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Magazine - Year 1947 - Version 2

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शक्ति से सिद्धि

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पिछले पृष्ठों पर छपे हुए लेखों को पढ़कर पाठक यह जान चुके होंगे कि अलौकिक सिद्धियाँ लोक हित की दृष्टि से न तो आवश्यक हैं न उपयोगी। जिनकी आध्यात्मिक स्थिति बहुत ऊँचे दर्जे की नहीं है वे न तो उन्हें आसानी से पा सकते और यदि किसी प्रकार प्राप्त भी करलें तो उनसे लाभ की अपेक्षा हानि ही प्राप्त कर सकते हैं। जिन जीवन मुक्त पुरुषों को वे सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं वे उनका उपयोग कर्म व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने के लिए नहीं करते।

इतना जान लेने के बाद अब हमें यह जानना है कि सिद्धि नाम की कोई वस्तु है या नहीं? यदि है तो उसकी सीमा और मर्यादा क्या है? और इन सिद्धियों के प्राप्त होने से क्या लाभ हो सकता है? इस लेख में इन्हीं प्रश्नों पर विचार करेंगे।

हम पहले ही बता चुके हैं कि परमात्मा के भण्डार में किसी वस्तु की कमी नहीं है। उसकी झोली में एक से एक अनोखे रत्न छिपे पड़े हैं। जो आवश्यकता और योग्यता एवं परिश्रम के आधार पर मनुष्य को प्राप्त होते हैं। आत्मा आखिर परमात्मा का ही एक अंश है। परमात्मा की शक्तियाँ सूक्ष्म रूप से उसमें भी मौजूद हैं। सरोवर के जल में जो तत्व है वे ही पानी की एक बूँद में भी मौजूद हैं, जो गुण प्रचंड अग्नि ज्वाला का है वही चिनगारी का भी है। चिनगारी एवं बूँद छोटी हैं सही, अल्पशक्ति वाली हैं सही, पर उनमें वह क्षमता मौजूद है कि अवसर मिलने पर अपने को महान रूप में प्रकट कर सकती हैं। अग्नि के ऊपर जब राख पड़ी रहती है तो वह निष्प्रय हो जाती है न तो बाहर से देखने में वह चमकती है और न छूने से जलाती है, इसका कारण वह राख का पर्दा हट जाय, राख को झाड़ दिया जाय तो प्रज्वलित अंगार दृष्टि गोचर होने लगेगा। वह चमकेगा भी और जलावेगा भी। यही स्थिति आत्मा की है, कषाय कल्मष, पाप, ताप एवं विषय विकारों की राख ने उसके तेज को ढक दिया है। इसी से आत्मा, निर्बल, अशक्त, निस्तेज, एवं दीन हीन दिखाई पड़ता है। जब इस मायामय आवरण को वह झाड़ देता है तो उसका वास्तविक रूप चमकने लगता है। तब उसमें अनेकों सिद्धियों का आभास दिखाई देने लगता है।

सबलता स्वयं एक चमत्कारी सिद्धि है। सबलता के लिए शरीर को सबल, हृष्ट, पुष्ट, स्वस्थ एवं निरोग रखकर उसके शरीर में हम शारीरिक चमत्कारों के दर्शन कर सकते हैं। भरा हुआ चेहरा गोल गाल, चमकते हुए नेत्र, खिला हुआ मुँह हँसते हुए ओठ अपनी आकर्षक छटा दिखाते हैं कृति पर कमल सा खिला होता है। प्रेम झरते हैं तेज उत्साह प्रसन्नता आनन्द उसमें से छलक पड़ती है। शिला स्वरूप हथौड़ों से गढ़ा हुआ सा शरीर, उमंग और प्रौढ़ता से भरा रहता है। उसे जीवन का सच्चा आनन्द मिलता है। इन्द्रियाँ सबल होने के कारण भोगों का आनन्द भी उसे ही मिलता है। गहरी नींद पत्थर को पचा देने वाली भूख, दाम्पत्ति संबंधों में तृप्ति दायक पौरुष, तीक्ष्ण दृष्टि जिसे प्राप्त है वह सचमुच भाग्यशाली है। उसे शारीरिक ‘सिद्धि’ कह सकते हैं। अकेला दस से भिड़कर उन्हें पछाड़ देता है और अपनी विजय का डंका बजाता है यह उसकी सिद्धि है। साधारण कोटि के लोग उसके व्यक्तित्व को देखकर ही सहम जाते हैं और कितनी ही मुश्किलें उसकी उपस्थिति मात्र से हल हो जाती हैं। दीर्घ जीवन, निरोगता, उपार्जन शक्ति, प्रसन्नता, आत्म विश्वास आदि शारीरिक सबलता की सिद्धियाँ हैं।

