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Magazine - Year 1950 - Version 2

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शास्त्र मंथन का नवनीत।

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आहार निद्राभयमैथुनञ्च

सामान्यमेतत्पषुभिर्नराणाम्।

धर्म्मो हि तेषमधिको विशेषो

धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥

खाना, सोना, डर, सन्तान पैदा करना ये बातें मनुष्यों और पशुओं में समान ही होती हैं। धर्म ही मनुष्य में विशेष होता है। इसके बिना वे पशु हैं।

उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी--

र्दैवेन देयमिति कापुरुषा बदाँते।

दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या

यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोत्र दोषः॥

उद्योगी पुरुषसिंह को लक्ष्मी मिलती है। भाग्य का भरोसा कायर लोग किया करते हैं। भाग्य को दबा कर पुरुषार्थ करो। यत्न करने पर काम न बने तब विचारना चाहिए कि इसमें दोष किसका है।

उद्योगेनहि सिध्यन्ति कार्याणि न मकोरथैः।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविषन्ति मुखे मृगाः॥

उद्योग से ही काम बनते हैं मन में सोचने मात्र से नहीं। सोते हुए सिंह के मुँह में कही कोई मृग आ सकते हैं?

काव्यशास्त्रविनोदेन कालोगच्छति घीमताम्

व्यसनेन च मूर्खाणाँ निद्रया कलहेन या॥

बुद्धिमानों का समय काव्य शास्त्रों के पढ़ने सुनने में जाता है और मूर्खों का व्यसन, निद्रा और झगड़ों में।

इज्याध्ययनदानानि तपः सत्य घृति क्षमा।

अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः॥

धर्म के 8 मार्ग हैं - यक्ष करना, पढ़ना, दान देना, तप, सत्य, धैर्य, क्षमा और निर्लोभ।

मातृत्वत्परदारेषु पन्द्रव्येषु लोष्ठवत।

श्रात्मवर्त्सवभूतेषु यः पष्यति स पण्डितः ॥

जो पराई स्त्रियों में माता, पराये धन में मिट्टी का और सब जीवों में अपने आत्मा का भाव रखता है, वही पण्डित है।

ईर्ष्या घृणी त्वसन्तुष्टः क्रोधना नित्यशंकितः।

परभाग्योपजीवी च षडेते दुःखभागिनः॥

विपदि धैर्यमथाम्युदये क्षमा

सदसि वाक्टुता युधि विक्रमः

यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतो

प्रकृतिसिद्धमिदं द्दि महात्मनाम्॥

विपत्तिकाल में धैर्य, सम्पत्ति में क्षमा, सभा में वाक्पटुता, युद्ध में पराक्रम, यश में रुचि, सुनने में शोक ये बातें महात्माओं में स्वभाव से ही होती हैं।

सम्पदियस्यनहर्षों विपदि विषादो रणेचधीरत्वम्।

तंभुचनश्रयन्लिकं जनयतिजननी सुतंविरलम्।

जिसको सम्पत्ति में हर्ष और विपत्ति में दुख न हो, तथा रण में धीरता हो, ऐसे त्रिलोकातिलक पुत्र को कोई विरली ही माता जनती है।

षडोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।

निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता॥

ये छः दोष कल्याण चाहने वाले मनुष्य को छोड़ देने चाहिए। निद्रा, तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता (देर से काम करना)।

माँसमूत्रपुरीषास्थिनिर्मितेऽस्प्रिनू कलेवरे।

विनश्वरे विद्दायास्थाँ यशः पालय मित्र में॥

माँस विष्ठा मूत्र और हड्डी से बने हुए इस नाशमान शरीर का मोह छोड़कर हे मित्र ! तू यश का पालन कर अर्थात् यश के लिए शरीर की परवाह मत कर।

(देश देशान्तरों से प्रचारित, उच्च कोटि की आध्यात्मिक मासिक पत्रिका)

वार्षिक मूल्य 2॥) सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य एक अंक का।)

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