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Magazine - Year 1947 - Version 2

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जातीय एकता की शक्ति

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संसार की विभिन्न जातियों के उत्थान पतन के इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि किसी समाज के ऊंचा उठने और नीचा गिरने का कारण उसका आन्तरिक संगठन, ऐक्य, प्रेम और सहयोग है। जो जातियाँ जब भी विकसित हुई हैं केवल एकता पर हुई हैं। धन, बल, विद्या, बुद्धि, साधन आदि से भी एकता की शक्ति अधिक है। साधन सम्पन्न जातियाँ एकता के अभाव में नष्ट हुई हैं और स्वल्प साधन वालों ने अपने संगठन के बल पर बड़े-बड़े पराक्रम किये हैं।

किसी समय हिन्दू जाति बहुत ऊंची स्थिति में थी। जगद्गुरु और चक्रवर्ती शासक का पद उसे प्राप्त था। तब उसके आदर्श विश्व बन्धुत्व के, आत्मवत् सर्व भूतेषु थे। वसुधैव कुटुम्बकम् के सिद्धान्त को अपनाकर आपस में सभी एक दूसरे पर आत्मभाव रखते थे। एक की हानि सबकी हानि और एक लाभ सबका लाभ समझा जाता था। जाति, संस्कृति, धर्म, देश की रक्षा एवं उन्नति लिए सभी सामूहिक रूप से सदा प्रयत्नशील रहते थे। यह गुण ही हमारे उत्कर्ष का सबसे बड़ा कारण था।

जब से एकता में कमी आई तभी से अनेक प्रकार की निर्बलताएं प्रवेश करने लगीं। व्यक्तिगत लाभ के आने पर जब सामूहिक लाभ को छोटा गिना जाने लगा, स्वार्थ के आगे जब परमार्थ की अवहेलना हुई, खुदगर्जी को जब आदर्श और सिद्धान्तों से ऊपर समझा गया तो निश्चित था कि हमारा जातीय पतन होता।

लगभग एक हजार वर्ष पूर्व मुसलमानों ने हिन्दुस्तान पर आक्रमण किये, आक्रमणकारियों की संख्या मुट्ठी भर थी। वे स्वल्प प्रयास में न केवल यहाँ की धन सम्पदा लूटते रहे, वरन् अपना शासन भी स्थापित करते गये। अपने शासन में उन्होंने अपनी धर्मान्धता के मद में जिस प्रकार कत्लेआम कराये उनकी साक्षी इतिहास के पन्ने-पन्ने पर मिलती है। यह सब होता रहा। थोड़े बहुत दिनों तक नहीं एक हजार वर्ष के लम्बे काल तक यह सब होता रहा। शासक बदलते रहे पर नीति में अधिक हेर-फेर नहीं हुआ।

इतिहास हमें बताता है कि इस एक हजार वर्ष में कभी भी भारत इतना निर्बल नहीं हुआ था कि उसे थोड़े से लोग इस आसानी से इतने दीर्घकाल तक, इतनी बुरी तरह पददलित करते रहते। जब जहाँ आक्रमण हुए तब वहाँ के लोगों को ही वह सब भुगतान पड़ा। देश में अनेक राजा भरे पड़े थे, प्रजा के पास भी पर्याप्त अस्त्र-शस्त्र थे, स्वास्थ्य और वीरता की दृष्टि से भी वे किसी से पीछे न थे। पर कमी एक ही थी, अपने मतलब से मतलब की नीति गहराई तक घुस गई थी। एक राजा दूसरे प्रदेश को बचाने के लिए खुद क्यों कष्ट उठावे? एक प्रदेश की प्रजा दूसरे प्रदेश की प्रजा को बचाने क्यों जावे? यह व्यापक स्वार्थ वहाँ भी व्याप्त था जहाँ आक्रमण होते थे। लोग संगठित होकर विरोध करने का प्रयत्न करने की अपेक्षा अपना व्यक्तिगत लाभ करने के लिए भागने की या दुश्मन से मिल कर लाभ उठाने की बात सोचते थे। ऐसी विशृंखलित जाति को लूट लेना, पददलित कर देना किसी के लिए क्या मुश्किल हो सकता है।