आर्थिक सबलता की सिद्धियाँ आज सर्वत्र सर्वविदित हैं। सब जगह पैसे का बोलबाला है। पैसे के द्वारा मन चाही चीजें खरीदी जा सकती हैं। महल, मकान, मोटर, हाथी, जहाज, नौकर जेवर जवाहरात, ऐश आराम की एक से एक बढ़िया चीजें खरीदी जा सकती हैं। ऊंचे से ऊंचे दिमागों को खरीदा जा सकता है। बड़े-बड़े वकील बैरिस्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, कलाकार, डॉक्टर विद्वान, विचारक, लेखक, साहित्यिक, धन के द्वारा अपनी मुट्ठी में हो जाते हैं, उनके दिमागों से अपनी मन मर्जी का काम कराया जा सकता है। आज तो यश, धर्म और स्वर्ग भी धन द्वारा खरीदे जाने की योजनाएं चल रही है। जन बल, असंख्य मनुष्यों का सहयोग यहाँ तक कि प्राण देने वाले सैनिक भी मोल लिये जाते हैं खून खरीदा बेचा जाता है, सौंदर्य रूप और सतीत्व की खरीद फरोख्त हो सकता है। संसार के बड़े-बड़े सुख, आर्थिक सबलता भी खरीद किये जाते हैं। यह आर्थिक सबलता बिकाऊ है।

सबलता, अपने ढंग की अनोखी सफलता अनुकूल, एवं सहायक लोगों की शक्ति एक बहुत ही ऊँचे दर्जे का सुख है। स्त्री, पुत्र, भाई बहिन, माता पिता आदि घर के सब बाल वृद्ध एकमत, संतुष्ट परस्पर मैत्री सहयोग एवं सद्भाव के साथ रहें तो वह घर ही स्वर्ग के समान आनन्द दायक बन जाते हैं। जिन स्त्री, पुरुषों में, पिता पुत्र में, भाई भाई में सच्चा प्रेम मौजूद है उनके लिए निर्धनता भी विपुल सम्पन्नता से अधिक सुखदायी है। जिसको समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त है, आदर है, पूछ है, जिसकी सलाह दस आदमी लेते हैं जिसकी आज्ञा में अनेकों चलते हैं उसे सुखी एवं संतुष्ट जीवन का अनुभव होता है।

जो समाज कुरीतियों, हानिकारक प्रतिबन्धों, फिजूलखर्चियों एवं अशुद्ध दृष्टि कोण से मुक्त है, उसमें रहते हुए पग पग पर उन्नति एवं सुविधा की व्यवस्था रहती है। इसी प्रकार राजनैतिक क्षमता से जो समाज मुक्त है, वह दिन दिन सुखी एवं समृद्ध होता जाता है। जो समाज बलवान है उसके सदस्यों को अनायास ही अनेकों सुख सुविधाएं प्राप्त हो जाती हैं। इंग्रेजों का समाज बलवान है, उस सबलता के कारण किन्हीं कमजोर और पिछड़े हुए अंग्रेजों को भी अनेकों ऐसी सुविधाएं प्राप्त होती हैं जो अन्य समाज में जन्म लेने पर उन्हें नहीं हो सकती थीं। हम देखते हैं कि अच्छे मित्रों की सहायता द्वारा, संगठन के बल से अनेकों ने आश्चर्य जनक सफलताएं पाई। यह सब जन सहयोग, सामाजिक सबलता का प्रताप है। सामाजिक बलिष्ठता होने से अनेकों प्रकार के आनन्द मिलते हैं उन्हें सामाजिक सबलता की सिद्धियाँ कहना चाहिए।

