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Magazine - Year 1947 - Version 2

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योग शक्तियों का उद्गम

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मनुष्य शक्तियों का पुँज है। अज्ञान एवं माया के बन्धनों ने उसकी महानता को छिपा रखा है। इन कषाय कल्मषों से मनुष्य जैसे जैसे छुटकारा प्राप्त करता जाता है वैसे ही वैसे उसकी दिव्य शक्तियाँ निखरती चली जाती हैं। एकाग्रता एवं अभ्यास द्वारा मानसिक शक्तियों को बढ़ाया जा सकता है और उनके द्वारा चमत्कारिक कार्य सम्पादित किये जा सकते हैं।

श्रद्धा और विश्वास यदि अध्यात्म जगत के दो अचूक उपादान हैं। जैसा लोहा और अग्नि इन दो वस्तुओं के द्वारा अनेकों प्रकार के हथियार औजार बर्तन बनाये जा सकते हैं, उसी प्रकार श्रद्धा और विश्वास के आधार पर अनेकों अध्यात्मिक चमत्कारी शक्तियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। अंधेरी रात के समय सुनसान जंगल में मामूली झाड़ी भूत बन जाती है और उससे डर कर मनुष्य बीमार पड़ जाते हैं और कई बार मर तक जाते हैं। अपना विश्वास ही अपने लिए भूत का रूप धारण कर सामने आ उपस्थित होता है उसकी शक्ति इतनी प्रचंड होती है कि बीमार कर देना, मार डालना उसके लिए बायें हाथ की बात है।

चूहे के काटने पर एक आदमी यह विश्वास करके मर गया कि उसे साँप ने काट खाया है। एक व्यक्ति साधारण दवा पीकर मर गया कारण यह था कि दवा की बोतल पर गलती से “जहर” का लेबल किसी ने चिपका दिया था। रोगी ने समझा कि मैंने जहर पी लिया है, इसी भ्रम में उसकी मृत्यु हो गई। एक बार योरोप के एक नगर में एक अपराधी को मृत्यु की सजा दी गई। डाक्टरों ने इस अपराधी को अपनी क्रिया द्वारा मार डालने की सरकार से स्वीकृति ले ली। अपराधी को एक मेज पर लिटा कर उसकी आँखों से पट्टी बाँध दी गई और गले के पास एक छोटी पिन चुभो दी गई जिससे एक दो बूँद खून निकला। उसी जगह पर ऊपर से एक पतली नली द्वारा पानी बहाया गया जो उसकी गरदन पर होता हुआ मेज के नीचे टपकने लगा। अपराधी को विश्वास कराया गया कि उसकी नस काट दी गई है जिसमें होकर खून बह रहा है उसने डाक्टरों की बात पर विश्वास कर लिया और केवल दस पाँच बूँद खून निकलने पर ही अपने विश्वास के कारण कुछ ही देर में मर गया।

बहुत से रोगी साधारण रोग होने पर भी भय घबराहट और आशंका से उद्विग्न होकर अपने रोग को बढ़ा लेते हैं और उसका दुष्परिणाम भोगते हैं। जहाँ विश्वास से अनिष्ट कर स्थिति आती है वहाँ दुखों का नाश भी हो जाता है। लोकमान्य तिलक के अंगूठे का एक बार गहरा आपरेशन होना था। डाक्टरों ने कष्ट अधिक होने की संभावना के कारण क्लोरोफार्म सुँघाने की व्यवस्था की। लो. मा. तिलक ने डॉक्टर से कहा—आप इतना झंझट न कीजिए मैं अपनी रुचि की किसी पुस्तक के पढ़ने में व्यस्त हो जाऊंगा और आपरेशन कर लेना। तिलक पुस्तक पढ़ते रहे डॉक्टर अंगूठा काटता रहा उन्हें कष्ट का भान न हुआ, अविचल भाव से हाथ को ढीला छोड़े हुए वे अध्ययन में लगे रहे। मनः शक्ति की महिमा अपार है, उसके द्वारा बहुत सी अद्भुत बातें प्रत्यक्ष हो जाती हैं।

