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Magazine - Year 1947 - Version 2

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तैंतीस कोटि देवता क्या हैं?

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हिन्दू धर्म में अनेक देवी देवताओं की मान्यता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन प्रधान देवता हैं। दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती देवियाँ एवं इन्द्र, गणेश, वरुण, मरुत, अर्यमा, सूर्य, चन्द्र, भौम, बुद्ध, गुरु, शुक्र, शनि, अग्नि, प्रजापति आदि देवताओं का स्थान है। गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियाँ, गोवर्धन, चित्रकूट, विन्ध्याचल आदि पर्वत, तुलसी, पीपल आदि वृक्ष, गौ, बैल आदि पशु, गरुण, नीलकण्ठ आदि पक्षी, सर्प आदि कीड़े भी देवता कोटि में गिने जाते हैं। भूत, प्रेतों से कुछ ऊँची श्रेणी के देवता भैरव, क्षेत्रपाल, यज्ञ, ब्रह्मराक्षस, बैतास, कूष्मांडा, पीर, वली, औलिया आदि हैं। फिर ग्राम्य देवता और भूत, प्रेत, मसान, चुड़ैल आदि हैं। राम, कृष्ण, नृसिंह, बाराह, वामन आदि अवतारों को भी देवताओं की कोटि में गिना जा सकता है।

इन देवताओं की संख्या तैंतीस कोटि बताई जाती है। कोटि के शब्द के दो अर्थ किये जाते हैं (1.) श्रेणी (2.) करोड़। तेतीस प्रकार के, तेतीस जाती के ये देवता हैं। जाति, श्रेणी या कोटि शब्द बहुवचन का बोधक है। इससे समझा जाता है कि हर कोटि में अनेकों देव होंगे और तेतीस कोटियों-श्रेणियों के देव तो सब मिलकर बहुत बड़ी संख्या में होंगे। कोटि शब्द का दूसरा अर्थ ‘करोड़’ है। उससे तैंतीस करोड़ देवताओं के अस्तित्व का पता चलता है। जो हो यह तो मानना ही पड़ेगा कि हिन्दू धर्म में देवों की बहुत बड़ी संख्या मानी जाती है। वेदों में भी तीस से ऊपर देवताओं का वर्णन मिलता है।

देवताओं की इतनी बड़ी संख्या एक सत्य शोधक को बड़ी उलझन में डाल देती है। वह सोचता है कि इतने अगणित देवताओं के अस्तित्व का क्या तो प्रमाण है, और क्या उपयोग? इन देवताओं में अनेकों की तो ईश्वर से समता है। इस प्रकार ‘बहु ईश्वरवाद’ उपज खड़ा होता है। संसार के प्रायः सभी प्रमुख धर्म ‘एक ईश्वरवाद’ को मानते हैं। हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी अनेकों अभिवचन एक ईश्वर होने के समर्थन में भरे पड़े हैं। फिर यह अनेक ईश्वर कैसे? ईश्वर की ईश्वरता में साझेदारी का होना कुछ बुद्धि संगत प्रतीत नहीं होता। अनेक देवताओं का अपनी अपनी मर्जी से मनुष्यों पर शासन करना, शाप, वरदान देना, सजायता या विघ्न उपस्थित करना एक प्रकार से ईश्वरीय जगत की अराजकता है। कर्म फल के अविचल सिद्धान्त की परवा न करके भेट पूजा से प्रसन्न अप्रसन्न होकर शाप वरदान देने वाले देवता लोग एक प्रकार से ईश्वरीय शासक में चोर बाजार, घूसखोरी, डाकेजनी एवं अनाचार उत्पन्न करते हैं। इस अवाञ्छनीय स्थिति को सामने देखकर किसी भी सत्य शोधक का सिर चकराने लगता है। वह समझ नहीं पाता कि आखिर वह सब है क्या प्रपंच?