बौद्धिक सबलता के द्वारा अनेकों प्रकार की सम्पत्तियाँ मिलती हैं। विचारवान् बुद्धिमान् मनुष्य सदा ही सब कामों में अग्रणी रहते हैं। बुद्धिबल से वे अनोखे मार्ग ढूंढ़ निकालते हैं। व्यापारी, शासक, न्यायाधीश, वकील, डॉक्टर, दार्शनिक विचारक, लेखक वैज्ञानिक अन्वेषक यह सब बुद्धि जीवी ही हैं, अपने बुद्धिबल से धन, यश, पद एवं परमार्थ सभी उपार्जन करते हैं और उस उपार्जन से आनन्द का आस्वादन करते हैं। बुद्धिमान मनुष्य मन चाही चीज बुद्धिबल के आधार पर प्राप्त करते हैं, धन की यश की, सुख की, प्रतिष्ठा की, इन्हें कोई कमी नहीं रहती। बुद्धिबल से वे घर बैठे बैठे ऐसे कार्य कर डालते हैं जिससे असंख्य जनता का भारी हित हो सकता है। विवेक शक्ति से मनुष्य अपनी निजी उलझनों को सुलझा लेता है। जब कि मूर्ख मनुष्य विपुल वैभव के होते हुए भी दुख और चिन्ता के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं, तब विवेक वान मनुष्य स्वल्प साधनों से भी अपने को सुखी, संतुष्ट और प्रसन्न रखने की व्यवस्था कर लेता है। विवेक से, ज्ञान से सद्भाव से, स्वर्ग तथा मुक्ति जैसी दुर्लभ वस्तुएं भी मनुष्य को प्राप्त हो जाती हैं। ज्ञान से पवित्र हुआ आत्मा सद्गुणों का पुँज बन जाता है, जिन गुणों के कारण मनुष्य, महात्मा, तपस्वी, महापुरुष, धर्मात्मा, परमार्थी बनता है वे गुण बौद्धिक प्रेरणा से ही आते हैं। बुद्धि आत्मा को परमात्मा बना देती है। ज्ञान द्वारा विषय को अमृत बना दिया जाता है। बुद्धि जीवी अपने बुद्धिबल से जिन महत्ताओं को प्राप्त करते हैं वह बौद्धिक सिद्धियों की ही महिमा तो है।

सबलता को अनेकों भागों में बाँटा जा सकता है। और उनके शक्ति खंडों द्वारा प्राप्त होने वाले लौकिक और पारलौकिक सुखों का सविस्तार वर्णन किया जा सकता है। स्थान संकोच से उस विस्तार में न जाकर हमें पाठकों को यह बताना है कि बल ही सुखों का जनक है। बल और सुख आपस में एक दूसरे से पूर्ण तथा संबद्ध हैं। जिसमें जिस प्रकार का बल होगा वह उस प्रकार के सुखों को अनायास ही प्राप्त कर लेगा। जिसके पास शारीरिक बल है वह शारीरिक सुखों को, जिसके पास सामाजिक बल है वह सामाजिक सुखों को जिसके पास मानसिक बल है वह मानसिक सुखों को उपलब्ध करेगा जिसके पास तीनों प्रकार के बल हैं वह त्रिविधि सुखों का रसास्वादन करेगा। वह सर्वसुखी रहेगा। बलवान मनुष्य प्रत्यक्ष ‘सिद्ध’ है। बलिष्ठता का ही दूसरा नाम सिद्धि है।

आज अनेकों व्यक्ति जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सिद्धों की तलाश में फिरते हैं, यदि वे सिद्धियों की बजाय बलों की तलाश में फिरें तो उनका अभीष्ट आसानी से पूरा हो सकता है। हम देखते हैं कि साधारणतः लोग दड़ा, सट्टा फीचर, तेजी मंदी, भाग्योदय आदि की बात मालूम करने के लिए वे पीर मुरीदों के पास फिरा करते हैं। इन बातों के पूछने का उनका अभिप्राय धनी बनना होता है, इस उपाय से वे धन प्राप्त करने की इच्छा करते हैं। पर हम देखते हैं कि इस दुनिया में असंख्यों धनवान भरे पड़े हैं। उन्होंने अपनी योग्यता द्वारा, धन उपार्जन के साधारण मार्ग पर चलकर विपुल सम्पत्तियाँ कमाई हैं। वे नित्य इतना धन कमाते हैं जितना कि पीर मुरीदों की कृपा से मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती, जब धनी बनने के राज मार्ग मौजूद हैं, व्यापारिक योग्यता द्वारा सीधा साधे तरीके से धन प्राप्त किया जा सकता है तो एक अनिश्चित उलझन में क्यों पड़ा जाय? जब कुएं से खींच कर जल प्राप्त किया जा सकता है, प्यास बुझाई जा सकती है जो आकाश से बादल बरसने पर जल पीने की अनिश्चित आशा में क्यों उलझा जाय?

