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Magazine - Year 1947 - Version 2

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संस्कृति एवं दर्शन का महत्व

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लोक जीवन के दो प्रमुख स्तंभ हैं। (1) संस्कृति (2) राजनीति। इन दो के आधार पर मानव समूहों की, देशों और जातियों की जीवन दिशा का निर्माण होता है जल और अग्नि की तरह इनका प्रवाह प्रचंड है। इनकी धाराएं जिधर चल पड़ती हैं, उधर बड़े-बड़े चमत्कार उपस्थित कर देती हैं। लोक जीवन में इन दोनों की अतुलित शक्ति है।

राज सत्ता के द्वारा प्रजा की सुरक्षा, साधन एवं समृद्धि का निर्माण होता है। बाहर के आक्रमणकारियों को परास्त करना, आन्तरिक शत्रुओं, चोर, डाकुओं, अपराधियों को कुचलना, यातायात, उत्पादन, व्यापार आदि के साधन उपस्थित करना, स्वास्थ्य और शिक्षा को बढ़ाना, न्याय दिलाना, देश की समृद्धि बढ़ाना, व्यवस्था स्थापित रखना, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में संधि, विग्रह एवं अपने हितों की रक्षा करना यह सब कार्य राजनीति से संबंध रखते हैं। जिस देश की राजनैतिक शक्ति जितनी ही उत्तम होगी इन सब दिशाओं में उस देश की प्रजा उसी अनुमान से साधन सम्पन्न बनेगी। राजनैतिक स्थिति में परिवर्तन होते ही उपरोक्त क्षेत्रों में परिवर्तन हो जाता है। इसलिए अपने देश की राजनैतिक स्थिति को ठीक रखने, उत्तम बनाने के लिए एवं सुधारने के लिए समय-समय पर चुनाव, आन्दोलन, प्रचार एवं संगठन होते हैं। इन कार्यों में अनेकों व्यक्ति एवं संस्थाएं अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार दिलचस्पी लेते हैं, काम करते हैं।

संस्कृति के द्वारा लोक दर्शन का, लोगों के सोचने के ढंग का निर्माण होता है। पशु को मनुष्य बनाने का, और मनुष्य को महात्मा-परमात्मा, बना देने का एक मात्र हेतु उसकी सोचने की परिपाटी है। इसी को दर्शन अथवा संस्कृति कहते हैं। जिस समुदाय का सोचने का ढंग जैसा है, जो आदर्श है जो विश्वास है, जो उत्कृष्ट अभिलाषा, महत्वाकाँक्षा है एवं जो संतोष का केन्द्र बिन्दु हैं वही उसका दर्शन है इसी को उसकी संस्कृति कह सकते हैं।

वेश, भूषा, भाषा, भाव, खान-पान, रीति-रिवाज, पाप, पुण्य, परलोक, ईश्वर, मजहब, श्रद्धा, पूजा, परम्परा, इतिहास, इच्छा, उत्सव, व्यसन, मनोरंजन, रुचि, अरुचि आदि बातें दर्शन एवं संस्कृति से संबंधित हैं। यदि सोचने का ढंग बदल जाय तो मनुष्य की उपरोक्त बातों में भी परिवर्तन हो जाता है। हमारे देश में एक ही नस्ल के, एक ही आकार-प्रकार के, एक से ही स्वार्थों के करोड़ों लोग रहते हैं, पर उनके सोचने का ढंग भिन्न होने से उनमें बाह्य और आन्तरिक काफी असमानता पाई जाती है। हिन्दू के सोचने की जो प्रणाली है उसमें और मुसलमान के सोचने की प्रणाली में जितना अन्तर एवं विरोध है उतना ही अन्तर अथवा विरोध उनके बाहरी सामाजिक-जीवन में दृष्टिगोचर होता है।

