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आदमी जितना सोचता है उतना बोल नहीं सकता; जितना बोल सकता है, उतना लिख नहीं सकता, जितना लिख सकता है उतना कार्य नहीं कर सकता। इस सिद्धान्त के विरुद्ध जो आदमी कार्य करता हुआ दिखाई देता है वह शीघ्र ही उन्नति के शिखर पर चढ़ जाता है।
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परमात्मा ने स्वतः ही आँख कान हाथ पैर नाक इत्यादि दो दिए हैं किन्तु जबान एक दी है कि कम बोला करो ज्यादा नहीं।
साधना का वैज्ञानिक आधार
पिछले लेख में अध्यात्म में उन सात सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है जिनके आधार पर अध्यात्म की आधार शिला खड़ी हुई है। नाना विधि की साधनाएं अभ्यास, आध्यात्मिक प्रक्रियाएं इन सात आधारों को मजबूत करने के लिए हैं, मन को समझा देना और उसका निर्माण करना दो अलग बातें हैं। पुस्तक पढ़ कर, भाषण सुनकर, वार्तालाप से, सत्संग विचार विनिमय, चिन्तन, आदि के द्वारा मन एक बात को समझ लेता है, उसे ठीक मान लेना है। पर इतने मात्र से ही वह मान्यता व्यवहार रूप में परिणत नहीं हो जाती संस्कार नहीं बन जाती। कितने ही व्यक्ति ऐसे हैं जो सत्य, दया, प्रेम न्याय, संयम आदि सत् सिद्धान्तों को ठीक मानते हैं, उनकी महत्ता स्वीकार करते हैं और उनका समर्थन करते हैं फिर भी व्यवहार में उनके कार्य उन मान्यताओं के बिलकुल विपरित होते हैं। सत्य का उपदेश करने वाले मिथ्याचारी साधु का वेष धरे हुए दुराचारी, आडम्बरी बगुलाभगत, बाहर के मीठे भीतर के कड़ुए अनेकों मनुष्य देखे जाते हैं। विचार और कर्म में भारी अन्तर रखने वाले व्यक्तियों की बाहुल्यता है।
इस बाहुल्यता का कारण यह है कि बहिर्मन जिस प्रकार है, उसकी अंतर्मन की आदत वैसी नहीं है बहिर्मन का काम सोचना, विचारना समझना और किसी निष्कर्ष पर पहुँचना है। तर्क उपदेश परिस्थिति आदि के कारण विचारों में क्षण भर में परिवर्तन हो सकता है। पर अंतर्मन की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। वह विचारों को नहीं विश्वासों एवं संस्कारों को धारण करता है। वह आदतों का भंडार है। जैसी आदत यह पकड़ लेता है उसे मुश्किल से छोड़ता है। शरीर की क्रियाएं इस अंतर्मन के आधार पर ही होती हैं। कई आदमी नशा छोड़ना चाहते हैं, उसकी बुराई करते हैं; परेशान हैं पर नशा छूटता नहीं। आदत उन्हें नशा पीने के लिए मजबूर कर देती है। इसी प्रकार अन्य मामलों में भी जिस ओर मनुष्य अभ्यस्त हो जाता है उसी लकीर पर गाड़ी का पहिया लुढ़कता जाता है। इस अभ्यस्तता को ही संस्कार कहते हैं। अंतर्मन पर संस्कार जमने में बहुत समय लगता है, वे धीरे-धीरे कठिनाई से जमते हैं, पर जब जम कर पक्के हो जाते हैं तो फिर इतने मजबूत होते हैं कि छुड़ाये नहीं छूटते।