देवता वाद पर सूक्ष्म रूप से विचार करने से प्रतीत होता है कि एक ही ईश्वर की अनेक शक्तियों के नाम अलग अलग हैं और उन नामों को ही देवता कहते हैं। जैसे सूर्य की किरणों में सात रंग हैं उन रंगों के हरा, पीला, लाल, नीला आदि अलग अलग नाम हैं। हरी किरणें, अल्ट्रा वायलेट किरणों, एक्स किरणें, बिल्डन किरणें आदि अनेकों प्रकार की किरणें हैं उनके कार्य और गुण अलग अलग होने के कारण उनके नाम भी अलग अलग हैं उनसे पर भी वे एक ही सूर्य की अंश हैं। अनेक किरणें होने पर भी सूर्य एक ही रहता है। इसी प्रकार एक ही ईश्वर की अनेक शक्तियाँ अपने गुण कर्म के अनुसार विविध देव नामों से पुकारी जाती हैं। मूलतः ईश्वर तो एक ही है। एक मात्र ईश्वर ही इस सृष्टि का निर्माता, पालन कर्ता और नाश करने वाला है। उस ईश्वर की जो शक्ति निर्माण एवं उत्पत्ति करती है उसे ब्रह्मा, जो पालन, विकास एवं शासन करती है वह विष्णु, जो जीर्णता, अवनति एवं संहार करती हैं उसे शंकर कहते हैं। दुष्टों को दण्ड देने वाली दुर्गा, सिद्धिदाता गणेश, ज्ञान दाता सरस्वती, श्री समृद्धि प्रदान करने वाली लक्ष्मी, जल बरसाने वाली इन्द्र, इसी प्रकार हनुमान आदि समझने चाहिये। जैसे एक ही मनुष्य के विविध अंगों को हाथ, पैर, नाक, कान, आँख आदि कहते हैं, इसी प्रकार ईश्वरीय सूक्ष्म शक्तियों के उनके गुणों के अनुसार विविध नाम हैं वही देवता हैं।

कैवल्योपनिषद् कार ऋषि का कथन है- ‘स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट्। स इन्द्रस्स कालानिस्स चन्द्रमाः।’ अर्थात् वह परमात्मा ही ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शिव, अक्षर, स्वराट्, इन्द्र, काल, अग्नि और चन्द्रमा है। इसी प्रकार ऋग्वेद मं0 1 सू0 164 मं0 46 में कहा गया है कि- ‘इन्द्र मित्रं वरुणमश्माहुरथों दिव्यस्य सुपर्णो गरुत्मान्। एवं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्रि यमं मातरिश्वान माहु।’ अर्थात् विद्वान् लोग ईश्वर को ही इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, गरुत्मान्, दिव्य, सुपर्ण, यम, मातरिश्वा नाम से पुकारते हैं। उस एक ईश्वर को ही अनेक नामों से कहते हैं।

इनसे प्रगट होता है कि देवताओं का पृथक् पृथक् अस्तित्व नहीं है, ईश्वर का उसका गुणों के अनुसार देव वाची नामकरण किया है। जैसे-अग्नि-तेजस्वी। प्रजापति-प्रजा का पालन करने वाला। इन्द्र-ऐश्वर्यवान। ब्रह्मा-बनाने वाला। विष्णु-व्यापक। रुद्र-भयंकर। शिव-कल्याण करने वाला। मातरिश्वा-अत्यन्त बलवान। वायु-गतिवान। आदित्य-अविनाशी। मित्र-मित्रता रखने वाला। वरुण-ग्रहण करने योग्य। अर्यमा-न्यायवान्। सविता-उत्पादक। कुबेर-व्यापक। वसु-सब में बसने वाला। चन्द्र-आनन्द देने वाला मंगल-कल्याणकारी। बुध-ज्ञानस्वरूप। बृहस्पति-समस्त ब्रह्माँडों का स्वामी। शुक्र-पवित्र। शनिश्चर-सहज में प्राप्त होने वाला। राहु-निर्लिप्त। केतु-निर्दोष। निरंजन-कामना रहित। गणेश-प्रजा का स्वामी। धर्मराज-धर्म का स्वामी। यम-फलदाता। काल- समय रूप। शेष-उत्पत्ति और प्रलय से बचा हुआ। शंकर-कल्याण करने वाला। इसी प्रकार अन्य देवों के नामों का अर्थ ढूँढ़ा जाय तो वह परमात्मा का ही बोध कराता है।