उस घोर अंधकार के युग में शिवाजी, राणा प्रताप, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा वैरागी, सरीखे नक्षत्र गिने-चुने ही दीखते हैं। ऐसे तो कइयों उदाहरण हैं कि अपने ऊपर आ पड़ी तो बहादुरी से मर मिटे पर ऐसे उदाहरण कम मिलेंगे जो दूसरों को बचाने के लिए उठ खड़े हुए हों। इसके विपरीत ऐसे लोगों का बाहुल्य है जिन्होंने व्यक्तिगत लाभ के लिए आक्रमणकारियों को, विदेशों को, भरपूर सहायता दी। मुसलमान और अंग्रेजों के राज्य संचालक हिन्दू ही थे। उन्हीं के सहायता से उनकी शासन व्यवस्था चल सकी।

बड़े-बड़े राजाओं ने उनका साथ दिया, अधीनता स्वीकार की, व्यक्तिगत लाभ उनके लिए देश, धर्म, सम्मान, स्वाधीनता सभी से बढ़−चढ़ कर था। बेचारे करते भी क्या ? एकता के अभाव में भौतिक बल कायम भी तो नहीं रह सकता।

हमारी पराधीनता का इतिहास हमारी अशोक या आक्रमणकारियों की शक्ति का इतिहास नहीं हैं। वरन् अनैक्य की, विसंघटन की एक करुण कहानी है। जब इस विसंगठन में कमी आई, एकता की शक्ति का थोड़ा सा संचार हुआ तो इतना प्रचंड राष्ट्र देश जग पड़ा कि जिसके भय से आज विदेशियों को दुम दबा कर भागना पड़ रहा है। राष्ट्रीय महासभा काँग्रेस को जनता की शक्ति यों का संगठन करते हुए अभी तीस वर्ष भी नहीं हुए कि राष्ट्र की प्रमुख आत्मा जाग पड़ी इस भगवती दुर्गा की हुँकार मात्र से दिशाएं थर-थर काँपने लगी। पूरे एक लाख भी नहीं केवल कुछ हजार सत्याग्रहियों ने नंगे हाथों, जेल जाने मात्र का कार्यक्रम अपना कर उन शासकों को भगा दिया जो प्रलयंकारी परमाणु शक्ति से सुसज्जित थे, जिनके साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता। वह सत्याग्रहियों की नहीं, काँग्रेस की नहीं एकता की शक्ति है। यह जितनी-जितनी बढ़ती जावेगी उतना ही हम उत्कर्ष की ओर बढ़ेंगे।

जहाँगीर की बेटी का इलाज डॉक्टर सर टामस रो ने किया। लड़की-अच्छी हो गई जहाँगीर ने डॉक्टर से कहा- मुँह माँगा ईनाम माँग लो। डॉक्टर चाहता तो अपने लिए कोई बड़ी सी जागीर, ओहदा या लाख करोड़ की संपत्ति माँग सकता था और अपनी पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए शाही वैभव प्राप्त कर सकता था। पर उसने ऐसा नहीं किया। उसने जहाँगीर से माँगा कि मेरे देश से आने वाले माल पर आपके राज्य में चुँगी न ली जाय उसे मुँह माँगी मुराद मिल गई। सर टामस रो को व्यक्तिगत दृष्टि से कुछ नहीं मिला पर उसका देश, इंग्लैंड माला माल हो गया। जिस देश के नागरिकों में सर टामस रो जैसी देश भक्ति हो उसी देश को उसी जाति को उन्नति का गौरव प्राप्त होता हैं। अंग्रेजों के इसी गुण ने थोड़े से दिनों में ही उन्हें विशाल साम्राज्य का स्वामी बना दिया और इसी गुण को खो देने के कारण भारत को दीनता, दासता एवं बर्बरता की यातनाएं सहनी पड़ी।

