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Magazine - Year 1949 - Version 2

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लोक मत की अवहेलना

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(श्री द्वारिका प्रसाद कटरहा, दमोह)

कोई-कोई लोग कहा करते हैं कि यदि हमारा हृदय शुद्ध है तो दुनिया हमें कुछ भी क्यों न कहा करे हमें उसके अविश्वास, संदेह और दोषारोपण की कुछ भी परवाह नहीं। हम मानते हैं कि इन व्यक्तियों में गंभीर आत्म-विश्वास, चरित्र की दृढ़ता, दृढ़ निश्चय और सत्यता की लगन है और सत्य के पीछे वे लोकमत के सामने नहीं झुकना चाहते, किंतु यदि वे अपना उचित समय देकर लोगों की भ्रमपूर्ण धारणाओं का निवारण कर सकते हैं और इस तरह लोगों का बौद्धिक धरातल थोड़ा बहुत ऊंचा उठाकर अपनी कार्य पद्धति के औचित्य को सिद्ध करते हुए लोकमत को अपने पक्ष में ला सकते हैं तो ऐसा न कर लोकमत की उपेक्षा करते रहने में भारी भूल होगी। यदि हमारा कोई कार्य प्रचलित रीति रिवाजों से कुछ भिन्न है तो यह अवश्य है कि अन्य असहिष्णु व्यक्ति हमारे कार्य की कटु आलोचना करेंगे। इस समय हमें चाहिए कि अपनी तथा समाज की भलाई के लिए हम अपनी स्थिति को स्पष्ट कर दें।

यदि आप किसी नए रास्ते पर चलते हैं और दूसरों को यह संतोष नहीं दिला सकते कि वह रास्ता ठीक है, तो आपका यह कहना कि भले ही समाज उस पर चले अथवा न चले, कम से कम उस रास्ते पर चलने में मुझे बाधा न पहुँचाई जायं तो यह बात समाज को मान्य नहीं हो सकती। भले ही आप समझते है कि आपके उस रास्ते पर चलने में समाज को कोई हानि नहीं होती किंतु आप अपने इस आचरण से समाज के अन्य कोमल प्रकृति के व्यक्तियों को उसी रास्ते पर आने के लिए ललचाते हैं और उन्हें मूक निमन्त्रण देते हैं और इस तरह यह संदेह हो सकता है कि जब आप अपने रास्ते के ठीक होने में संतोषदायक उत्तर नहीं दे सकते तो आपके कारण लोग भटक सकते हैं। चाहे आप अपने मन का प्रचार करें, चाहे न करें, आप जिस मार्ग पर चलते हैं उसका मौन एवं अदृष्ट प्रभाव अन्य लोगों पर पड़ता ही है। जब तक आप जीवित हैं तब तक आपकी प्रत्येक हलचल आकर आपके वातावरण को प्रभावित करेगी ही। प्रभाव की दृष्टि से आप विश्व के एक अविच्छेद्य अंग हैं। आप कितने भी शाँत और अहानिकर क्यों न हों किंतु आपको शून्य मानकर निश्चित नहीं हुआ जा सकता। आप प्रकृति के एक भाग हैं और आपका वातावरण दूसरा भाग और इनमें सदा आदान-प्रदान चलता ही रहता है। अतएव आपको निश्चित रूप से उस रास्ते पर नहीं चलने दिया जा सकता।

समाज एक सूत्र में ग्रथित है। आपको चाहिए कि आप किसी ऐसे विचार को समाज में न छोड़ दें जिसके कि आदि अंत का स्वयं आपको ही पता न हो और जिसके सम्बन्ध में आप अन्य लोगों का उचित समाधान न कर सकते हो। ऐसे उच्छृंखल विचारों को प्रचलित कर आप सामाजिक जीवन को विच्छृंखल बनाते हैं। नयी विचारधारा को जन्म देते समय आपको यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह पुरानी बातों से समस्वरता स्थापित कर ले और उनमें फिट बैठ जायं। ऐसा न हो कि वह विचार-धारा और तत्सम्बन्धी दलीलें हमारे गले ही न उतरें और हमारा जीवन उसकी भयंकर प्रताड़ना से तिल-मिला उठे। चिर परीक्षित प्राचीन मर्यादाओं की शृंखला से असम्बद्ध प्रतीत होने वाली ऐसी अटपटी, असंगत तथा उच्छृंखल विचार-धारा के प्रति समाज अधिक समय तक उदासीन भी नहीं रह सकता। यों तो हमें उस अनोखी विचारधारा के बाह्य स्वरूप को ही समाज के सामने उपस्थित करना पड़ेगा अथवा स्वयं ही उस विचार-धारा को छोड़ देना पड़ेगा। हम निष्कंटक रूप से उस पर नहीं चले जा सकते।

