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Magazine - Year 1947 - Version 2

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अपने को यज्ञ में झोंक दे!

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स्वयं यजस्व दिवि देव देवान् किं ते पाकः कृणवद प्रचेताः। यधा यज ऋनुभिर्देवानेवा यजस्व तन्वं सुजात।

॥ ऋग्वेद 10।7।6॥

हे (देव) दिव्य स्वभाव वाले! तू (स्वयम्) अपने आप (दिवि) मस्तिष्क में विद्यमान (देवान्) देवों को, दिव्यभावों को (यजस्व) यज्ञ कर, समर्पण कर, (अप्रेचताः) मूढ़ अज्ञानी, (पाकः) परिपक्व पवित्र (ते) तेरा (किं) क्या (कृणवत्) कर सकता है। (यथा) जैसे तू (ऋतुभिः) ऋतुओं के अनुसार (देवान्) देवों को (अजयः) यजन करता है (एवा) ऐसे ही हे (सुजात) उत्तम से उत्पन्न हुए! (तन्वं) शरीर को (यजस्व) यजन कर।

हे दिव्य स्वभाव वाले, यज्ञ कर साधारण पाँच यज्ञ तो नित्य ही होते हैं। अलग अलग ऋतुओं में पर्वों पर, संस्कारों, उत्सवों, आयोजनों, अनुष्ठानों के अवसर नैमित्तिक यज्ञ भी होते ही रहते हैं। आज वेद भगवान इन नित्य के, निमित्त के, यज्ञों से, अग्निहोत्रों से भिन्न प्रकार का यज्ञ करने के लिये तुझे बुलाते हैं। यह यज्ञ विशिष्ट प्रकार को होगा। यह अध्यात्म यज्ञ है।

यह यज्ञ कहाँ होगा? कौन करेगा? किस देवता के लिये यह यज्ञ किया जायगा? किस सामग्री से हवन होगा? यह प्रश्न विचारणीय हैं। क्योंकि जब यह यज्ञ विशेष प्रकार का है तो उसका विधिविधान भी विशेष प्रकार का ही होगा। वेद ने इसी मन्त्र में वह सब कुछ समझा दिया है। उसने कहा है कि-तू अपने आप यज्ञ कर, स्वयं ही होता, स्वयं यजमान, स्वयं पुरोहित बन। इस यज्ञ का स्थान होगा-दिविधु लोक, मस्तिष्क। यह यज्ञ देवताओं के लिये किया जायगा। कौन देवता? वे देवता जो दिव्य भाव बनकर तेरे अन्दर निवास करते हैं। सामग्री के स्थान पर तुझे अपना शरीर ही होमना पड़ेगा। ऐसे दिव्य यज्ञ की वेद भगवान माँग करते हैं। हे दिव्य स्वभाव वाले! हे सर्वोत्तम परमात्मा से उत्पन्न हुए आत्मा! तू ऐसा यज्ञ कर सकता है क्योंकि तू परिपक्व है! पवित्र है!

गीता का कथन है-

सह यज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजायति।

अनेन प्रसविष्या ध्वमेथ वो ऽस्त्विष्ट कामघुक्।

इष्टान्भोगान्षि वो देवा दास्यन्ते यज्ञ भावितः।

।3।10।12।

प्रजापति, परमात्मा ने यज्ञ सहित प्रजा को रच कर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोगों की मनोकामनाओं को पूरा करने वाला होवे। यज्ञ द्वारा प्रसन्न किये हुए देवता लोग तुम्हारे लिये बिना माँगे ही वाँछित भोगों को देंगे।

मनोवाँछित अभिलाषाओं को देव पूरा करते हैं, मनुष्य स्वयं उन्हें पूरा नहीं कर सकता। इच्छा पूर्ति का साधन जुटाया जाता है परन्तु इच्छा साधन से बढ़ जाती है। चाहे जितने साधन जुटाये जायं पर वे बड़े से बड़े साधक इच्छा की अपेक्षा छोटे ही रहते हैं। एक वस्तु मिली कि दूसरी की चाह हुई। धन, मान, बड़ाई, प्रशंसा, स्त्री, पुत्र, आदि चाहे कितने ही अधिक क्यों न हों मन उससे न अघाता है, न तृप्त होता है। मनोवाञ्छा पूरी होती ही नहीं, फलस्वरूप वह सदा अशान्त, इच्छुक, अभावग्रस्त, जरूरत, मन्द बना रहता है। इस विषम स्थित से बचाने की शक्ति देवों में हैं। वे देव यज्ञ से उत्पन्न होते हैं और प्रसन्न होने पर मनोवाञ्छा पूरी करते हैं।