मनः शक्ति उत्पादक शक्ति है। कल्पना के आधार पर पहले योजनाएं बनाई जाती हैं फिर वे प्रत्यक्ष रूप से सामने आ जाती हैं। कोई मकान या कारखाना पहले किसी के दिमाग में बनता है। उसका , नक्शा, ढाँचा, आकार प्रकार जिस ढंग का मन में बनाया जाता है। हूबहू वैसा ही बनकर कुछ समय में आँखों के आगे आ खड़ा होता है। मनुष्य जिस प्रकार की बातों को सोचता रहता है वैसी ही परिस्थितियाँ उसके जीवन में सामने आती रहती हैं। मन की उत्पादन शक्ति आश्चर्य जनक है, जो बीज मनः क्षेत्र में बोए जाते हैं वे नेत्रों के सामने मूर्त रूप में फलित होते हैं। मनुष्य अपने विचारों द्वारा अपने को साधु, संन्यासी, महात्मा, विद्वान और सुसंपन्न बनाता है और अपने ही विचारों द्वारा पागल, मूर्ख, सनकी, विक्षिप्त, कुकर्मी तथा दीन हीन बनता है। अपने को उठाना और गिराना अपने हाथ की बात है। इतना ही नहीं संसार में महायुद्ध, द्वेष, कलह, अशान्ति, अभाव, उपद्रव तथा सुख, शान्ति, सद्भाव उत्पन्न करना मनुष्य के हाथ की बात है। स्वर्ग या नरक प्राप्त करना, ईश्वर और मुक्ति को उपलब्ध करना केवल मात्र मनः शाक्त का खेल है, मन जिधर भी ढुलक पड़ता है उधर ही तूफानी गति से आगे बढ़ता जाता है।

हम अपनी ‘मानवीय विद्युत के चमत्कार’ पुस्तक में सविस्तार बता चुके हैं कि मनुष्य शरीर के परमाणु किस प्रकार अपनी स्वतन्त्र सत्ता कायम कर लेते हैं। हमारे एक परम सात्विक प्रकृति के मित्र ने ऐसा मकान किराये पर लिया जिसमें पहले एक वेश्या रहा करती थी। उस मकान में पहुँचने पर उनको रातभर कामुकता एवं वासनापूर्ण सपने आते और प्रायः नित्य ही स्वप्नदोष हो जाता। उन्होंने अपना हाल हमें बताया, विचार के पश्चात् यही निष्कर्ष निकला कि उस मकान में रहने वाली वेश्या के परमाणुओं द्वारा कोई अदृश्य मूर्तियाँ बन गई होंगी और वे अपनी जननी वेश्या की भाँति उस मकान में रहने वाले पर प्रभाव डालती होंगी, उन सज्जन को वह वेश्या दिखाई गई जो पहले उस मकान में रहा करती थी तो उन्होंने बताया कि हूबहू ऐसी स्त्री मुझे स्वप्न में दिखाई पड़ती है। वह मकान छोड़ देने पर उनका स्वप्नदोष दूर हो गया। जिन स्थानों में जैसे स्वभाव के मनुष्य रहते हैं उनमें उस तरह का वातावरण छा जाता है। उनके परमाणु अपनी स्वतंत्र सत्ता बना लेते हैं और वहाँ आने वालों पर अपना प्रभाव डालते हैं। इसीलिए व्यभिचार, जुआ, नशेबाजी आदि के अड्डों पर आने जाने से कितने ही मनुष्य उस प्रभाव में आ जाते हैं। जिन घरों में हत्या, यंत्रणा या अन्य भयंकर कर्म होते हैं या हुए हैं वहाँ जाने पर स्वभावतः भय लगता है और वहाँ से भागने की इच्छा होती है। कितने ही घर ऐसे होते हैं जिन्हें अशुभ कहा जाता है उनके पीछे कोई ऐसा ही दुखदायी इतिहास जुड़ा होता है।

कई बार किन्हीं प्रबल इच्छा शक्ति वाले व्यक्तियों के परमाणु अनुकूल अवसर पाकर स्वतंत्र सत्ता बन लेते हैं और जहाँ वह आदमी रहता था वहीं एक अदृश्य मूर्तियों की भाँति रहने लगते हैं। वह व्यक्ति चाहे जीवित हो, चाहे मर गया हो, चाहे मर कर एक या अनेक जन्म ले चुका हो पर उसके परमाणु अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाये रह सकते हैं। भूत प्रेतों के रूप में ऐसी ही “परमाणु प्रति मूर्तियाँ” कभी कभी हमें दिखाई पड़ती हैं। जहाँ मनुष्यों का अधिक आना जाना नहीं होता, जहाँ अग्नि नहीं जलती या जहाँ सुनसान रहता है उन स्थानों पर ऐसी प्रतिमूर्तियाँ बहुत समय तक जीवित रहती हैं। सुनसान खंडहर पड़े रहने वाले राजमहलों, मरघटों तथा ऐसे ही स्थानों पर कभी कभी भूत प्रेतों का अस्तित्व अनुभव में आता है वह संबंधित व्यक्तियों की परमाणुमयी प्रति मूर्तियाँ होती हैं।

