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Magazine - Year 1948 - Version 2

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रामकृपा से धर्म रक्षा।

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(महात्मा गान्धी)

तीन अवसरों पर मैं पतन से ईश्वर कृपा द्वारा बच गया। तीनों अवसर वार-बन्धुओं से सम्बन्ध रखते हैं। दो के पास विभिन्न अवसरों पर मुझे मित्रगण ले गये थे। पहले अवसर पर झूठी शर्म का मारा मैं वहाँ जा फंसा और यदि ईश्वर ने न बचाया होता तो जरूर मेरा पतन हो जाता। जिस घर में मैं ले जाया गया वहाँ उस स्त्री ने ही मेरा तिरस्कार किया। मैं यह बिल्कुल नहीं जानता था कि ऐसे मौकों पर किस तरह क्या कहना चाहिये, इससे पहले ऐसी स्त्रियों के पास तक बैठने में, मैं अपमान समझता था। इसी कारण ऐसे घर में घुसते समय भी मेरा हृदय काँप रहा था। मकान में घुसने के बाद उसके चेहरे की तरफ भी मैं न देख सका। मुझे पता नहीं कि उसका चेहरा था भी कैसा! ऐसे मूढ़ को वह चपला क्यों न निकाल बाहर कर देती? उसने मुझे दो चार बातें सुनाकर विदा कर दिया। उस समय तो मैंने यह न समझा कि ईश्वर ने बचाया। मैं तो खिन्न होकर दबे पाँव वहाँ से लौट आया। मैं शरमिन्दा हुआ। मुझे मालूम हुआ, मानो मुझमें राम नहीं हैं, पीछे मुझे मालूम हुआ कि मेरी मूर्खता ही मेरी ढाल थी। ईश्वर ने मुझे बेवकूफ बनाकर उबार लिया। नहीं तो मैं,जो बुरा काम करने के लिये गन्दे घर में घुसा था, कैसे बच सकता था?

दूसरा अवसर इससे भी भयंकर था। यहाँ मेरी बुद्धि पहले की तरह निर्दोष न थी। मैं सावधान अधिक था। इस पर भी मेरी पूजनीया माताजी की दिलाई हुई प्रतिज्ञा रूपी ढाल मेरे पास थी। विलायत की बात है। मैं जवान था। दो मित्र एक घर में रहते थे। थोड़े ही दिन के लिये वे एक गाँव में गये। मकान मालकिन आधी वेश्या थी। उसके साथ हम दोनों ताश खेलने लगे। उन दिनों मैं अवकाश मिलने पर ताश खेला करता था। विलायत में माँ बेटा भी निर्दोष भाव से ताश खेल सकते है, खेलते ही हैं। उस समय भी हमने रीति के अनुसार ताश खेलना स्वीकार कर लिया। मुझे तो पता भी न था कि मकान मालकिन अपना शरीर बेचकर अपनी जीविका चलाती है। ज्यों ज्यों खेल जमने लगा त्यों त्यों रंग भी बदलने लगा। उस बाई ने विषय चेष्टा आरम्भ कर दी। मैं अपने मित्र को देख रहा था। वे मर्यादा छोड़ चुके थे। मैं ललचाया। मेरा चेहरा तमतमा गया। उसमें व्यभिचार का भाव भर गया। मैं अधीर हो गया।

जिसकी राम रक्षा करता है उसे कौन गिरा सकता है? उस समय राम मेरे मुख में तो नहीं था, परन्तु वह मेरे हृदय का स्वामी जरूर था। मेरे मुख में तो विषयोत्तेजक भाषा थी। मेरे मित्र ने मेरा रंग ढंग देखा। हम एक दूसरे से अच्छी तरह परिचित थे। उन्हें ऐसे कठिन अवसरों की याद थी, जबकि मैं अपने इरादे से पवित्र रह सका था। मित्र ने देखा कि इस समय मेरी बुद्धि बिगड़ गई है। उन्होंने देखा कि यदि इस रंगत में रात अधिक जायगी तो मैं भी उनकी तरह पतित हुये बिना न रहूँगा।