अब यह प्रश्न उठता है कि इन देवताओं की विविध प्रकार की आकृतियाँ क्यों हैं? आकृतियों की आवश्यकता किसी बात की कल्पना करने या स्मरण रखने के लिये आवश्यक है। किसी बात का विचार या ध्यान करने के लिये मस्तिष्क में एक आकृति अवश्य ही बनानी पड़ती है। यदि कोई मस्तिष्क इस प्रकार के मानसिक रोग से ग्रस्त हो कि मन में आकृतियों का चिन्तन न कर सके तो निश्चय ही वह किसी प्रकार का विचार भी न कर सकेगा। जो कीड़े मकोड़े आकृतियों की कल्पना नहीं कर पाते उनके मन में किसी प्रकार के भाव भी उत्पन्न नहीं होते। ईश्वर एवं उसकी शक्तियों के सम्बन्ध में विचार करने के लिये मनःलोक में स्वतः किसी न किसी प्रकार की आकृति उत्पन्न होती है। इन अदृश्य कारणों से उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म आकृतियों का दिव्य दृष्टि से अवलोकन करने वाले योगी जनों ने उन ईश्वरीय शक्तियों की-देवी देवताओं की-आकृतियाँ निर्मित की हैं।

चीन और जापान देश की भाषा लिपि में जो अक्षर हैं वे पेड़, पशु, पक्षी आदि की आकृति के आधार पर बनाये गये हैं। उन भाषाओं के निर्माताओं का आधार यह था कि जिस वस्तु को पुकारने के लिये जो शब्द प्रयोग होता था, उस शब्द को उस वस्तु की आकृति का बना दिया। इस प्रणाली में धीरे-धीरे विकास करके एक व्यवस्थित लिपि बना ली गई। देवनागरी लिपि का अक्षर विज्ञान शब्द की सूक्ष्म आकृतियों पर निर्भर है। किसी शब्द का उच्चारण होते ही आकाश में एक आकृति बनती है, उस आकृति को दिव्य दृष्टि से देखकर योगी जनों ने देवनागरी लिपि का निर्माण किया है। शरीर के मर्मस्थलों में जो सूक्ष्म ग्रन्थियाँ है उनके भीतरी रूप को देखकर षट्चक्रों का सिद्धान्त निर्धारित किया गया है। जो आधार चीनी भाषा की लिपि का है, जो आधार देवनागरी लिपि के अक्षरों का है, जो आधार षट्चक्रों की आकृति का है, उस आधार पर ही देवताओं की आकृतियाँ प्रस्तुत की गई हैं। जिन ईश्वरीय शक्तियों के स्पर्श से मनुष्य के अन्तः करण में जैसे संवेदन उत्पन्न होते हैं, सूक्ष्म शरीर की जैसी मुद्रा बनती है, उसी के आधार पर देवताओं की आकृतियाँ बना दी गई हैं।

