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Magazine - Year 1947 - Version 2

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गृहस्थ में योग साधना

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(पद्म पुराण से)

एक बार भीष्म जी ने महर्षि पुलस्त से पूछा- हे ब्रह्मन्! सबसे अधिक पुण्यजनक जो अनुष्ठान हो उसका मुझसे वर्णन कीजिये।

पुलस्त ऋषि ने कहा- हे भीष्म! इसी प्रकार एक बार व्यास जी के शिष्यों ने भी उनसे यही प्रश्न पूछा था व्यासजी ने इन प्रश्नों के उत्तर में अपने शिष्यों को कुछ आख्यान सुनाये थे सो उन आख्यानों को ही मैं आपको सुनाता हूँ।

प्राचीन समय में एक नरोत्तम नामक युवक था। वह जब कुछ समर्थ हुआ तो वृद्ध माता पिता को निराश्रित छोड़ कर तप करने के लिए चला गया। बहुत दिन तप करने पर उसे कुछ आत्मशक्ति प्राप्त हुई। उसके गीले वस्त्र आकाश में अधर लटके रहकर सूखने लगे।

एक दिन वह वृक्ष के नीचे बैठा था। ऊपर एक पक्षी ने उसके ऊपर बीट कर दी। नरोत्तम को क्रोध आया। क्रोध भरी दृष्टि जैसे उसने ऊपर देखा वैसे ही पक्षी भस्म होकर नीचे गिर पड़ा। अपनी इतनी आत्म शक्ति देखकर उसे बड़ा अभिमान हुआ। अहंकार से उसका मन भर गया।

वह तपस्वी एक दिन भिक्षा के लिए नगर में गया। वहाँ जाकर उसने एक गृहस्थ के द्वार पर भिक्षा माँगी। भीतर से गृह स्वामिनी ने उत्तर दिया-भिक्षुक! कुछ देर खड़े रहिए। पति सेवा में लगी हूँ उसे पूरा करके भिक्षा दूँगी। तपस्वी को इस पर क्रोध आया, उसका चेहरा तमतमाने लगा। इस पर उस गृह-स्वामिनी ने कहा-क्रोधित मत हूजिए मैं पक्षी नहीं हूँ, जो आपके क्रोध से जल जाऊंगी।

स्त्री के यह वचन सुनकर तपस्वी को बड़ा आश्चर्य हुआ। मेरे पक्षी जलाने की गुप्त घटना इसे किस प्रकार विदित हो गई। निस्संदेह यह भी कोई आत्म शक्ति सम्पन्न देवी है। तपस्वी ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और पूछा- हे देवी! तुमने यह आत्मशक्ति घर में रहते हुए किस प्राप्त प्रकार कर ली? मैं तो इतनी तपस्या करने के बाद भी केवल क्रोध से पक्षी जलाने मात्र की सामर्थ्य प्राप्त कर सका हूँ। पर भूत भविष्य की बातें जानने की शक्ति अभी तक मुझ में नहीं है। पर तुम्हारी शक्ति मुझसे अधिक है यह जिस साधन से तुम्हें मिली है उसे हे कल्याणी! मुझ से कहो।

स्त्री ने कहा-हे तपस्वी! मैं मन, कर्म, वचन, से पति सेवा में लगी रहती हूँ। यही मेरी साधना है। इसके अतिरिक्त और कुछ जप तप मैं नहीं जानती। यदि आपको अधिक जानना हो तो तुलाधार वैश्य के पास चले जाइए।

तपस्वी तुलाधार के नगर को चल दिया। कठिन मार्ग को पार करके वहाँ पहुँचा। द्वार पर खड़े साधु को देखकर तुलाधार उठ खड़ा हुआ। उसने दंडवत प्रणाम किया और पूछा हे नरोत्तम साधु! आपको मार्ग में कुछ कष्ट तो नहीं हुआ! उस पतिव्रता स्त्री के कहने से आपको मेरे पास आने पर कष्ट हुआ! पर अब बताइए- आपका पक्षी जलाने का अहंकार दूर हुआ या नहीं?

इतने प्रश्न पूछने पर तपस्वी को और भी आश्चर्य हुआ। इतनी अज्ञात बातें इस वैश्य ने किस प्रकार जान लीं? निस्संदेह यह भी कोई सिद्ध पुरुष है।

नरोत्तम ने तुलाधार को प्रणाम किया और कहा-भगवान्! ईश्वर की कृपा से मार्ग में कोई कष्ट नहीं हुआ। आपको मेरा नाम, पक्षी जलाने का हाल, तथा उस देवी ने मुझे भेजा है, वह सब जिस शक्ति के द्वारा जाना है उस शक्ति को प्राप्त करने की साधना मुझे बतलाइए।