आध्यात्मिक सिद्धान्तों को समझ लेना बहुत आसान है। पिछला लेख पढ़कर मामूली पढ़ा लिखा आदमी उन्हें समझ सकता है। उनके संबंध में जो तर्क वितर्क हों उन्हें विचार, चिन्तन या सत्संग से दूर किया जा सकता है। बहिर्मन का काम पूरा हो गया। उसका क्षेत्र, समझना सोचना और निर्णय करना इतना ही है। इतना कार्य एक दो दिन में भली प्रकार हो सकता है। पर केवल इतने मात्र से ही कोई व्यक्ति आत्मवान् नहीं बन सकता आत्म लाभ नहीं कर सकता। जब तक अंतर्मन उन विचारों को विश्वास एवं संस्कारों के रूप में इतनी मजबूती से न पकड़ ले कि जीवन की क्रिया पद्धति उसी के अनुसार अपने आप चलने लगे, तब तक आत्म शिक्षा की पूर्णता नहीं कही जा सकती। इसलिए सिद्धान्तों की शिक्षा के साथ-2 ऐसे साधन, अभ्यास भी करने पड़ते हैं जिससे अंतर्मन का उस साँचे में ढलना आरंभ हो जाय। साधना का यही उद्देश्य है यही प्रयोजन है। साधना द्वारा हम अंतर्मन का वैसा निर्माण करते हैं जैसा कि अपने भावी जीवन को बनाना या चलाना चाहते हैं।
बहिर्मन का क्षेत्र सीमित है। विचार शक्ति का केन्द्र खोपड़ी के मध्य भाग में है। माथे से लेकर आधी खोपड़ी के मध्यभाग तक इस प्रकार के तन्तु और परमाणु हैं जो सोचने समझने और किसी नतीजे पर पहुँचने का कार्य करते हैं। नेत्रों द्वारा जो देखा जाता है, कानों से जो सुना जाता है, बुद्धि से जो सोचा जाता है वह सब प्रवाह बहिर्मन के इन परमाणुओं से टकराता है और उस प्रयोग शाला में हलचल शुरू होती है। विभिन्न मानसिक शक्तियाँ उपस्थित प्रश्न को सुलझाने में जुट पड़ती हैं और उनके सम्मिलित प्रयत्न से एक निष्कर्ष निकल आता है। पर अंतर्मन की स्थिति इससे भिन्न है। खोपड़ी के पिछले भाग में वह एक रूखे, कर्कश, जिद्दी, लड़ाकू, स्वार्थी निरक्षर भट्टाचार्य, गँवार की तरह चुपचाप बैठा रहता है और कभी न थकने वाले भूत की तरह यंत्र गति से अपना काम करता रहता है। बहिर्मन रात को सो जाता है पर अंतर्मन तब भी अपना काम करता रहता है। उसकी खटपट से बेचारे बहिर्मन की नींद उचट जाती है और औंधे सीधे स्वप्न देखने को उसे विवश होना पड़ता है।
अंतर्मन का केन्द्र खोपड़ी के पिछले भाग में है, फिर भी उसका कार्यक्षेत्र समस्त शरीर है। समस्त शरीर में फैले हुए ज्ञान तन्तु, स्नायु जाल, रक्त सूत्र अंतर्मन के केन्द्र से संबंध हैं। शरीर के द्वारा जो क्रियाएं होती हैं उन्हीं के आधार पर आदतें बनती हैं और उन्हीं से स्वभाव एवं संस्कार बन जाते हैं। केवल विचार करने मात्र से अंतर्मन का परिवर्तन नहीं होता, उसे बदलने के लिए क्रियाओं की, घटनाओं की, समारोहों की, प्रदर्शनों की, परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए विविध साधनाओं का निर्माण हुआ है। योग साधना का यही उद्देश्य है। जिस क्रिया पद्धति से अंतर्मन को इच्छित ढाँचे में ढाला जाता है उसका ही नाम साधना है। अंतर्मन के इच्छित ढाँचे में ढल जाने पर दोनों मन निर्विरोध हो जाते हैं, इससे बड़ी शाँति मिलती है। इन दोनों के विरोध में अशाँति एवं बेचैनी है जब इन दोनों का एकीभाव हो जाता है तो अपनी स्थिति पर मनुष्य को बड़ा संतोष होता है। विचारों के अनुसार कार्य भी तभी होते है जब उस प्रकार का स्वभाव बन जाता है। इस प्रकार का स्वभाव या संस्कार बन जाना ही आध्यात्मिक साधना की सफलता है। यह सफलता प्राप्त होते ही समस्त आत्मिक संपन्नताएं करतलगत हो जाती हैं।