संहार पतन एवं नाश होते देख कर मनुष्य के मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न होता है इसलिये शंकरजी का रूप वैरागी जैसा है। किसी चीज का उत्पादन होने पर वयोवृद्धों के समान हर मनुष्य अपना उत्तरदायित्व समझने लगता है, इसलिये ब्रह्माजी वृद्ध के रूप में हैं। चार वेद या चार दिशाएं ब्रह्मा जी के चार मुख हैं। पूर्णता प्रौढ़ता की अवस्था में मनुष्य रूपवान, सशक्त, सपत्नीक एवं विलास प्रिय होता है, सहस्रों सर्प सी विपरीत परिस्थितियाँ भी उस प्रौढ़ के अनुकूल बन जाती हैं। शेष शय्या शायी विष्णु के चित्र में हम इसी भाव की झाँकी देखते हैं। लक्ष्मी बड़ी सुन्दर और कमनीय लगती हैं उनका रूप वैसा ही है। ज्ञान में बुद्धि में सौम्यता एवं पवित्रता है, सरस्वती की मूर्ति को हम वैसी ही देखते हैं। क्रोध आने पर हमारी अन्तरात्मा विकराल रूप धारण करती है, उस विकरालता की आकृति ही दुर्गा है। विषय वासनाओं की मधुर मधुर अग्नि सुलगाने वाला देवता पुष्प वाणधारी कामदेव है। ज्ञान का देवता गणेश हाथी के समान गंभीर है, उसका पेट ओछा नहीं जिसमें कोई बात ठहरे नहीं, उसके बड़े पेट में अनेकों बातें पड़ी रहती हैं और बिना उचित अवसर आये प्रकट नहीं होती। “जिसके पास अकल होगी वह लड्डू खायेगा” इस कहावत को हम गणेश जी के साथ चरितार्थ होता देखते हैं। उनकी नाक लम्बी है अर्थात् प्रतिष्ठा ऊंची है। ईश्वर की ज्ञान शक्ति का महत्व दिव्य दर्शी कवि ने गणेश के रूप में निर्मित कर दिया है। इसी प्रकार अनेकों देवों की आकृतियाँ विभिन्न कारणों से निर्मित की गई हैं।

तेतीस कोटि के देवता माने जायं तो अनेकों क्षेत्र में काम करने वाली शक्तियाँ तेतीस हो सकती हैं। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, धार्मिक, आर्थिक, पारिवारिक, वैज्ञानिक भौगोलिक आदि क्षेत्रों की श्रेणियों की गणना की जाय तो उनकी संख्या तेतीस से कम न होगी। उन कोटियों में परमात्मा की विविध शक्तियाँ काम करती हैं वे देव ही तो हैं। दूसरी बात यह है कि जिस समय देवतावाद का सिद्धान्त प्रयुक्त हुआ उस समय भारतवर्ष की जन संख्या 33 कोटि-तेतीस करोड़ थी। इस पुण्य भारत भूमि पर निवास करने वाले सभी लोगों के आचरण और विचार देवोपम थे। संसार भर में वे भू-सुर (पृथ्वी के देवता) कहकर पुकारे जाते थे। तीसरी बात यह है कि हर मनुष्य के अन्तःकरण में रहने वाला देवता अपने ढंग का आप ही होता है। जैसे किन्हीं दो व्यक्तियों की शक्ल सूरत आपस में पूर्ण रूप से नहीं मिलती वैसे ही सब मनुष्यों के अन्तःकरण भी एक से नहीं होते उनमें कुछ न कुछ अन्तर रहता ही है। इस भेद के कारण हर मनुष्य का विचार, विश्वास, श्रद्धा, निष्ठा के द्वारा बना हुआ अन्तःकरण रूपी देवता पृथक्-2 है। इस प्रकार तेतीस कोटि मनुष्यों के देवता भी तेतीस कोटि ही होते हैं।

