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Magazine - Year 1949 - Version 2

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महात्मा गाँधी की अमर वाणी

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-जिसका ईश्वर के सिवा और कोई अवलम्ब नहीं, वह जानता ही नहीं कि संसार में पराभव भी कोई चीज है।

-यदि संसार को आत्मा के अस्तित्व का विश्वास हो तो इस बात का सदा ध्यान रहना चाहिए कि शारीरिक बल की अपेक्षा आत्मिक बल कहीं श्रेष्ठ है। यह प्रेम का वह पवित्र सिद्धाँत है जिससे पर्वत हिल जाते हैं।

-प्रायः निर्बल मनुष्य पर बली मनुष्य अत्याचार करते देखे जाते हैं। निर्बल हार जाता है। इससे उसकी कुछ अनीति सिद्ध नहीं होती और न बली ही की नीति सिद्ध होती है। दुराग्रही साधनों का विचार नहीं करता। उसका लक्ष्य योग्य अथवा अयोग्य कारणों से केवल अपनी अभीष्ट सिद्धि की ओर ही रहता है। परन्तु यह तो धर्म नहीं, अधर्म है। धर्म में किसी प्रकार की असत्यता नहीं होती। धर्म का नाम तो प्रेम से, दया से और सत्य से होता है। इसके त्याग से प्राप्त हुआ स्वर्ग भी निन्द्य है।

-जहाँ सत्य है और जहाँ धर्म है केवल वहीं विजय है।

-जिस धर्म में जितनी ही कम हिंसा है समझना चाहिये कि उस धर्म में उतना ही ज्यादा सत्य है। हम अगर भारत का उद्धार कर सकते हैं तो सत्य और अहिंसा ही से कर सकते हैं।

-मेरा विश्वास है कि बिना धर्म का जीवन बिना सिद्धाँत का जीवन होता है, और बिना सिद्धांत का जीवन वैसा ही है जैसा कि बिना पतवार का जहाज। जिस तरह बिना पतवार के जहाज इधर से उधर मारा-मारा फिरेगा ओर कभी उद्दिष्ट स्थान तक नहीं पहुँचेगा, उसी तरह धर्म-हीन मनुष्य भी संसार-सागर में इधर से उधर मारा-मारा और कभी अपने उद्दिष्ट स्थान तक नहीं पहुँचेगा।

-मैंने जीवन का एक सिद्धाँत निश्चित किया है। वह सिद्धाँत यह है कि किसी मनुष्य का चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो, कोई काम तब तक कभी सफल और लाभदायक नहीं होगा जब तक उस काम को किसी प्रकार का धार्मिक आश्रय न होगा। यहाँ “धर्म” शब्द से मेरा उस धर्म से तात्पर्य नहीं जिसे आप संसार के समस्त धर्म-ग्रंथों को पढ़ कर सीखेंगे। जिस धर्म से मेरा तात्पर्य है वह वास्तव में मस्तिष्क के द्वारा नहीं ग्रहण किया जा सकता। बल्कि उसका सम्बन्ध हृदय के साथ है। वह एक ऐसी चीज है जो हम पर प्रत्यक्ष तो नहीं होती परन्तु हम से जिसकी सृष्टि होती है वह धर्म सदा हम लोगों के हृदय में रहता है, कुछ लोगों को तो उसके हृदय में रहने का ज्ञान होता है और कुछ लोगों को उसका जरा भी ज्ञान नहीं होता। लेकिन वह हृदय में रहता अवश्य है और इस धर्म भाव को चाहे हम किसी बाहरी सहायता से जाग्रत करें और चाहे आत्मिक उन्नति के द्वारा जाग्रत करें, पर यदि हम किसी काम को उचित रीति से करना चाहें अथवा किसी ऐसे काम को करना चाहें जिसके करने के लिए हमारा विवेक हमें विवश करता हो तो उस दशा में हमें उस धर्म-भाव को जाग्रत करना ही पड़ेगा। हमारे धर्म-शास्त्रों में कुछ ऐसे नियम बतला दिये गये हैं जो जीवन के सत्य सिद्धान्त हैं और जिन्हें हमें मानना ही पड़ता है।

-हम सदाचार द्वारा ईश्वर के कृपा-पात्र हो जायं तो फिर जैसी कि उसने प्रतिज्ञा कर राखी है हमें किसी बात की कमी न होगी। यही सच्चा “धर्म-शास्त्र” है। आप और हम इसे प्रेम पूर्वक अंगीकार करें और अपने दैनिक व्यवहारों में इसका आचरण करें।

-सदाचारी पुरुष ब्रह्मचर्य पालन करते हुए जहाँ तक संभव होगा अपने बल वीर्य की रक्षा करेंगे। वे कभी चोरी न करेंगे, घूस न लेंगे, दूसरों का अथवा अपना समय व्यर्थ न बितावेंगे, अकारण, ‘धन-संचय’ न करेंगे, ऐश-आराम की वृद्धि न करेंगे और आवश्यक वस्तुओं को केवल सुख−चैन के लिए काम में न लावेंगे। वे सादगी से रह कर और इस बात का दृढ़ विश्वास रख कर कि हम शरीर नहीं किन्तु आत्मा हैं और आत्मा को मारने वाला कोई “माई का लाल” संसार में पैदा ही नहीं हुआ, आधि-उपाधि के भय से रहित होकर चक्रवर्ती राजा के वैभव और शान-शौकत से अथवा अभिमान से अन्ध न होकर निर्भयता पूर्वक अपने सारे कार्य करते हैं।

-मेरी दृढ़ धारणा है कि कोई मनुष्य उस समय तक बड़े काम अथवा राष्ट्रोन्नति करने में समर्थ नहीं हो सकता जब तक उसके आचरण सच्चे न हों और उसके वचनों का मूल्य न हो।

-खाने, पीने और वृत्तियों को सन्तुष्ट करने में हम पशुओं के ही समान हैं लेकिन क्या आपने कभी किसी घोड़े या गौ में उतना अधिक चटोरापन देखा है जितना हम लोगों में होता है। क्या आप समझते हैं कि अपने खाद्य पदार्थों की संख्या को उस सीमा तक पहुँचा देना कि जहाँ हमें स्वयं अपनी दशा का भी ज्ञान न हो, वास्तविक जीवन और सभ्यता का चिह्न है।

-खाने और बोलने के सम्बन्ध में जिसने जबान की चंचलता रोक ली उसने मानो सबको अपने वश में कर लिया।

-सत्य बिना मुझे तो सब नीरस मालूम होता है। असत्य से देश का लाभ होता ही नहीं, यह मेरी भावना है। पर कदाचित असत्य से तात्कालिक लाभ दीखता हो तो भी सत्य का त्याग कदापि न करना चाहिए- यह मैं दृढ़ता पूर्वक मानता हूँ।

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