इस्लाम के जन्म को केवल मात्र तेरह सौ वर्ष हुए हैं। जातियों के जीवन की दृष्टि से यह समय अत्यंत ही स्वल्प है। इतने थोड़े समय में मुसलमानों की संख्या पचास करोड़ के लगभग हो गई। संख्या की दृष्टि से दुनिया में सबसे अधिक ईसाई हैं, उससे कम मुसलमान हैं। इतने थोड़े समय में दुनिया के कोने-कोने में मुसलमान इतनी प्रचंड मात्रा में हो गये, क्या आपने कभी विचार किया है कि इसका कारण क्या है? प्रचार की, धन की, शासन की शक्ति अथवा दार्शनिक उत्कृष्टता के कारण वे इतने नहीं बढ़े हैं, इस वृद्धि का असली रहस्य है उनकी जातीय एकता। अपने सजातीयों के लिए वे सब कुछ कर सकते हैं। भारतवर्ष के मुसलिम राष्ट्रीय नेताओं तक के सामने जब जाति, भक्ति और देश भक्ति में से एक को चुनने का प्रश्न आया है तो समय-समय पर अनेकों ने स्वजातियों का ही पक्ष लेकर राष्ट्रीयता को तिलाँजलि दी है यह सब राजनीति के विद्यार्थियों से छिपा नहीं हैं। कसाईगीरी, वेश्यावृत्ति जैसे घृणित पेशे करने वाले स्त्री पुरुष तक अपनी जातीय वृद्धि के लिए, सबलोक की वृद्धि के लिए-अपनी कमाई में से एक भाग देते हैं और अन्य उचित-अनुचित तरीकों से उसके लिए प्रयत्न करते हैं। सजातीयों का अनुचित पक्ष लेने में, उन्हें अनुचित एवं अनावश्यक सहायता देने में झिझक नहीं होती। मुस्लिम जाति की यही विशेषता उनकी इस वृद्धि का कारण हुई है। इस एकता के बल पर ही उन्होंने अपने दुराग्रह तक को पूरा कर लिया। धर्म के आधार पर देश का विभाजन जैसी अप्रजाताँत्रिक, अवैज्ञानिक, अनोखी माँग को मनवा कर छोड़ा ।

हिन्दू जाति कई दृष्टियों से अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट है। उसका धार्मिक आदर्श इतना ऊंचा है, जिसकी तुलना में अन्य धर्मों का साहित्य नहीं ठहर सकता। उसकी प्रथाएं परम्पराएं, अनुपम हैं। पतिव्रत का ऐसा आदर्श अन्यत्र मिलना कठिन है। शारीरिक बल में, विद्या में, बुद्धि में, वाणिज्य में, कला में, चातुर्य में सब में पर्याप्त क्षमता शील हैं, पर सबसे बड़ा दुर्गुण एक ही है। वह जातीय अनैक्य, फूट, विसंगठन। इस एक ही कमी ने सारी योग्यताओं को चौपट कर रखा है। यह योग्यताएं सामूहिक कार्यों में लगे, सब लोग एक दूसरे से हमदर्दी रखें, भाई-भाई के दुख सुख को अपना समझे, एक दूसरे को ऊंचा उठाने, सहायता देने और मुसीबत से बचाने के लिए तत्पर रहे तो कोई कारण नहीं कि हम प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त न कर सकें।

बहुत सो लिये, आइए अब उठें, और एक दूसरे की सहायता करते हुए अपने जातीय संगठन को मजबूत बनावें। अब हमारा सौभाग्य सूर्य पुनः उदय हो रहा है अपनी भूलों को हम समझ गये हैं, उन्हें पुनः न दुहरावेंगे। अनैक्य ने हमें बर्बाद किया था, एकता के बल पर हम ऊंचे उठने लगे हैं। आइए इस संघ शक्ति को प्रचण्ड रूप से जागृत करें और अपने महान गौरव की प्राप्ति के लिए द्रुतगति से आगे बढ़ चलें।

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