न केवल साम्प्रदायिक वरन् समान योग्यता के लोगों में भी जो असमानता दिखाई पड़ती है उसका कारण उनके सोचने का ढंग ही है मनुष्य में जो दैवी विशेषता है वह उसकी विचार शक्ति ही है इस विचार शक्ति के आधार पर ही वह, नीचता एवं उच्चता प्राप्त करता है, धनी-दरिद्र लोभी-उदार, पापी-पुण्यात्मा, कायर-वीर, शिक्षित-अशिक्षित, गुणवान्-दुर्गुणी बनता है। नये-नये मार्ग खो जाता है, गुत्थियों को सुलझाता है तथा विचार क्षेत्र को और भी अधिक सुविस्तृत करता है। शरीर की दृष्टि से मनुष्य-मनुष्य के बीच में बहुत थोड़ा अन्तर होता है पर उनमें जो असाधारण अन्तर देखा जाता है उसका कारण उनकी विचार शक्ति का अन्तर ही है। यह विचार शक्ति चाहे जिधर यों ही ऊबड़-खाबड़ नहीं बहती, वरन् किसी निर्धारित पथ से चलती है। जैसे जल की धारा नदी नालों में होकर समुद्र तक पहुँचती है वैसे ही विचार शक्ति भी किसी प्रणाली में होकर आगे चलती है। इन प्रणालियों को बाद सम्प्रदाय, आदर्श, सिद्धान्त, दर्शन आदि नामों से पुकारते हैं। दर्शन की उच्चता, स्पष्टता, शुद्धता, दृढ़ता एवं विस्तार के अनुसार मानव समुदायों की मनोभूमि का निर्माण होता है और मनोभूमि के आधार पर उनकी आकाँक्षाएं तथा क्रियाएं बनती हैं।

राजनीति स्थूल तथ्य है उसके द्वारा, समृद्धि और सुरक्षा के भौतिक साधनों का निर्माण होता है। उसका हेर-फेर एवं परिणाम तुरन्त दिखाई पड़ता है, उसकी प्रक्रिया घटना प्रधान होती इसलिए हर कोई उसे देख सकता है, समझ सकता है, आकर्षित हो सकता है और पक्ष-विपक्ष में कार्य कर सकता है। पर संस्कृति की बात इससे भिन्न है। उसके द्वारा जन समुदाय की अन्तरंग भूमि का निर्माण होता है, उसका एक बहुत ही छोटा अंश प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है दर्शन सूक्ष्म है वह मनुष्य के अत्यन्त गुह्य स्थान में रहता है, परिस्थितियों के कारण वह अनेक अवसरों पर दबा हुआ भी पड़ा रहता है ऐसी दशा में उसका देख सकना आसान नहीं है इस सूक्ष्म शक्ति के द्वारा जो महान परिणाम उपस्थित होते हैं उन्हें ठीक तरह से समझ सकना भी सबके लिए सुलभ नहीं। इसलिए लोग जैसा राजनीति का महत्व समझते हैं वैसा संस्कृति का नहीं जानते। यही कारण है कि राजनीति में जितना उत्साह दिखाया जाता है उतना संस्कृति में नहीं दिखाया जाता। आज राजनीति सर्वप्रधान है पर संस्कृति एक कोने में उपेक्षित पड़ी हुई हैं।