दिव्य भावों को देव कहते हैं, वे द्युत लोक में मस्तिष्क के मध्य केन्द्र ब्रह्म रंध्र में रहते हैं दया, प्रेम, मैत्री, करुणा, सेवा, सहायता, आत्मीयता, प्रसन्नता सरीखे सूक्ष्म भावों में जब मनुष्य रमण करने लगता है तो उसे ऐसा उच्च कोटि का आत्मिक आनन्द आता है जिसकी तुलना में विषय भोग, धन और गर्व पोषण के सुख बहुत ही तुच्छ, बहुत ही नीचे दर्जे के दृष्टिगोचर होने लगते हैं। जिसने मिश्री नहीं चखी है उसके लिये गुड़ ही बढ़िया चीज है, पर जब वह मिश्री चख लेता है तो गुड़ को छोड़कर उसे ही अपनाता है। मन जिन साँसारिक भोगों की तृष्णाओं में भटक रहा था, उनसे ऊँची अधिक स्वादिष्ट, अधिक रसमयी, कोई वस्तु उसके अनुभव में आती है तो वह घटिया चीज को छोड़ देता है। इस परिवर्तन के होते ही मनोवाञ्छा पूर्ण होने लगती है। दिव्य भावों का, दिव्य ज्ञान का, प्रकाश मानस लोक में फैलते ही अन्धकार दूर हो जाता हैं। मन अंधेरे में टटोलना, अनिश्चित दिशाओं में भटकना छोड़कर एक सुनिश्चित आधार प्राप्त कर लेता है। छोटा बालक दुकानों की रंग−बिरंगी सभी चीजों के लिये ललचाता है, माँगता है और कभी कभी मचल भी जाता है पर बड़ा आदमी उन चीजों की असलियत समझता है और उसकी ओर आँख उठा कर भी नहीं देखता। यदि कोई चीज खरीदता है तो उपयोगिता और आवश्यकता को ध्यान में रखता है, बालक की तरह “चमकीली चीजों का संग्रह” उनकी नीति नहीं होती। बालक की तृष्णा-वयस्कता आने पर, चीजों की वास्तविकता का ज्ञान होने पर, अपने आप शान्त हो जाती है उसी प्रकार अशांतियों को हर घड़ी बेचैन बनाये रहने वाली अनेकों तृष्णाएं तब शान्त होती हैं जब आत्मिक वयस्कता है, जब ज्ञान का, दिव्यता का, प्रकाश होता है। साँसारिक सम्पदाओं की तुच्छता का तब अनुभव होता है, जब दिव्य भावों में रमण करने का रस उसे चखने को मिलता है। यह रसास्वादन उसकी तृष्णाओं को मनोवांछाओं को शान्त कर देता है और एक ऐसी स्थिति सामने ला देता है जिसे पाकर और कुछ पाने की अभिलाषा नहीं होती। इस प्रकार देवता-दिव्य भाव-हमारी सब मनोकामनाओं को पूरी कर देते हैं।

यह देवता-दिव्य भाव-बढ़ते किस समय हैं? जागृत किस तरह होते हैं? प्रसन्न किस तरह होते हैं? इसका उत्तर गीता और श्रुति दोनों एक स्वर में देती हैं-देवता यज्ञ से प्रसन्न होते हैं। सत्कर्म को यज्ञ कहा है। कर्म से भावों की पुष्टि होती है। केवल मात्र विचार करते रहने से, कल्पना की तरंगों पर उड़ते रहने से, मनसूबे बाँधते रहने से, योजनाएं बनाते प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। मन के मोदक खाने से भूख नहीं बुझती। भूख बुझाने के लिये तो थाली में परोसा हुआ अन्न सामने आना चाहिये। यह सत्य है कि कर्म से भाव की पुष्टि होती है। दो पहिये मिलकर जैसे एक गाड़ी को गतिवान बनाते हैं वैसे ज्ञान और कर्म मिल कर एक “साधन” बनता है। देवता यज्ञ से बढ़ते हैं। सत्कर्म करने से देवताओं का, दिव्य भावों का बल बढ़ता है, इसलिये यदि हम मनोवाञ्छाएं पूर्ण करने का अतुलित आनन्द उठाना चाहते हैं तो देवताओं को- दिव्य भावों को बढ़ाने वाले यज्ञों को, सत्कर्मों को करना चाहिये।