शरीर में उत्पादक शक्ति है। रज वीर्य से संतान उत्पन्न होती है। जख्म सड़ने पर माँस में कीड़े पड़ जाते हैं। कब्ज होने पर टट्टी में सफेद कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं। पसीने से जुएं पैदा होते हैं। नारु रोग में फोड़े के भीतर सफेद लंबा कीड़ा निकलता है। प्राण निकल जाने पर देह सड़ने लगती है और कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं। डॉक्टर लोग विभिन्न बीमारियों का कारण विभिन्न प्रकार के कीड़ों का शरीर में पैदा हो जाना बताते हैं। रक्त में कीड़ों की उत्पत्ति और विनाश का क्रम बराबर चलता रहता है। वस्तुओं को पहले मन बनाता है फिर उसी ढाँचे के अनुसार वे प्रत्यक्ष रूप से बनती हैं। कार्य का बीज विचार है। विचारों के द्वारा ही हम परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं। इसके आगे चल कर परमाणुमयी प्रति मूर्तियाँ उत्पन्न होती हैं जिनकी चर्चा ऊपर की पंक्तियों में की जा चुकी है।

इन्हीं तत्वों के आधार पर कुछ विशेष शक्ति युक्त अदृश्य शक्तियाँ उत्पन्न की जा सकती हैं। इस उत्पादन का एक स्वतंत्र विज्ञान है जिसे ‘तंत्र विद्या’ कहते हैं। विश्वास श्रद्धा और मनःशक्ति के संयोग से वे प्रतिमूर्तियाँ पैदा होती हैं। छाया-पुरुष, वेताल, कर्ण पिशाचिनी, भवानी, गायत्री आदि देवी देवताओं को कई व्यक्ति सिद्ध करते हैं और उनके द्वारा कुछ अनोखे काम करते देखे जाते हैं। यह सिद्ध देवी देवता अपनी ही एक मानसिक सन्तान होते हैं। इनमें शक्ति भी उत्पादक की मनःशक्ति और श्रद्धा के अनुसार होती है। किन्हीं साधकों की ये मानसिक सन्तानें निर्बल होती हैं वे अपना दर्शन दे सकती हैं और थोड़ी सी हलचल कर सकती हैं। किन्हीं की प्रतिमूर्तियाँ बड़ी प्रबल होती हैं और वे अदृश्य होते हुए भी एक जीवित मनुष्य जैसी क्रिया करती हैं। दुर्वासा ऋषि ने अपनी जटाओं से एक ऐसी ही भयंकर प्रतिमूर्ति पैदा करके अम्बरीष के पीछे लगा दी थी, इस प्रकार के और भी कितने ही वर्णन प्राचीन पुस्तकों में मिलते हैं। इन मानसिक संतानों का आकार प्रकार वेष भूषा, लिंग, स्वभाव, शक्ति उसी के अनुसार होती है जैसी कि साधक संकल्प करता है। जैसी आकृति ध्यान में रखकर वह साधन करता है वैसी ही आकृति की प्रति मूर्ति उत्पन्न हो जाती है।

