
प्राचीन और अर्वाचीन शिक्षा
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वर्तमान और प्राचीन शिक्षा प्रणालियों की कार्यविधि पर सूक्ष्म दृष्टिपात करने से यह सहज ही पता चल जाता है कि इन दोनों में कितना जमीन आसमान जैसा अन्तर है।
आजकल केवल भौतिक जानकारियों की शिक्षा स्कूल कालेजों में दी जाती है। गणित, भूगोल, इतिहास, भाषा, विज्ञान, रसायन, आदि विषय पढ़ाकर शिक्षक गण अपने कर्तव्य की इति समझ लेते हैं। परीक्षक लोग प्रश्न पत्रों द्वारा यह जाँच लेते हैं कि छात्र ने इन विषयों को किस सीमा तक याद किया है। उत्तीर्ण छात्रों को बी0ए0-एम0ए0 विशारद, आदि की उपाधि दे दी जाती है। यह उपाधि यह प्रकट करती है कि छात्र ने अमुक विषयों में, अमुक श्रेणी जैसी शिक्षा प्राप्त कर ली है।
अध्यापक लोग इस बात पर ध्यान देते हैं कि उनके छात्र अच्छे नम्बरों से पास हो जायं, ताकि वे अच्छे अध्यापक गिने जावें और पुरस्कार तथा वेतन वृद्धि के भागी हों। वे इस बात की आवश्यकता नहीं समझते कि छात्र के व्यक्तिगत गुण, कर्म, स्वभाव का निरीक्षण करें और उसे उचित दिशा में विकसित करने का प्रयत्न करे। छात्र चाहे जैसे दोषों, दुर्गुणों में फंसा रहे अध्यापक को उससे कोई सरोकार नहीं। पाठशाला छोड़ देने के बाद तो छात्र और अध्यापक के बीच कोई संबंध नहीं रह जाता। यहाँ तक कि एक दूसरे को पहचानने में भी कठिनाई होती है।
प्राचीन काल में इस प्रकार की भौतिक शिक्षा प्रणाली न थी। उस समय गुरु का कार्य शिष्य को भौतिक विषयों की शिक्षा देने के साथ 2 उनको व्यक्तिगत जीवन का-गुण, कर्म और स्वभावों का समुचित विकास करना भी था। इसलिए गुरु का महत्व, माता पिता के बराबर समझा जाता था। पहला जन्म माता पिता के रज वीर्य से होता था-दूसरा जन्म गुरुकुल में आचार्य द्वारा होता था। तब द्विज द्विजन्मा बनते थे। गुरु “शिक्षा” से अधिक “विद्या” पढ़ाते थे। भौतिक बातों की अपेक्षा आत्मनिर्माण संबंधी ज्ञान देते थे।
आज कल परीक्षक सबको एक लाठी से हाँकते हैं। सब धान बाईस पसेरी समझ कर सबकी एक सी परीक्षा लेते हैं और अमुक सीमा तक नम्बर प्राप्त कर लेने वाले को एक सी उपाधि दे देते हैं। प्राचीन काल में गुण कर्म स्वभाव और योग्यता के अनुकूल में परीक्षा होती थी। उसी के आधार पर गुरु उपाधि देते थे। यह उपाधियाँ शिष्यों के गुणों और योग्यताओं की प्रतीक होती थीं।
आज कितने ही गोत्र जो वंश परम्परा से चल पड़े हैं। एक समय में गुरुकुल की उपाधियाँ थीं, जिन्हें गुरु लोग छात्र की योग्यता के अनुरूप प्रदान करते थे। जैसे-द्विवेदी (जिसने दो वेद पढ़े हों) त्रिवेदी (जिसने तीन वेद पढ़े हों) चतुर्वेदी; (जो चारों वेदों का ज्ञाता हो) अग्निहोत्री (यज्ञ विद्या में प्रवीण) पंडित (सच्चरित्र विचारवान ) व्यास (वक्ता) महत्ता (महत्व प्राप्त) उपाध्याय (अध्यापक) गोस्वामी (इन्द्रियों पर काबू रखने वाला) दीक्षित (सुसंस्कृत) शुक्ल (शुभ्र-पवित्र) मुनि (मनन करने वाला विचारक) ऋषि (ऋतम्भरा बुद्धि वाला) पुरोहित (पुर का-नगर का- हित करने वाला) इसी प्रकार अनेकों उपाधियाँ गुरुकुल से प्राप्त होती थीं। छात्र को-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण भी गुरुकुल से ही उसके गुण, कर्म स्वभाव के अनुसार घोषित होता था।
यह उपाधियाँ सामाजिक जीवन में प्रवेश पाने के लिए आवश्यक समझी जाती थीं। इनसे प्रकट होता था कि इस व्यक्ति ने गुरुकुल में प्रवेश किया है। गुरुकुल से रहित व्यक्ति को “निगुरा” जैसे तिरस्कार सूचक शब्दों से संबोधित किया जाता था। जैसे वैध पिता का न होना आज एक बुरी बात समझी जाती है उसी प्रकार गुरु दीक्षा प्राप्त न होना भी एक लज्जा एवं कर्तव्य हीनता की बात समझी जाती थी। अपनी गुरु दीक्षा के प्रतीक गुरुकुल की पदवियों को लोग सम्मान और आग्रह के साथ धारण करके, अपने को गौरवान्वित समझते थे। महाभारत में विश्वामित्र की कथा प्रसिद्ध है। उन्होंने राजर्षि की उपाधि से ऊंची उपाधि ब्रह्मर्षि प्राप्त करने के लिए घोर उग्र तप किये थे और इस मनोकामना की पूर्ति में बाधक वशिष्ठ से भयंकर संघर्ष किया था और अन्त में अपना अभीष्ट पूरा करके छोड़ा था।
आज स्कूली भौतिक शिक्षा का बोल वाला है। बी0ए0, एम॰ ए॰ की डिग्रियाँ पेटभर रोटी दिलाने में समर्थ न होने के कारण अपनी भौतिक महत्ता भी खो रही हैं। गुरुकुल प्रणाली का लोप हो चला है। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के कारण आज पदवियों की निरर्थकता दृष्टि गोचर होती है। पर वह समय दूर नहीं जब प्राचीन ऋषि प्रणाली का पुनः उदय होगा और भारतमाता की आर्य सन्तानें ऋषि पद्धति से जीवन को सच्चा जीवन बनाने वाली गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करेंगी। भगवान वह दिन शीघ्र लावें।