जो दिव्य भाव मन में उत्पन्न होते हैं, उन्हें कार्य रूप में परिणत करना चाहिये। अपनी भीतरी बुराइयों को ध्यानपूर्वक देखना चाहिये जो त्रुटियाँ अपने में हों उन्हें हटाने के लिये उनके विरोधी आचरण करने चाहिये। घड़ी में अलार्म भरकर या कोई जगाने वाला नियुक्त करके उस बुरी आदत का विरोधी आचरण आरम्भ कर देना चाहिये। इस विरोधी आचरण से ही उसका निवारण हो सकता है। इसी प्रकार जिन अच्छाइयों को बढ़ाने की आवश्यकता हो, उन्हें हठ पूर्वक बलात् करना चाहिये, मन न लगता हो तो भी बलपूर्वक इस काम को करना चाहिये। स्वाध्याय, आत्मचिन्तन, दान, सेवा, परमार्थ, आदि कार्यों में प्रायः मन की रुचि कठिनता से झुकती है पर दृढ़ निश्चय के साथ लगातार, प्रतिदिन, उन कार्यों की पुनरावृत्ति करने पर फिर उसी प्रकार की आदत पड़ जाती है और उसी प्रकार के आचरण करने का स्वभाव बन जाता है। दिव्यता की स्थापना का विचार ही करना संकल्प है। क्या दिव्यता स्थापित की जाय? किस प्रकार की जाय? यह योजना मिश्रित करना मन्त्र है, उस योजना के अनुसार कार्य आरम्भ कर देना यज्ञ है।

उस यज्ञ के लिये सामग्री क्या पड़े? श्रुति कहती है-हे उत्तम से उत्पन्न! हे परमात्मा के युवराज! ‘यजस्व तन्वं’ अपने शरीर को यजन कर डाल। अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को सत्कर्म में लगा डाल। जैसे पैसे खर्च करके बाजार से हवन सामग्री खरीद ली जाती है और दक्षिणा देकर जप करने वाले, अग्निहोत्र कराने वाले बुला लिये जाते हैं उस प्रकार इस अध्यात्म यज्ञ में काम नहीं चल सकता। इस यज्ञ में तो अपना शरीर हवन करना पड़ेगा। अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को लगाना पड़ेगा। केवल धन खर्च करके कोई विद्या नहीं खरीद सकता, इसी प्रकार धर्म भी नहीं खरीदा जा सकता, दिव्य ज्ञान भी नहीं खरीदा जा सकता। इस महान् यज्ञ में तो आत्म बलिदान करना पड़ेगा। मन को नियोजित करना पड़ेगा और शरीर का श्रम लगाना पड़ेगा।

शरीर की परवा मत करो। शरीर की इन्द्रियाँ जिन जिन विषयों की ओर दौड़ती हैं उनकी परवा मत करो, मन की परवा मत करो, मन की मायामयी भौतिक इच्छा, आकाँक्षा और तृष्णाओं की परवा मत करो। इनको सत्कर्म रूपी यज्ञ में झोंक दो। वेद कहता है-हे सुजात्! हे पवित्र! हे दिव्य! यज्ञ कर, देवताओं के लिये यज्ञ कर, अपने तन मन को सत्कर्म रूपी यज्ञ में झोंके दे। आत्ममेध की आहुति देकर, इस महान यज्ञ को पूरा कर।

यह श्रुति की वाणी, पुकार, याचना सुनकर आत्मन्! झिझको मत! यह मत सोचो कि पुराना स्वभाव, संस्कार, आत्म बलिदान के मार्ग से रोकेगा। पुराने साथियों का समाज विघ्न डालेगा और कहेगा, “सत्कर्म के, त्याग, बलिदान और लोक सेवा के पथ पर मत चलो, इस मार्ग में कठिनाई है, वह पुराना संचय और भोग प्रधान मार्ग ही इच्छा है।” पर तुम इस विघ्न से मत डरों। इससे मत झिझको, इस संकोच में मत रुको। क्योंकि यह अप्रचेता है, अज्ञान और मूढ़तामय है, तुच्छ है, उपेक्षणीय है। यह तुच्छ सा विघ्न तुम्हारा मार्ग नहीं रोक सकता। वह-’किं ते कृणवत्’ तेरा क्या कर लेगा? ठुकरा देने पर तेरा क्या बिगाड़ कर सकेगा? ठुकरा देने में किसी प्रकार का कुछ बिगाड़ नहीं है, इस मूढ़ भय को हटा देना ही श्रेयस्कर है।

वेद कहता है- हे मनुष्य! तू उत्तम से उत्पन्न हुआ है, नीच से नहीं। हे मनुष्य! तू दिव्य है, घृणित नहीं। हे मनुष्य! तू पवित्र है, अपवित्र नहीं। इसलिये अपने आत्म गौरव के अनुसार काम कर। देवता को बढ़ाने वाला यज्ञ कर। उस यज्ञ में अपने आप को झोंक दे।

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