लोग समझते हैं कि हम राजशक्ति से अपने देश को चाहे जैसा बना सकते हैं, कानून हाथ में आते ही मनमाने सुधार करा लिये जायेंगे, जिस रास्ते पर चाहेंगे उस पर चलने के लिए राजदंड द्वारा लोगों को विवश कर लेंगे। यह अति उत्साह है। ऐसा समझने वाले लोग यह नहीं जानते कि राजनीति की शक्ति कितनी सीमित है। वह स्थूल मनुष्य के बहुत ही स्थूल अंश को प्रभावित करती है। मानव के सूक्ष्म अन्तःकरण तक स्थूल राजशक्ति की सत्ता का प्रवेश होना कठिन है। राज कानूनों में प्रायः उसी दुष्टताओं, पापों, अनैतिकताओं को वर्जित एवं दंडनीय घोषित किया गया है, पर सर्वविदित है कि उन कानूनों का कितना अधिक उल्लंघन किया जाता है। अपराधी लोग कानूनी चंगुल से बच निकलने के लिए अनेकों तरकीबें निकाल लेते हैं और राजाज्ञा के उद्देश्य को विफल करते रहते हैं व्यभिचार, जुआ, चोरी, ठगी, झूठ अहिंसा, अन्याय, अपमान यह सभी राज्य नियमों के विरुद्ध है पर जब कि लोगों के अन्तःकरण में उन नियमों के प्रति आन्तरिक, अटूट श्रद्धा नहीं है तो उल्लंघन इतना अधिक होता है कि हजारों अपराधियों में से कभी कोई एकाध पकड़ा जाता है और पकड़े जाने वालों में से भी बहुत कम को सजा मिलती है और सजा पाने वालों में से कोई विरला ही भविष्य के लिए वैसा न करने की सुदृढ़ प्रतिज्ञा करता है। ऐसी दशा में श्रद्धा के अभाव में राजकीय कानून बुराइयों को रोकने में सफल नहीं हो पाते, जिसके लिए उनका निर्माण हुआ था कई बार प्रजा की प्रबल इच्छा के कारण उपयोगी कानूनों को भी शिथिल या बन्द करना पड़ता है। या यों कहिये कि जन भावना के सामने उन कानूनों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। योरोप, अमेरिका में पतिव्रत, पत्नीव्रत, व्यभिचार, गर्भपात, मद्यपान आदि के कानूनों की इतनी अवहेलना हुई है कि उनका होना न होना एक सा बन गया है। भारत में रिश्वत, चोर बाजार एवं कन्ट्रोल संबंधी राजाज्ञाओं की जो दुर्दशा हो रही है उससे यह सहज ही जाना जा सकता है कि केवल मात्र राजनीतिक शक्ति से जनता को किसी मार्ग पर पूरी तरह नहीं मोड़ा जा सकता । धर्म, सम्प्रदाय तथा नागरिक अधिकारों में कितनी ही सीमाएं तो ऐसी हैं जिसमें राजनीति का हस्तक्षेप ही वर्जित है। ऐसी दशा में यह सोचना कि राजनीतिक शक्ति के द्वारा उन समुदाय को जैसा चाहे वैसा बना लिया जायगा अत्युत्साह है।

चीन को राजनैतिक स्वाधीनता प्राप्त है पर वह अब तक अपने को अफीम के पंजे से न छुड़ा सका। अमेरिका का कानून हब्शियों पर होने वाले अमेरिकनों के अत्याचारों को रोकने में असमर्थ है। इसके विपरीत जर्मन और जापान को पराजय के पश्चात् मित्र राष्ट्रीय प्रतिशोध का पूरी तरह शिकार होना पड़ा फिर भी वहाँ की प्रजा अपनी स्वतंत्राकाँक्षा के कारण इतने बंद दिनों में अपनी खोई हुई स्वतंत्रता का एक बड़ा अंश प्राप्त कर चुकी है और शेष को भी शीघ्र ही प्राप्त करके रहेगी। राजनीति में भय और प्रलोभन की शक्ति है, इस शक्ति से लोगों को किसी दिशा में चलने के लिए एक हद तक दबाया जा सकता है। मुसलमान बादशाहों की पूरी कोशिश यह रही कि उनकी प्रजा मुसलमान बन जाय, फिर भी सर्वविदित है कि इतने कठोर प्रयत्नों के बावजूद उन्हें सफलता बहुत कम अंशों में मिली। लोगों के हृदय में जमे हुए विश्वासों को बादशाहों के प्रयत्न बहुत छोटी सीमा तक ही विचलित कर सके।