विषयी मनुष्यों में भी अच्छे विचार होते हैं। इस बात का पता मुझे पहले−पहल इन्हीं मित्र के द्वारा लगा। मेरी हीन दशा देखकर वे दुःखी हुए। मैं उम्र में उनसे छोटा था। राम ने उनके द्वारा मेरी सहायता की। उन्होंने प्रेम बाण छोड़ते हुये कहा- “मौनिया! (यह मोहनदास का दुलार का नाम है। मेरे माता पिता तथा हमारे परिवार के सबसे बड़े भाई मुझे इसी नाम से पुकारते थे। इस नाम के पुकारने वाले चौथे ये मित्र मेरे धर्म भाई साबित हुए) मौनिया! होशियार रहना! मैं तो गिर चुका हूँ, तुम जानते ही हो,पर तुम्हें न गिरने दूँगा। अपनी माँ के सामने की हुई प्रतिज्ञा याद करो। यह काम तुम्हारा नहीं। भागो यहाँ से, जाओ अपने बिछौने पर, हटो, ताश रख दो।”

मैंने कुछ उत्तर दिया या नहीं, याद नहीं है। मैंने ताश रख दिए। जरा दुःख हुआ। छाती धड़कने लगी। मैं उठ खड़ा हुआ। अपना बिस्तर संभाला।

सबेरे मैं जगा। राम-नाम का आरम्भ किया। मन में कहने लगा, कौन बचा, किसने बचाया, धन्य प्रतिज्ञा! धन्य माता! धन्य मित्र! धन्य राम! मेरे लिए तो यह चमत्कार ही था। यदि मेरे मित्र ने मुझ पर राम-बाण न चलाए होते तो मैं आज कहाँ होता!

तीसरा प्रसंग हास्यजनक है। एक यात्रा में जहाज के एक कप्तान और एक अंग्रेज यात्री से मेरा मेल हो गया। जहाँ जहाज किसी बंदर पर ठहरता वहीं कप्तान और बहुत से यात्री वेश्या घर ढूँढ़ते। कप्तान ने मुझसे बंदर देखने के लिए चलने को कहा। मैंने उसका मतलब नहीं समझा। हम सब लोग एक वेश्या के घर के सामने जाकर खड़े हो गए। उस वक्त मैंने जाना कि बंदर देखने जाने का मतलब क्या है? तीन औरतें हमारे सामने खड़ी की गई। मैं तो स्तम्भित हो गया। शर्म के मारे न कुछ कह सका, और न भाग ही सका। मुझे विषय की इच्छा तो जरा भी न थी। वे दोनों आदमी तो कमरे में घुस गए। तीसरी बाई मुझे अपने कमरे में ले गई। मैं सोच ही रहा था कि क्या करूं- इतने ही में दोनों आदमी बाहर निकल आये। पता नहीं, उस औरत ने मेरे बारे में क्या ख्याल किया होगा! वह मेरे सामने हँस रही थी। मेरे दिल पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा। हम दोनों ही की भाषा भिन्न थी। वहाँ मेरे बोलने का काम तो था ही नहीं। उन मित्रों के पुकारने पर मैं बाहर चला आया। मैं कुछ शरमाया तो जरूर। उन्होंने अब मुझे ऐसी बातों में बेवकूफ समझ लिया। आपस में उन्होंने मेरी दिल्लगी उड़ाई। मुझ पर उन्हें तरस आया। उस दिन से कप्तान के समक्ष संसार के मूर्खों में शामिल हो गया। फिर उसने कभी मुझे बंदर देखने के लिए चलने को न कहा। यदि मैं अधिक समय तक वहाँ रहता अथवा मैं उस बाई की बोली जानता होता तो मैं नहीं कह सकता कि मेरी क्या दशा होती। इतना जरूर जानता हूँ कि उस दिन मैं अपने पुरुषार्थ के बल पर नहीं बचा था, बल्कि ईश्वर ने ही ऐसी बातों में मूढ़ रखकर मुझे बचाया।

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