत्मा अपनी प्रतिष्ठा आप करता है। वह अपनी दृष्टि में आप ऊंचा हो जाता है। ऐसा उच्च पद संसार के सब प्रतिष्ठा युक्त पदों से ऊंचा है आत्मवान् को यह उच्च पदवी छठी सिद्धि के रूप में मिलती है।

(7) प्रसन्नता—शुभ कर्मों का फल भी शुभ होता है। सद्भावों से शान्ति की उत्पत्ति होती है। सत्कर्म करने वालों को परमात्मा आनन्द दायक परिणाम प्रदान करता है। आत्मवान् व्यक्ति सत्कर्म करते हैं इसलिए उनके आस पास सुख दायक परिस्थितियाँ घिरी रहती हैं। कर्तव्य परायणता की खुशी उनके चेहरे पर हर घड़ी छाई रहती है, आत्मसंतोष की मधुरिमा उनके नेत्रों में भरी रहती है। सतोगुण की छाया उनके ओठों पर मुस्कराहट के रूप में नाचती रहती है।

कषाय, कल्मष पाप ताप, दुर्भाव दुष्कर्म, एवं भ्रम अज्ञान के कारण ही मनुष्य मुँह फुलाये आँखें चढ़ाये, तिरछा तिरछा इठकर चलता है। चिन्ता, भय शोक एवं क्रोध भी इन्हीं कारणों से होता है। अप्रसन्नता एक आध्यात्मिक रोग है। जो आत्मिक दृष्टि से स्वस्थ है उसके लिए परमात्मा के इस पुनीत उपवन संसार में अप्रसन्नता का कोई कारण नहीं दीखता।

संसार की हर वस्तु तीन गुणों से बनी है। उसके जिस पहलू को हम देखते हैं वह वैसी ही दिखाई पड़ती है। द्वेष बुद्धि से देखने पर वस्तुएं बुरी लगती हैं उपेक्षा वृत्ति रखने से वे व्यर्थ मालूम पड़ती हैं और सद्बुद्धि से देखने पर सृष्टि के कण कण में से पवित्रता, सुन्दरता, सरलता एवं सरसता का निर्झर झरता हुआ दृष्टिगोचर होता है। आध्यात्मवादी इसी दृष्टि कोण को अपनाये रहते हैं, तदनुसार उन्हें चहुँ ओर आनन्दमय वातावरण दृष्टि गोचर होता है। अप्रिय बातों को अपने लिए सुधार की ईश्वरीय चुनौती समझ कर वे उन्हें भी आनन्द की दृष्टि से देखते हैं और सदा प्रसन्न रहते हैं। यह अविच्छिन्न प्रसन्नता आत्मबल की सातवीं सिद्धि है।

(8) स्वतंत्रता—प्राणी स्वतंत्रता प्रिय है। पशु पक्षी भी बंधन से मुक्त होकर स्वतंत्र रहना पसंद करते हैं फिर मनुष्य की इच्छा तो और भी प्रबल है। आज राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक गुलामी से छूटने के लिए प्रचण्ड आन्दोलन हो रहे हैं। क्योंकि पराधीनता में दुख और स्वाधीनता में सुख है। सबसे बड़ी मानसिक पराधीनता होती है, इससे छुटकारा पाना परमपुरुषार्थ माना गया है। विषय, विकार, अज्ञान, कुसंस्कार और कुविचारों से छूटना सबसे बड़ी स्वतंत्रता है, इसे ही आध्यात्मिक भाषा में ‘मुक्ति’ कहा जाता है। मुक्ति में परमानन्द माना गया है। यही जीवन का परमलक्ष है। योगीजन सदा मुक्ति के प्रयत्न में लगे रहते हैं।

इन्द्रियों के विषय भोग, तृष्णा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर आदि की प्रबलता आत्मा की शक्ति को कुँठित कर देती है। इन कुसंस्कारों का जोर इतना बढ़ जाता है कि उन्हीं की प्रेरणा प्रधान रहती है, उन्हीं की तृप्ति के लिए मनुष्य कार्य करता रहता है। आत्मा की पुकार इस नक्कार खाने में तूती की आवाज की तरह दब जाती है। गृहस्वामी को कोई टके सेर नहीं पूछता, नौकर चाकरों की हुकूमत चलती है। बेलगाम घोड़े जैसे रथवान की परवाह न करके चाहे जिधर दौड़ पड़ते हैं और रथवान अपनी विवशता अनुभव करता हुआ चुपचाप बैठा रहता है यही स्थिति आत्मा की होती है। कुसंस्कारों के अनुसार जीवनक्रम चलता रहता है, आत्मा उसमें परिवर्तन करना चाहती है पर उसे बार बार असफलता मिलती है। इस पराधीनता को ही माया, बन्धन, भवसागर, कहा है इससे छुटकारा पाकर जब आत्मा अपने राज्य की बागडोर अपने हाथ में संभाल लेता है तो वह मुक्त या जीवन मुक्त कहा जाता है। ऐसी दशा में पुनर्जन्म लेना न लेना या जहाँ चाहे वहाँ लेना उसका अपने हाथ में होता है, अपनी इच्छा पर निर्भर करता है। आत्मा सत् चित् आनन्द स्वरूप है। अपार आनन्द का वह केन्द्र है। आत्मा स्थित होने पर हर घड़ी वह स्वाभाविक सात्विक आनन्द अनुभव में आता है। मुक्त पुरुष परमानन्द में, ब्रह्मानन्द में लीन रहते हैं। पूर्ण स्वतंत्रता में पूर्ण आनन्द है। यह आनन्द दायक स्थिति आत्म बल की आठवीं सिद्धि है जिसे आत्मवान् पुरुष सहज ही प्राप्त कर लेते हैं।

उपरोक्त आठों सिद्धियों का महत्व इतना अधिक है कि उसकी तुलना में आकाश में उड़ना, अदृश्य होना, जल पर चलना आदि के आश्चर्य चमत्कार बहुत ही छोटे दर्जे के—बालकों के मनोविनोद के समान ठहरते हैं। चमत्कारों के आधार पर शरीर को कुछ सुगमता और मन को प्रसन्नता मिल सकती है, लेकिन उपरोक्त अष्ट सिद्धियों का लाभ और आनन्द तो उसकी अपेक्षा हजारों गुना अधिक है। यही सिद्धियाँ हैं, सच्ची हैं, स्थायी हैं, सुगम, लोक हितकारिणी हैं और जीवन को सर्वांग पूर्ण बनाने वाली हैं। इनका प्राप्त करना ही जीवन की सच्ची सफलता है। सिद्धि के इस राज मार्ग पर चलने का, आत्मबल प्राप्त करने का हमें पूरी शक्ति के साथ प्रयत्न करना चाहिए।

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