यदि आप कोई नया कार्य करना चाहते हैं तो आपको समाज को साथ लेकर चलना ही पड़ेगा। यदि कोई द्विज अपना पखाना स्वयं ही उठाने को बुरा नहीं समझता तो उसे समाज के कुछ लोगों को समझाकर अपने साथ लेना पड़ेगा। वह यदि अछूतोद्धार करना चाहता है तो भी वह अकेला कुछ नहीं कर सकता। उसे दूसरों को समझाकर अपनी ही विचार-धारा पर लाना होगा। तब कहीं वह अपने कार्य में सफल हो सकता है। यदि आप केवल लोकमत की उपेक्षा करते हैं और लोक को शिक्षा देकर आप उसे सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न नहीं करते तो आपकी यह कार्य प्रणाली केवल विनाशात्मक है। यह तो तोड़-फोड़ की नीति है और इससे तो समाज की बनी बनाई कुछ परिपाटियाँ बिगड़ ही सकती हैं, पर नवीन नहीं बन सकतीं। किंतु हमें तो निर्माण नीति का अवलम्बन करना चाहिए। लोगों के विचारों में क्रान्ति देने वाले स्वयं महात्मा ईसा जैसे महापुरुष ने कहा था कि मैं पुरानी बातों को मेटने नहीं बल्कि उनकी पूर्ति करने आया हूँ। पूर्ति करने में पुरानी वस्तु को थोड़ा बहुत मेट कर परिवर्तन भले ही करना पड़ता है किन्तु उसमें निर्माण के आगे विनाश मात्रा बहुत कम होती है।

लोगों की विचार धारा को सुसंस्कृत बनाने का कोई रचनात्मक प्रयत्न किए बिना लोक मत का तुच्छ गिनना अत्यन्त गलत नीति है। लोक मत की इतनी उपेक्षा सर्वथा हेय है। रचनात्मक कार्य किए बिना विनाशात्मक कार्य-प्रणाली लोक को कभी सहन नहीं हो सकती। यदि आप समाज को अपना रचनात्मक सहयोग नहीं दे सकते तो आपको विनाशात्मक कार्य-पद्धति अपनाने का कोई नैतिक अधिकार भी नहीं हो सकता। रचनात्मक सहयोग न दे सकना, हममें निस्वार्थता की कमी का परिचायक भी हो सकता है। इसका तो यह भी अर्थ हो सकता है कि हम अपने आपको उन्नत बनाने में ही उलझे हुए हैं और सब प्राणियों की उन्नति में अपनी वास्तविक उन्नति नहीं देखते तथा हमारे कार्य क्षेत्र परिधि अत्यंत संकुचित है और हम स्वार्थी हैं।

अपनी नवीन विचार धारा उपस्थित करने के कारण प्रारम्भ में संसार के बड़े-बड़े महापुरुषों को घोर लोक निन्दा का सामना करना पड़ा। पर उससे वे हतप्रभ न हुए उन्होंने लोक-निन्दा की बिल्कुल परवाह न की और सत्पथ से तनिक भी विचलित न हुए। पर इस बेपरवाही का यह मतलब नहीं था कि वे लोक के प्रति अपने कर्त्तव्य से उदासीन रहे। यदि उन्होंने लोक-मत का विरोध किया होता तो साथ-साथ लोक हित के लिए रचनात्मक कार्य भी किया। महात्मा सुकरात, ईसा मुहम्मद और दयानन्द आदि ने लोक को शिक्षित कर उनके बीच में अपने मत का प्रचार किया और आज उनके अनुयायी संसार में करोड़ों पुरुष हैं। अतएव रचनात्मक कार्य करने पर ही लोक-मत की उपेक्षा उचित हो सकती है।

महान पुरुषों की इतनी महती सफलता का कारण उनका गंभीर आत्म-विश्वास और दृढ़ निश्चय है। उसी के बल पर वे लोक-निन्दा के भयंकर आघातों को निरन्तर सहते हुए पर्वत के समान अचल बने रहते हैं। वे बड़े जीवन के आदमी होते हैं और “यद्यपि सत्यं लोक विरुद्धं नहिकरणीयम् नाचरणीयम्” इस नीति के शिक्षा के हामी नहीं होते। वे जिस कार्य को ठीक जान लेते हैं घोर विरोध सहन करते हुए भी उसमें प्रवृत्त होते ही है।

लोक-मत की उपेक्षा न कर जिस बात को हम ठीक समझते हैं उस बात को दूसरों को भी हृदयंगम करा देने के प्रयत्न से एक लाभ और होता है। यदि हमारा मन गलत है अथवा उसमें सुधार की आवश्यकता है तो लोक संपर्क में आने से हमें अपनी भूल समझ में आ जाती है और उसमें समुचित सुधार हो सकता है जो कि लोक-मत और लोक धर्म की उपेक्षा करने पर शायद न हो सकता। इसके अतिरिक्त हमें अपने ज्ञान को कर्म में उतार कर हृदयंगम कर लेने का भी प्रचुर अवकाश मिलता है।

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