देवताओं की आकृतियाँ चित्रों के रूप में और मूर्तियों के रूप में हम देखते हैं। कागज पर अंकित किये गये चित्र अस्थायी होते हैं। पर पाषाण एवं धातुओं की मूर्तियाँ चिरस्थायी होती हैं। साधना विज्ञान के आचार्यों का अभिमत है कि ईश्वर की जिस शक्ति को अपने में अभिप्रेत करना हो उसका विचार, चिन्तन, ध्यान और धारण करना चाहिये। विचार शक्ति का चुम्बकत्व ही मनुष्य के पास एक ऐसा अस्त्र है जो अदृश्य लोक की सूक्ष्म शक्तियों को खींच कर लाता है। धनवान बनने के लिये धन का चिन्तन और विद्वान बनने के लिये विद्या का चिंतन आवश्यक है। संसार का जो भी मनुष्य जिस विषय में आगे बढ़ा है, पारंगत हुआ है, उसमें उसने एकाग्रता और आस्था उत्पन्न की है। इसका एक आध्यात्मिक उपाय यह है कि ईश्वर की उस शक्ति का चिन्तन किया जाय। चिन्तन के लिये आकृति की आवश्यकता है उस आकृति की मूर्ति या चित्र के आधार पर हमारी कल्पना आसानी से ग्रहण कर सकती है। इस साधन की सुविधा के लिये मूर्तियों का आविर्भाव हुआ है।

धनवान बनने के लिये सबसे पहले धन के प्रति प्रगाढ़ प्रेमभाव होना चाहिये। बिना इसके धन कमाने की योजना अधूरी और असफल रहेगी। क्योंकि पूरी दिलचस्पी और रुचि के बिना कोई कार्य पूरी सफलता तक नहीं पहुँच सकता। धन के प्रति प्रगाढ़ प्रेम, विश्वास, आशा पाने के लिये आध्यात्मिक शास्त्र के अनुसार मार्ग यह है कि ईश्वर की धन शक्ति को-लक्ष्मी जी को-अपने मानस लोक में प्रमुख स्थान दिया जाय। चूँकि ईश्वर की धन शक्ति का रूप दिव्यदर्शियों ने लक्ष्मी जी जैसा निर्धारित किया है अतएव लक्ष्मी जी की आकृति गुण कर्म स्वभाव युक्त उनकी छाया मन में धारण की जाती है। इस ध्यान साधना में मूर्ति बड़ी सहायक होती है। लक्ष्मी जी की मूर्ति की उपासना करने से मानस लोक में धन के भाव उत्पन्न होते हैं और वे भाव ही अभीष्ट सफलता तक ले पहुँचते हैं। इस प्रकार लक्ष्मी जी की उपासना से श्री वृद्धि होने में सहायता मिलती है। यही बात गणेश, शिव, विष्णु, हनुमान, दुर्गा आदि देवताओं के संबन्ध में है।

इष्ट देव चुनने का उद्देश्य भी यही है जीवन लक्ष नियुक्त करने को ही आध्यात्मिक भाषा में इष्ट देव चुनना कहा जाता है। अखाड़ों में, व्यायामशालाओं में, हनुमान जी की मूर्तियां दिखती हैं। व्यापारी लोग लक्ष्मी जी की उपासना करते हैं। साधु संन्यासी शिवजी का इष्ट रखते हैं। गृहस्थ लोग, विष्णु (राम, कृष्ण आदि अवतार) को भजते हैं। शक्ति के इच्छुक दुर्गा को पूजते हैं। स्थूल दृष्टि से देखने में यह देवता अनेकों मालूम पड़ते हैं, उपासकों की साधना में अन्तर दिखाई देता है पर वास्तव में कोई अन्तर है नहीं। मान लीजिये माता के कई बालक हैं एक बालक रोटी खाने के लिये रसोई घर में बैठा है, दूसरा धुले कपड़ों की माँग करता हुआ कपड़ों के बक्स के पास खड़ा है, तीसरा पैसे लेने के लिए माता का बटुआ टटोल रहा है, चौथा गोदी में चढ़ने के लिये मचल रहा है। बालकों की आकाँक्षाएं भिन्न हैं वे माता के उसी गुण पर सारा ध्यान लगाये बैठे हैं जिसकी उन्हें आवश्यकता है। गोदी के लिये मचलने वाले बालक के लिये माता एक मुलायम पालना, या बढ़िया घोड़ा है। पैसे चाहने वाले बालक के लिए वह एक चलती फिरती बैंक है, भोजन के इच्छुक के लिये वह एक हलवाई है, कपड़े चाहने वाले के लिये वह घरेलू दर्जी या धोबी है। चारों बालक अपनी इच्छा के अनुसार माता को पृथक-2 दृष्टि से देखते हैं, उससे पृथक-2 आशा करते हैं फिर भी माता एक ही है। यही बात विभिन्न देव पूजकों के बारे में कही जा सकती है। वस्तुतः इस विश्व में एक ही सत्ता हैं-परमात्मा एक ही है। उसके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं, तो भी मनुष्य अपने विचार एवं साधना की दृष्टि से उसकी शक्तियों को प्रथक-2 देवताओं के रूप में मान लेता है।