संस्कृति की, दर्शन की, शक्ति अपार है। उससे मनुष्य का हृदय, अन्तःकरण, चित्त और मन बुद्धि का कोना-कोना सराबोर होता है। यह रंग इतना पक्का होता है कि भय, प्रलोभन, तर्क तथ्य आदि पैने औजारों से भी उसको हटाना कठिन होता है। साम्प्रदायिक कट्टरता को तथ्यों और तर्कों से अनुपयोगी सिद्ध किया जा चुका है किन्तु धुरन्धर विद्वानों तक में वह भाव भरे हुए हैं। यह लोग अपने मस्तिष्क की समस्त शक्तियों को एकत्रित करके उन सूर्य से स्पष्ट तथ्य और तर्कों की प्रतिद्वंदिता करते हैं। मन का भीतरी भाग जिस भली, बुरी प्रणाली के अनुसार संचालित होता है उस दिशा में मनुष्य का शरीर और मस्तिष्क क्रियाशील होता है। चोर, डाकू, व्यभिचारी, व्यसनी, नशेबाज, जुआरी आदि दुर्गुण ग्रस्त व्यक्ति बराबर अपमान, निन्दा, घृणा अविश्वास तथा दंड सहते रहते हैं फिर भी उनके मनमें जो बस गई है उसे छोड़ते नहीं। दूसरी ओर साधु, महात्मा, देशभक्त, लोक सेवक परमार्थी, सेवाभावी, धर्मव्रती लोग नाना प्रकार के अभावों और कष्टों को सहते हुए भी अपनी प्रवृत्तियों को जारी रखते हैं। इससे प्रकट है कि मनुष्य बाहरी बातों से जितना प्रभावित होता है उससे कहीं अधिक दृढ़ता उसके आन्तरिक भावों के आधार पर होती है। कमजोर प्रकृति के लोग विपरीत परिस्थिति आने पर अपने मूलभूत विचारों को दबा लेते हैं, फिर भी उनकी आन्तरिक इच्छा वही रहती है और अवसर आने पर शस्त्र से दबी हुई चिनगारी की तरह पुनः प्रस्फुटित हो जाती है।

मनुष्य सचमुच मिट्टी का पुतला है। उसके अन्तरंग क्षेत्र में जैसे विचार और विश्वास घुस बैठते हैं वह उसी ढांचे में ढल जाता है। इन विचार और विश्वासों में परिवर्तन होने से वह बदल जाता है। नारद जी के प्रयास से डाकू बाल्मीकि, महात्मा, ऋषि, महाकवि बाल्मीकि बन गये। जेल खाने की यातनाएं डाकुओं को संत बनाने में समर्थ नहीं हो रही है पर विचार परिवर्तन, हृदय परिवर्तन के द्वारा यह सब तुरन्त हो सकता है। व्यक्तियों का, समुदायों का, जातियों का, राष्ट्रों का चरित्र शौर्य, साहस, क्रिया-कलाप, गौरव, पराक्रम, संगठन, धन, यश एवं प्रभाव उनके दर्शन पर निर्भर रहता है, राजनीति पर नहीं। राजनीति दर्शन पर अवलम्बित रहती है, प्रजा के विचारों के प्रतिरोध में चलने वाली राजनीति को प्रायः असफल ही रहना पड़ता है इसलिए अब इस युग में राजनैतिक नेता भी राजनीति के साथ-साथ दर्शन बदलने का प्रयत्न करते हैं। अब अस्त्र-शस्त्रों की भाँति इसके प्रचार के लिए भी सरकारें बड़ी-बड़ी धन राशियाँ व्यय करती हैं। राजनीति को भी दर्शन की प्रचण्ड शक्ति माननी पड़ती है और उसकी शरण में आना पड़ता है। फिर भी उसका प्रचार विफल रहता है क्योंकि साधारण बुद्धि रखने वाले भी वारांगनैव नृपनीति अनेक रूपा का रहस्य जानते हैं। राजनीतिज्ञों द्वारा किये हुए प्रचार में उन्हें सहज ही अविश्वस्तता दिखाई देने लगती है।