प्रतिमूर्तियों की तान्त्रिक साधनाएं अलग अलग प्रकार की होती हैं। यह गुरु परम्परा से चलती है और गुप्त रखी जाती है, इन साधनाओं का मेरुदंड सुदृढ़ विश्वास है। मरघटों में, जल में, रात्रि के सुनसान अंधकार में, कष्ट साध्य प्रक्रियाओं द्वारा कोई मंत्र सिद्ध किये जाते हैं। इन अद्भुत, भयंकर, दुस्साहस पूर्ण, कष्ट साध्य साधना प्रणालियों को प्रयोग में लाने वाला व्यक्ति ऐसा अनुभव करता है कि मैंने कोई भारी दुर्गम पथ पार किया है। मृत्यु तुल्य कठिनाई से लड़कर सफल हुआ हूँ। आत्म विश्वास सफलता का गर्व, गुरु वचनों पर श्रद्धा, मंत्र विज्ञान पर विश्वास, यह सब मिलकर साधक के अन्तःकरण में एक सुदृढ़ ग्रन्थि उत्पन्न करती हैं। इस ग्रन्थि की परिपक्वता के साथ साथ मंत्र बल एवं सिद्ध देवता का कर्तृत्व सबल होता है और उस शक्ति से कुछ अद्भुत कार्य पूरे होते हैं। अनेकों अनुष्ठान अपने नियत विधि विधान द्वारा पूरे होने के उपरान्त कृत कार्य होते देखे गये हैं। इन कार्यों का मेरुदंड विश्वास है। जितना ही विश्वास दृढ़ एवं अविचल होगा उतना ही लाभ होगा। संदेह, अविश्वास, तर्क वितर्क की मनःस्थिति रहने पर इन क्रिया पद्धतियों का लाभ नष्ट हो जाता है। तंत्र साधना एक मनोवैज्ञानिक अभिचार है। इसमें सफल वे ही हो पाते हैं जो एकनिष्ठ हैं। बिना पढ़े, एकान्त प्रिय, गुरु भक्त, धुनि के पक्के, दुस्साहसी, प्रकृति के मनुष्य इसमें सफल होते हैं। विचारशील, तर्कवान, बुद्धिवादी, साधारण जीवन बिताने वाले प्रायः इस दिशा में बहुत कम सफल होते देखे गये हैं। क्योंकि वे मंत्र शक्ति और देवी देवताओं के अस्तित्व के विषय में संदिग्ध रहते हैं। असल में उनका स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं है केवल अपनी मनःशक्ति का एक चमत्कार है। परन्तु जो इस तथ्य को जान लेते हैं उनका विश्वास ढीला पड़ जाता है, देवभक्तों साधकों की भाँति उनमें अटूट श्रद्धा नहीं रहती। फल स्वरूप वे तंत्र साधना में सफल भी नहीं हो पाते।

कई बार ऐसा भी होता है कि अपने में कुछ विशेष शक्ति न होते हुए भी दूसरे के विश्वास को उसी के ऊपर अभिप्रेत करके कुछ आश्चर्य जनक कार्य कर दिखाये जाते हैं। कोई बड़ी रंज की, खुशी की या आश्चर्य की खबर सुना देने या रस्सी का साँप बना कर अचानक डरा देने से हिचकी बन्द हो जाती हैं। कारण यह है कि चित्त हिचकी को भूल कर और दूसरी तरफ लग जाता है। भूत प्रेतों को दूर करने के लिए ओझा या सयाने लोग झाड़ फूँक, उतारा आदि करते हैं उससे रोगी को विश्वास हो जाता है कि भूत को मेरे ऊपर से हटा दिया गया। थाली बजाकर साँप की आत्मा को आह्वान करते हैं, काटे हुए मनुष्य पर साँप की आत्मा उतरे इसके लिए एक ओझा उस काटे हुए मनुष्य को चुनौती (सजेशन) देता रहता है। अन्त में साँप सर चढ़कर बोलता है। इस प्रकार के तान्त्रिक कार्यों का आधार मनः शक्ति का स्फुरण ही है। चित्त को एक ओर से हटाकर दूसरी ओर लगा देने से पहली बात को मनुष्य भूल जाता है और हिचकी बन्द हो जाती है। थाली बजने, सर्प का आह्वान होने के क्रिया कलाप को देखकर साँप का काटा हुआ व्यक्ति प्रभावित होता है, उसके मन में संकल्प उत्पन्न होते हैं। आवेश और संकल्प के सम्मिश्रण के साथ स्वसम्मोहन क्रिया होती है और उस स्थिति में सर्प की भावना एवं भाषा में रोगी बात करने लगता है मुझे यह चाहिए, इस कारण मैंने इसे काटा आदि बातें वह कहता है और घर वालों के यह आश्वासन देने पर कि सर्प देवता की इच्छा पूर्ण कर दी जायेगी, रोगी को विश्वास, सन्तोष एवं समाधान हो जाता है। इस समाधान की प्रबलता के कारण ही विष का घातक प्रभाव नष्ट हो जाता है और रोगी के प्राण बच जाते हैं। परन्तु यदि किसी कारण वश रोगी इन बातों पर विश्वास न करता हो, उस अनुष्ठान से प्रभावित या उत्तेजित न हो तो विष का प्रभाव नष्ट न होगा।