श्रीमद् भागवद् गीता के अध्याय 9 श्लोक 23 में इस बात को बिलकुल स्पष्ट कर दिया गया है-

येऽष्यन्य देवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्यविधि पूर्वकम्॥

अर्थात्- हे अर्जुन, जो भक्त अन्य देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी अविधि पूर्वक मुझे ही पूजते हैं।

गीता अध्याय 11 श्लोक 29 में अर्जुन कहता है-

वायुर्यमोऽग्निवरुणः शशाँक प्रजापतिस्त्व प्रपितामहश्च। नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्र कृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।

अर्थात्- वायु, यम, अग्नि, वरुण, शशि, प्रजापति, आदि आप ही हैं, आपको बार बार नमस्कार है।

जैसे सब नदियों का जल समुद्र में जाता है, वैसे ही सब देवों को किया हुआ नमस्कार केशव के लिए ही जाता है- ‘सर्व देव नमस्कारं केशवं प्रति गच्छति।’

इन सब बातों पर विचार करने के उपरान्त हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि वस्तुतः निखिल विश्व ब्रह्माण्ड का एक ही देव परमात्मा है। विभिन्न देवता उसी की शक्तियों के विभिन्न नाम हैं। इन देवताओं का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।

देवताओं की मूर्तियाँ परमात्मा की उन शक्तियों का स्मरण दिलाने के लिये हैं। कागज पर लिखे हुए अक्षर स्वतः कोई वस्तु नहीं हैं पर उन अक्षरों को पढ़ने से वस्तुओं का स्वरूप सामने आ जाता है। जैसे ‘हाथी’ यह दो अक्षर जहाँ लिखे हैं उस स्थान पर कोई पशु अवस्थित भले ही न हो पर इन दो अक्षरों को पढ़ते ही उस विशालकाय हाथी का चित्र मस्तिष्क में दौड़ जाता है। भक्ति रस के भजन पढ़ने से मनुष्य का हृदय भक्तिभाव में सराबोर हो जाता है और घासलेटी पुस्तकें पढ़ने से विषय वासना, व्यभिचार आदि के दूषित भाव मन में घुड़दौड़ मचाने लगते हैं। अक्षर एक प्रकार के चित्र हैं, उन चित्रों से मन में कोई आकृतियाँ आती हैं और फिर उन आकृतियों से संबंधित भाव कुभाव मन में उत्पन्न होते हैं, महापुरुषों के चित्रों एवं मूर्तियों को यदि हम आनंदपूर्वक श्रद्धाँजलि चढ़ावें तो स्वभावतः उनके गुणों की प्रभाव छाया मनः पटल पर अंकित होती है। मूर्तियाँ एक प्रकार की पुस्तकें हैं वे अपने संबंधित विषय की भावनाएं दर्शक के मन में उत्पन्न करती हैं। मूर्ति पूजा का यही तात्पर्य है।