तुलाधार ने उत्तर दिया! भगवान् मैं साधारण वैश्य हूँ। सचाई का व्यापार करता हूँ। पूरा तोलता हूँ। खरा माल देता हूँ इसके अतिरिक्त मैं और कोई साधना नहीं जानता। इस साधना से ही मेरी शक्ति बढ़ी है। यदि आपको इस साधना विधि से संतोष न हो तो कृपया मूक चाण्डाल के पास चले जाइए। वह आपको आत्मशक्ति का रहस्य बता देगा।

तपस्वी, तुलाधार से विदा होकर मूक चाण्डाल के नगर को चल दिया। वहाँ पहुँच कर देखा कि मैले कुचैले वस्त्र पहने हुए वह, चाण्डाल अपने मल उठाने के काम में लगा हुआ है। चाण्डाल ने नरोत्तम को दंडवत किया और कहा-भगवन्! आप जिस प्रयोजन के लिए आये हैं सो मैं जानता हूँ। आप अभी जाकर विश्राम कीजिए। नियम कर्म से निवृत्त होकर आपसे मैं निवेदन करूंगा।

मूक चाण्डाल नियत कर्म से छुटकारा पाकर तपस्वी के सम्मुख उपस्थित हुआ उसने कहा भगवन्! मैं अपने माता पिता की दत्त चित्त से सेवा करता हूँ उन्हें अपना देवता और इष्ट देव मान कर उनकी सेवा सुश्रूषा में लगा रहता हूँ। यही मेरा साधन है। इस साधन के कारण ही मुझे आत्मशक्ति मिली है।

तब तपस्वी ने पूछा-हे मूक चाण्डाल! गृहत्यागी, वनवासी, योग साधक जिस शक्ति को चिरकाल तक कठोर साधन करके प्राप्त करते हैं, उसे गृहस्थ लोग इतनी सुगमता से किस प्रकार प्राप्त कर लेते हैं सो मुझे समझाइए।

चाण्डाल ने कहा-हे ब्रह्मन्! जप योग, तप योग, नाद योग, बिन्दुयोग, ध्यान योग की भाँति ही कर्मयोग भी एक आध्यात्मिक साधना है। अपने नियत कर्म को श्रद्धापूर्वक, कर्तव्य की धर्म भावना से जो अनन्य मन द्वारा करता है वह योग साधन ही करता है। उस पतिव्रता का पतिव्रत, तुलाधार का धर्म व्यापार, मेरा सेवा धर्म, यह सब भी योग साधन से भिन्न नहीं हैं। श्रद्धा के साथ इन साधनाओं में रत रहने से भी आत्म साक्षात्कार होता है और ब्रह्मनिर्वाण मिलता है।

चाण्डाल के वचन सुनकर नरोत्तम को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। वह वहाँ से सीधा अपने घर पहुँचा और वृद्ध माता पिता जो उसके वियोग में जर्जर हो रहे थे, उनके चरणों पर गिर पड़ा। और कहा-हे प्राणवान् देव प्रतिमाओं! मेरे अपराध को क्षमा करो। मैं अब आप लोगों की सेवा में ही रहूँगा। तीन सच्चे महात्माओं ने जो क्रिया युक्त उपदेश मुझे किये हैं उनके अनुसार अपना कर्तव्य पालन करता हुआ, आत्म कल्याण करूंगा।

इतने दिन बाद पुत्र को वापिस आया देखकर माता पिता को बड़ा आनंद हुआ। उनने उसे उठाकर बार बार छाती से लगाया और आशीर्वाद दिया कि तात! तुम्हारी साधना सफल हो। फिर जब तक माता पिता जीवित रहे नरोत्तम उनकी अनन्य भाव से सेवा करता रहा।

पुलस्त ऋषि ने कहा- हे भीष्म! व्यासजी ने जो आख्यान अपने शिष्यों को सो सुनाया था मैंने तुमसे कह दिया। अपने कर्तव्य धर्म को सच्चे मन से पालन करना यही सब से अधिक पुण्यजनक अनुष्ठान हैं। जो फल कठिन श्रम से प्रवीण साधकों को मिलता है वह कर्म योगी को सहज ही प्राप्त हो जाता। शास्त्र का भी यही वचन है-

सत्येन समभावेन जितंतेन जगत् त्रयम्। तेनातृप्यन्त पितरो देवा मुनिगणैः सह। भूत भव्यंप्रवृत्तंचतेन जानाति धार्मिकः। नास्ति सत्यात्परों धर्म नानृतात्पातकं परम्॥

सत्यता और समत्व की भावना जिसमें है वह तीनों लोकों को जीत लेता है। उससे पितर, देवता और मुनि प्रसन्न रहते हैं। वह धर्मात्मा भूत, भविष्य और वर्तमान की बातें जान लेता है। सत्य से बड़ा और कोई धर्म नहीं, असत्य से बड़ा और कोई पाप नहीं। इसलिए सत्यता पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। इसी में मनुष्य का सच्चा कल्याण है।

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