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Magazine - Year 1948 - Version 2

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सामाजिक एकता की ओर बढ़ो

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(श्री दौलतराम कटरहा वी.ए. दमोह)

ऋग्वेद काल में आर्य गण एक साथ मिलकर यज्ञ आदि धार्मिक कृत्य किया करते थे और प्रार्थना करते थे कि, हे प्रकाश-स्वरूप स्वामिन् हमारे हृदय में ऐसा प्रकाश करिए कि हम सब एक दूसरे से मिलकर रहें। हमारे घर धन धान्य से भरपूर रहें (संसमिद्यव से वृषन्नग्ने...) अपने सफल जीवन बनाने के वास्ते हम सब मिलकर चले, मिलकर बातचीत करें और एकमत होकर हम सब अपनी जीवन-यात्रा पूरी करें जैसा कि पहिले के विद्वान करते थे (संगच्छध्वं संवदर्ध्वं...) हमारी सभाएं हमारे मन, हमारे विचार, हमारी काम करने की शैली, एक जैसी अविरुद्ध हों। (समानो मन्त्रः समितिः समानी...) हमारे शुभ संकल्प एक जैसे हों, हमारे मन और हृदय अविरुद्ध हों जिससे हम एक दूसरे की यथा समय सहायता कर सकें। हम कभी अपने आपको अकेला न समझें और पड़ोसी, मुहल्ले वालों, नगर-निवासियों और देशवासियों की सहायता करने पर तत्पर रहे (समानीव आकूतिः...) यज्ञ आदि के मिस से ही प्राचीन काल के आर्यगण एक स्थान पर सम्मिलित होकर सामूहिक मंत्रणाएं किया करते थे, उनके कार्य परस्पर अविरुद्ध होते थे जिससे उनका सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन संगठित था, उसमें पारस्परिक फूट और विश्रृंखलता नहीं थी और इसी कारण उस काल में भारत उच्चता के शिखर पर आसीन था और समस्त विश्व का गुरु था। प्राचीन आर्य जीवन आज की अपेक्षा अधिक सामाजिक और सुसंस्कृत था। उस समय प्रत्येक व्यक्ति, वैयक्तिक सुख, स्वतंत्रता, कीर्ति, अधिकार आदि की आकाँक्षाओं को भूलकर सार्वजनिक सुख को ही जीवन का ध्येय बनाना चाहता था। सार्वजनिक यंत्रों की प्रचुरता और उपर्युक्त प्रार्थनाएं ही इस बात के यथेष्ट प्रमाण हैं।

आज हिन्दू जाति अत्यन्त असंगठित और असहाय है। वह संसार की अन्य जातियों की तुलना में कम सामाजिक है और इसलिए वह साम्प्रत काल में विदेशियों द्वारा पद दलित होती रही है। उसकी इस दुरवस्था का कारण वही जान पड़ता है कि उसने उपरोक्त प्रार्थनाओं में जो आदेश और सामाजिक आदर्श का चित्रण है उस पर यथोचित ध्यान नहीं दिया और उसने अपनी विचार-धारा और कार्य प्रणाली को एक समान बनाने का सफल प्रयत्न नहीं किया। पारस्परिक मतभेद के कारण हिन्दू जाति आज अत्यन्त जर्जरित है और यदि वह अपने आपको नहीं संभालती तो भय है कि जीवन संग्राम में वह पराजित न हो जावे और अन्य जातियाँ उसे आत्मसात् न कर लें। अतएव यह उपयुक्त अवसर है कि हम यह जान लें कि किस तरह हम आज अपनी रक्षा कर सकते हैं? और वे कौन से कारण हैं जिनके कारण विजयी आर्य जाति आगे चलकर बहुत समय तक पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ी पड़ी रही?