पीर, मसान आदि की चौकी रख कर किन्हीं मनुष्यों को मार डालने का उपचार किया जाता है। और कई बार ऐसे प्रयोग सफल भी होते हैं। ज्योतिषी लोग किन्हीं को बता देते हैं कि तुम अमुक दिन मरोगे तो कभी कभी ऐसा भी देखा गया है कि वह उसी दिन मर भी जाता है। कोई वैद्य डॉक्टर किसी साधारण रोगी को डरा कर अधिक पैसा लेने के लिए भयंकर रोग बता देते हैं और अपने काबू से बाहर के रोग को असाध्य कह देते हैं, उनके कथन के आधार पर कई बार मृत्युएं हो भी जाती हैं। यह विश्वास शक्ति का चमत्कार है। जो व्यक्ति समझता है कि मेरे ऊपर पीर की चौकी चलाई गई है वह अपने संकल्प से स्वतः ही डर कर मृत्यु के मुँह में घुस जाता है। ज्योतिषी या वैद्य के वचनों पर विश्वास करके भी कितने लोग अकाल मृत्यु मर जाते हैं।

किन्हीं व्यक्तियों को ध्यानावस्था में, स्वप्न में, अर्धनिद्रित अवस्था में या आवेश में देवी देवताओं के दर्शन होते हैं। यह संकल्प की मूर्ति मान प्रक्रिया है। जब विश्वास दृढ़ हो जाता है और उस संबंध में तर्क वितर्क नहीं उठते तो भावनाएं इन्द्रियों की अनुभव शक्ति के ऊपर कब्जा करने लगती हैं। हम देखते हैं हिप्नोटिज्म से विमोहित किये हुए व्यक्ति कुछ का कुछ देखते और कुछ का कुछ अनुभव करते हैं। कड़ुई चीज खिलाते हुए उन्हें कहा जाय कि इसका स्वाद मीठा है तो वे उसे मीठा ही अनुभव करने लगते हैं। जल को थल और थल को जल समझने लगते हैं। हिप्नोटिस्ट जैसे-2 आदेश देता जाता है विमोहित व्यक्ति वैसे ही वैसे अनुभव करता है। हिप्नोटिज्म की इस क्रिया पद्धति को एक मनुष्य दूसरे पर प्रयोग करे यह आवश्यक नहीं। कोई व्यक्ति खुद अपने संकल्प बल से अपने आपको भी स्वसम्मोहन कर सकता है और सम्मोहन से पूर्व जो संकल्प किये थे उनको मूर्त रूप में इन्द्रियों से अनुभव कर सकता है। इस तरह वह स्वसम्मोहित अवस्था में इष्ट देव को या अन्य अभीष्ट पदार्थों को देख सकता है उसकी वाणी सुन सकता है, उसका स्पर्श कर सकता है, सूँघ और चख सकता है।

योग विद्या का बहुत बड़ा भाग स्वसम्मोहन विज्ञान के ऊपर निर्धारित है। मैस्मरेजम द्वारा दूसरों को बेहोश किया जाता है पर स्वसम्मोहन से मनुष्य अपने आपको योग निद्रा में ले जा सकता है, इसे समाधि अवस्था भी कहते हैं। देवी देवताओं के दर्शन उनसे वार्तालाप इस दशा में भली प्रकार हो सकता है। स्वर्ग, नरक, लोक लोकान्तरों के दृश्य देख सकता है। जैसे चाहे वैसे शब्द, रूप, रस, गंध स्पर्श का अनुभव कर सकता है। नाद योग वालों को तरह तरह के मधुर शब्द, संगीत, ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। ध्यान योग वाले तरह-तरह के रूप देखते हैं। लय योग तरह तरह के रसों का, ब्रह्मानन्द या परमानन्द का अनुभव करते हैं। विधु योगी स्पर्श जन्य आनन्दों का रसास्वादन करते हैं। हैय योगी दिव्य सुगंधियों की अनुभूति लेते हैं। साधन से पूर्व जिस प्रकार के विचार और विश्वास होते हैं उसी के अनुसार यह अनुभूतियाँ आती हैं। मुसलमान साधक को अपने विचार और विश्वास के अनुसार और बौद्ध साधक को अपनी मान्यता के अनुसार साधन में अनुभूतियाँ होंगी। जैनी, हिन्दू, ईसाई, लामा, आदि के योगों की मान्यताएं अलग अलग हैं। इन मान्यताओं के अनुसार ही उनके साधक स्व साक्षात्कार होते हैं। स्वसम्मोहन विज्ञान के आधार पर साधक अपनी मान्यताओं को थोड़े बहुत देर फेर के साथ अपनी इन्द्रियों द्वारा भी मूर्तमान अवस्था में अनुभव कर सकता है।