मन्दिरों की स्थापना, उनमें भोग, प्रसाद, भेंट, दक्षिणा चढ़ाना, क्यों होता है इसके संबंध में हम अपनी ‘ईश्वर कौन है? कहाँ है? कैसा है?’ पुस्तक में सविस्तार लिख चुके हैं। मन्दिरों का प्रारम्भ एक धर्म संस्था के रूप में हुआ था, मन्दिर के साथ साथ पाठशाला, पुस्तकालय, औषधालय, व्यायामशाला, संगीतशाला, प्रार्थना भवन, उपदेश मंच आदि अनेकों सार्वजनिक प्रवृत्तियाँ जुड़ी रहती थी। उन प्रवृत्तियों का संचालन करने के लिये एक निस्पृह, त्यागी, विद्वान, परोपकारी ब्राह्मण रहता था जिसे गुरु पुरोहित, आचार्य या पुजारी कहते थे। उस पुरोहित के जीवन निर्वाह के लिये एवं मन्दिर से सम्बन्धित प्रवृत्तियों के आयोजन के लिये जनता स्वेच्छापूर्वक धर्मभाव से दान करती थी, यह दान मन्दिरों में देव मूर्तियों के सम्मुख भोग, प्रसाद, भेंट, दक्षिणा आदि के रूप में चढ़ाया जाता था। उस धन से मन्दिर रूपी सार्वजनिक संस्था चलती थी और जनता को उस भेंट पूजा की अपेक्षा अनेक गुना लाभ पहुँचाती थी।

आज समय के प्रभाव, अज्ञान एवं अन्धश्रद्धा के कारण देववाद में भारी दोष आ गये हैं। देवता के सामने निरीह पशुओं का बलिदान, मन्दिर के चढ़ावे का लोक सेवा में व्यय न होना, मन्दिर से संबंधित सार्वजनिक प्रवृत्तियों का न होना, देवताओं को घूसखोर, जालिम एवं पक्षपाती हाकिमों की तरह समझना, देवताओं की कृपा से बिना प्रयत्न के सम्पदाएं मिलने की आशा करना, उनमें अलौकिक चमत्कारों का मानना, मन्दिरों का व्यक्तिगत तुच्छ स्वार्थों के लिये उपयोग होना आदि अनेकों दोष आज ‘देवतावाद, के साथ जुड़ गये हैं, इनका संशोधन और निराकरण होना आवश्यक है। इन दोषों के कारण जनता को हानि होती है, और इस पवित्र एवं महत्वपूर्ण तथ्य को कलंकित होना पड़ता है।

हिन्दू धर्म देवताओं की पूजा करना स्वीकार करता है। ‘देव’ का अर्थ है- देने वाला। लेव का अर्थ है- लेने वाला। देव वे हैं जो परोपकारी, लोक सेवी, सदाचारी, सत्यनिष्ठ, विद्वान एवं सद्गुणों से परिपूर्ण हैं। ऐसे देवताओं की पूजा, प्रतिष्ठा, प्रशंसा, अर्थ व्यवस्था करना सर्व साधारण का पुनीत कर्तव्य है। उनका आदर्श हमें तथा हमारी भावी पीढ़ी को प्रकाश देता रहे इसलिये देवताओं के स्मारक स्थापित करना उचित एवं आवश्यक है।

परमात्मा की महा महिमा को हमारी मनोभूमि में भरने वाली उसकी महाशक्तियाँ यदि चित्र रूप में, मूर्ति रूप में, अक्षर रूप में, विचार या विश्वास रूप में हमारे सामने उपस्थित रहें तो उससे लाभ की ही आशा है। हमारा देवतावाद मिथ्या भ्रमों, अन्ध विश्वासों एवं निर्मूल कल्पनाओं के ऊपर अवलम्बित नहीं है वरन् मनोविज्ञान, अध्यात्म विज्ञान एवं सूक्ष्म शक्तियों के विज्ञान द्वारा अनुमोदित है। हमें देवत्व पर विश्वास करना चाहिये और उसकी उपासना भी।

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