संसार की जातियों के इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है कि प्रत्येक जाति अपने पूर्व इतिहास, जातीय और धार्मिक साहित्य तथा संस्कृति से प्रभावित रहती है। उसके जातीय जीवन के अन्तस्तल में एक विशेष भाव या खयाल ही काम करता नजर आता है और वही जातीय जीवन को चलाता है। कोई जाती देश प्रेम से अधिक प्रभावित रहती है तो कोई धर्म प्रेम की भावना से। इस दृष्टिकोण से देखने पर ज्ञात होगा कि हमारे जातीय जीवन के अन्तस्तल में जो विशेष खयाल काम कर रहा है वह है साँसारिक दुखों से निवृत्ति या आध्यात्मिक सुख प्राप्ति की इच्छा। यह खयाल बहुत अच्छा है किन्तु आज तो यह खयाल हमारे अन्दर अकेले ही जोर पकड़ गया है और फल स्वरूप लोक सेवा की दृष्टि से कार्य करने के पूर्वजों के विचार तथा इस विचार को मर्यादित रखने के लिए अन्य विचार दब से गए हैं। अच्छे से अच्छा विचार भी जब किसी समाज में अकेले ही जोर पकड़ जाता है तब वह उस समाज को नीचे ढकेल देता है। इस कारण हमारी विचार धारा और जीवन के असंतुलित होने से यह विचार हमारे असामाजिक जीवन का जन्म दाता बन हमारे पतन का कारण बन गया है। हिंदुओं में मायावाद का विचार तथा यह विचार कि हमें अपने पूर्व जन्म के कर्मों के अनुरूप ही इस जन्म में सुख दुख मिल रहे हैं इसी विचार से सम्बन्ध रखते हैं और यह सभी जानते हैं कि ये विचार हमारे समाज में अत्यन्त प्रबल हैं। प्रकट है कि ये विचार हमें सामाजिक पुनःरचना के प्रति उदासीन एवं निश्चेष्ट बनाने की प्रवृत्ति रखते हैं। इस तरह ये विचार हमारी भौतिक एवं राजनीतिक दुर्गति के कारण बन रहे हैं। इनके फलस्वरूप हमारे समाज के अनेकों कल्याण कामी व्यक्तियों के जीवन का लक्ष्य संसार को मिथ्या मानकर तथा प्रिय परिजनों एवं समाज की सेवा को मोह एवं बन्धन का कारण मानकर और इसलिए संसार से भागकर आत्मकल्याण करना तथा प्राचीन ऋषियों के ध्येय के विपरीत संन्यास लेकर लोक हितकारी कर्तव्यों से विरत रहना, बन गया है। इसी कारण हिन्दू जाति अन्य जातियों के मुकाबले में अधिक सामाजिक नहीं हो पाई और साम्प्रतकाल में बहुधा विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा पराजित होती रही।

आज भी हमारी भक्ति पद्धति कुछ इस तरह की है कि हम जनता जनार्दन की सेवा कर जनार्दन को तुष्ट करने के स्थान में केवल नाम जप द्वारा ही उन्हें तुष्ट करना अधिक सुलभ जानकर केवल नाम-जप को ही अधिक पसंद करते है। इस तरह हमारी भक्ति पद्धति अभी तक हमें अधिकतर समाज से भागकर ही सामाजिक सुख दुखों से अनासक्त रहने वाला और उसके सुख दुखों से कम सम्बन्ध रखने वाला बनाती रही है और हमने अभी थोड़ा ही समय हुआ कि तिलक जैसे गीता पंडित के द्वारा कर्मयोग और महात्मा गाँधी जैसे मनीषी द्वारा अनासक्त रहते हुए भी कर्म करते रहने का पाठ फिर से पढ़ना आरम्भ किया है। जबकि अभी तक सदाचारी, विद्वान और श्रेष्ठजनों पर मायावाद का प्रभाव समाज के बंधनों को तोड़कर साँसारिक जीवन से दूर भगाकर उन्हें असामाजिक बना देना ही रहा है तब योग्य कर्णधारों के अभाव में समाज और भी अधिक असामाजिक और विच्छृंखल न होता तो क्या होता? किन्तु यदि हम लोग भगवान कृष्ण के कर्मयोग के संदेश को कि “यद्यपि मुझे संसार में कुछ भी अप्राप्त और अप्राप्य नहीं है तथापि मैं, फिर भी कर्म करता ही रहता हूँ” पहिले से ही न भूलते तो संभव है कि हमें ये दुर्दिन देखने को न मिलते।

हिन्दू जाति की यह दुरवस्था तब से हुई जब से कि हमारे सामाजिक जीवन से एकता लुप्त हो गई और हम अनेक दिशाओं में जाने लगे। हमारा सामाजिक पतन तब से आरंभ हुआ जब से कि हमने एक साथ मिलकर बातचीत करना एवं एक साथ मिलकर विचार करना छोड़ दिया और हमने अपने सामाजिक संगठन के सर्वोत्तम प्रतीक एवं आधार सार्वजनीन यज्ञों का भी परित्याग कर दिया। आर्य लोग समय समय पर एक ही स्थान पर सम्मिलित होकर सामूहिक मंत्रणाएं किया करते थे किंतु जब से हमने स्वतंत्र रूप से विचार करने के साथ साथ एक ही विचार धारा पर पहुँच कर एक जैसा कार्य करने के उत्तरदायित्व का समुचित निर्वाह करना छोड़ दिया तब से हम भिन्न भिन्न दिशाओं में गमन करने लगे और हमारे एक सूत्र में बंधकर कार्य करने की आशा जाती रही। लोग अपनी अपनी ढपली पर अपना अपना राग अलापने लगे और हमारी राष्ट्रीय एकता लुप्त हो गई। इस पृथकता को मिटाकर हम सामाजिक एकता की ओर बढ़ें इसी में हमारा कल्याण है।

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