बीमारी दूर करने के लिए झाड़ फूँक करने वाले सयाने दिवाने तलाश किये जाते हैं, संतान न होने, होकर मर जाने आदि शारीरिक कष्टों के लिए सिद्धों की शरण जाते हैं। इन कष्टों को हम स्वास्थ्य के नियमों पर चलकर, उत्तम चिकित्सा द्वारा दूर कर सकते हैं। असंख्यों-स्वस्थ एवं हट्टे-कट्टे मनुष्य आज ऐसे मौजूद हैं जिनको शारीरिक व्यथा से लाभ रहती है जब अगणित मनुष्य स्वस्थता के राज मार्ग पर चल कर शारीरिक सुख भोग रहे हैं रोगी वैसा क्यों नहीं कर सकते? इसी प्रकार रोगों से मुक्त रहते हैं। कभी कोई झंझट आ भी पड़ती है तो उसे अपनी प्रतिभा द्वारा सुलझा लेते हैं। वशीकरण के दस ताबीज जिस काम को नहीं कर सकते उसे वे एक मुस्कान एक भेंट में पूरा कर लेते हैं। जब अनेकों अपनी प्रतिभा द्वारा सामाजिक कठिनाइयों से छुटकारा पाकर आनन्द लाभ कर रहे हैं तो हमें उस राजमार्ग को छोड़कर इधर उधर भटकने की क्या जरूरत है? यही बात मानसिक सुखों के बारे में है, अतुल संपदा से जो सुख मिलता है, उससे अधिक सुख निर्धनता की दशा होते हुए भी “सन्तोष” द्वारा प्राप्त हो सकता है। मायाग्रस्त, दिमागी उलझनों में उलझे हुए लोग निरर्थक बातों के लिए बड़े चिन्तित, उद्विग्न, व्याकुल और बेचैन फिरते हैं पर जिनका दृष्टिकोण सुलझा हुआ है जो तत्वदर्शी और विज्ञानी हैं उन्हें बड़ी-बड़ी बाधाएं आने पर भी कुछ बेचैनी नहीं होती कायर लोग, अंधेरी कोठरी में चूहों की खड़बड़ सुनकर भय से सुन्न हो जाते हैं, दूसरी ओर रणस्थली में सनसनाती गोलियों के बीच, तलवारों की छाया में हँसने वाले, मस्त रहने वाले और गाढ़ निद्रा लेने वाले वीर भी हैं। बुद्धि का अन्तर है। इसी बुद्धि भेद से मनुष्य मान अपमान, प्रतिष्ठा अप्रतिष्ठा, लघुता महत्ता, सुख दुख और भाव अभाव प्राप्त करते हैं। जिन भयों और चिन्ताओं से छूटने के लिए लोग सिद्धों की तलाश करते हैं उन्हें अनेकों ही व्यक्ति अपने विवेक बल से ही ठीक कर लेते हैं, क्या हम अपने बुद्धि बल को जाग्रत करके सुविधा पूर्वक अनेकों मानसिक क्लेशों से मुक्त नहीं हो सकते? यदि हो सकते हैं तो वह सर्व अनुमोदित मार्ग हमें ग्रहण क्यों नहीं करना चाहिए?

बहुधा ऐसे लोग सिद्धियों की तलाश में फिरते हैं जो उन योग्यताओं सबलताओं और शक्तियों से रहित होते हैं जिनके द्वारा संपदाएं प्राप्त हो सकती हैं। आलस्य, अनुत्साह, प्रयत्न में अरुचि, भ्रम, अन्धविश्वास आदि के कारण वे “श्रम द्वारा प्राप्ति” के वीरोचित मार्ग पर चल कर अभिलाषा पूर्ति का साहस नहीं कर पाते। कोई ऐसा मार्ग ढूंढ़ना चाहते हैं कि जिससे योग्यता सम्पादन करने का श्रम न करना पड़े और कोई दूसरा किसी दैवी उपाय से उन वस्तुओं को प्राप्त करा दे जिनकी वे इच्छा करते हैं। यह कल्पना व्यर्थ ही कल्पना है। यह अस्वाभाविक और ईश्वरीय नियमों की विरुद्ध इच्छा है हमें वहीं मिलेगा जो हमारी योग्यता और मेहनत के अनुसार हमें मिलना चाहिए। इस विश्व में कर्म का नियम बड़ा अटूट है। संत कबीर ने स्पष्ट कर दिया है—

ईश्वर के दरबार में, कमी वस्तु कछु नाहिं।

कर्म हीन कलपत फिरत, चूक चाकरी माँहि॥

हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। जिन वस्तुओं को मानव जाति के लिए सुखकर और हितकर समझा है, उनके लिए परमात्मा ने सबको सुविधा दी है। पर योग्यतानुसार सबको मिलता है। हमें योग्यताएं सम्पादन करनी चाहिएं, अपनी शक्तियाँ बढ़ानी चाहिएं। जब बेटा बालिग हो जाता है तो पिता के कारोबार पर उसका अधिकार अपने आप हो जाता है। इसी प्रकार जैसे जैसे हम बालिगी का प्रमाण पेश करते जायेंगे वैसे वैसे वे सम्पदायें हमें प्राप्त होती जाएंगी जो अधिकारी पात्रों को प्राप्त होती रहती हैं। सबलता ही सिद्धि है हमें अपने को सब दृष्टियों से सबल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। सबल व्यक्ति स्वयं सिद्ध है। उसे नाना प्रकार की सुखदायक सिद्धियाँ स्वयमेव प्राप्त हो जाती हैं।

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