दर्शन वह महान तथ्य है जिसके आगे मनुष्य समर्पण करता है। उससे प्रभावित होता है, प्रेरणा ग्रहण करता है, प्रकाश पाता है और मार्ग बनाता है। चिकनी मिट्टी को साँचे में ढाल कर उससे विभिन्न आकृतियों के खिलौने बनाये जाते हैं इसी प्रकार दर्शनों के साँचे में मनुष्यों के विचार और कार्य ढलते हैं, संस्कृति की टकसाल में मानव अन्तःकरण की कच्ची धातु को ढाल कर उसे एक विशेष सिक्का बना दिया जाता है। यह महान तथ्य है, महान कार्य है इसके ऊपर मानव जाति का वर्तमान और भविष्य निर्भर है। यह महान शक्ति अवसरवादी राजनीति के हाथ में नहीं रहती, वे इसे रख भी नहीं सकते, यह शक्ति तो महान आत्माओं के वीतराग, सन्तों के, हाथ में रहती है।

आज हमारे देश और जाति में जो निर्बलताएं हैं, उन्हें दूर करने के लिए राजनीति प्रयत्नशील है। पर साथ ही दार्शनिक प्रयत्न भी होने चाहिए। अकेली राजनीति से क्षणिक एवं आँशिक सफलता मिल सकती है। प्रजा को जैसा बनाना है उसके अनुरूप उसके अन्तःकरण का निर्माण करना होगा। तभी राजनीति के प्रयत्न सफल होंगे। पुलिस और सेना चोरी, व्यभिचार को, अनैतिकता को नहीं रोक सकती। धर्म परायणता, कर्मफल का निश्चय एवं ईश्वर की सर्व व्यापकता का विश्वास ही उसका अन्त कर सकता है। टैक्स लगा कर अथवा बाध्य करके लोगों का धन और समय लोक-हित के लिए नहीं लिया जा सकता यह तो दान, त्याग, सेवा, परमार्थ, परोपकार और स्वर्ग मुक्ति की श्रद्धा के आधार पर ही हो सकता है। आर्डिनेन्सों के बल पर नहीं, देशभक्ति और कर्त्तव्य की भावना के आधार पर प्रजा राज्य की इच्छानुवर्ती बनती है। इन तत्वों को विकसित, उन्नत, उत्साहित एवं सुदृढ़ करना- यह कार्य दर्शन की शक्ति से ही हो सकता है।

हमारे देश के कर्मठ कार्यकर्ता, सुयोग्य विचारक, देशभक्त, लोक सेवी, धर्म प्रेमी एक मात्र राजनीति की ही महत्ता अनुभव कर रहे हैं और राजनैतिक अधिकार प्राप्त करने, अपनी माँगें मनवाने, इच्छित कानून बनवाने के लिए ही अत्याधिक आकृष्ट हैं। वे यह भूल जाते हैं कि राजशक्ति ही एक मात्र शक्ति नहीं है, लोक कल्याण के लिए एक दूसरी शक्ति भी है जो उससे भी महत्वपूर्ण है वह है-दर्शन इसके द्वारा वह कार्य हो सकता है जो सुदीर्घ काल तक ठहरता है और जिसके आधार पर राजनीति का भी उत्थान-पतन निर्भर रहता है। दशरथ का संचालन वशिष्ठ करते थे। दशों दिशाओं के जिसके रथ हैं ऐसी मानव सभ्यता का पथ-प्रदर्शन, शिष्य वशिष्ठ के दर्शन का आधार लिये बिना न हो सकेगा, इसलिए जो लोग राजनीति के योग्य हैं वे उसे हाथ में लें और शेष दर्शन के निर्माण में लग जावें। भगवान का अस्त्र सुदर्शन है, दैवी शक्तियों का, संसार की सुख शान्ति का रक्षक भी सुदर्शन ही है।

आइए, प्राचीन दर्शन को, प्राचीन संस्कृति का पुनः प्रसार करें जिससे समस्त संसार में सुख शान्ति की स्थापना हो और इस भूतल पर ही स्वर्ग के दृश्य दिखाई पड़ें।

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