यौगिक शक्तियों का उद्गम बाहर नहीं है। कहीं बाहर से, किसी देवी देवता की कृपा से वे प्राप्त नहीं होतीं। अपने अन्दर शक्तियों का प्रचुर भण्डार भरा पड़ा है। आत्म विद्या द्वारा अपनी मानसिक शक्तियों को साधक लोग अपने ही ऊपर नियोजित करते हैं, और अभीष्ट लाभ प्राप्त करते हैं। अपना भगवान रचकर उसमें अपनी भक्ति द्वारा आप ही प्रवेश करके आत्मा परमात्मा बन जाता है। इस महा सत्य को जान कर वेदान्त शास्त्र ने—’सोहमस्यि सोऽहं’ तत्वमसि’ अयमात्मा ब्रह्म, सर्वखिल्विदं ब्रह्म का प्रकाश संसार को दिया है। अद्वैत वाद की पृष्ठ भूमि आत्मा की महाशक्ति की जानकारी पर आधारित है। दूसरे जीव−जंतु परमात्मा को नहीं जानते, मनुष्य की ज्ञानशक्ति ने परमात्मा का आविष्कार किया है। विश्व का कण कण शक्ति से परिपूर्ण है, एक एक परमाणु में प्रलय उपस्थित करने की शक्ति भरी हुई है। फिर मनुष्य का शरीर तो असंख्य परमाणुओं का बना हुआ है। मानसिक परमाणु उससे भी शक्तिशाली हैं फिर आत्मिक सूक्ष्म परमाणुमयी शक्ति की महानता की तो कुछ तुलना ही नहीं। ब्रह्माण्ड की सूक्ष्म सत्ता पिण्ड में मौजूद है, वृक्ष का सम्पूर्ण अस्तित्व बीज में मौजूद है केवल प्रस्फुटन की आवश्यकता है। आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा हम अपनी उन्हीं विभिन्न शक्तियों को जगाते हैं और योग के चमत्कारों को उपलब्ध करते हैं।

प्रचंड संकल्प शक्ति द्वारा अपने आपको प्रभावित करके यथेच्छ आत्मनिर्माण किया जा सकता है। साँसारिक वस्तुओं द्वारा जो सुख मिलते हैं वैसे ही या उससे भी अधिक सुखानुभूति संकल्प के आवेश द्वारा प्राप्त की जा सकती है दूसरों को प्रभावित करके उनको उपयोगी मार्ग पर लगाया जा सकता है। अपने या दूसरों के मानसिक दोष दूर करके शारीरिक एवं बौद्धिक दृष्टि से स्वस्थ बना या बनाया जा सकता है। इच्छित पुनर्जन्म, परलोक या मुक्त अवस्था प्राप्त करने योग्य मनोभूमि बनाई जा सकती है। मानसिक संतुलन ठीक रहने तथा तत्वदर्शी सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाने से साँसारिक प्रिय अप्रिय घटना प्रवाह के कारण आने वाले दुख शोकों से बचा जा सकता है। इसके अतिरिक्त किन्हीं विशेष अनुष्ठानों, साधनों के आधार पर कुछ आश्चर्य जनक सिद्धियाँ भी मिलती हैं।

आत्म साधना में, योग साधना से, अपना संबंध करके, अपनी शक्तियों को प्रस्फुटित करके उपयोगी तत्वों का आविर्भाव होता है। योग एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। जिसके अनुसार अपने शरीर और मन की प्रयोग शाला में अन्वेषण, परीक्षण, प्रयोग के आधार पर महत्वपूर्ण तथ्यों का आविष्कार किया जाता है। इस विज्ञान द्वारा हमारे पूर्वज योग की चमत्कारिक सिद्धियाँ प्राप्त कर चुके हैं। अब डॉक्टर फ्रायड डॉक्टर मेस्मर, डॉक्टर ली प्रभृति मनोविज्ञान शास्त्रियों ने आधुनिक तरीके से वैज्ञानिक खोज आरम्भ की है। यह विज्ञान जितना ही जितना स्पष्ट और परिमार्जित होता जा रहा है उतनी ही उतनी मनः शक्तियों की महत्ता प्रकट होती जा रही है। वह शुभ दिन शीघ्र ही आने वाला है जब विज्ञान, मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों को सर्वोपरि और महान लाभ स्वीकार करेगा। तब वेदान्त और मनोविज्ञान दोनों एक स्तर से आत्मविद्या का जय घोष करेंगे।

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