
गायत्री द्वारा वाममार्गी ताँत्रिक साधनाएं।
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सृष्टि के आदि में ब्रह्म ने इच्छा की कि ‘एकोऽहं बहुस्याँम’ मैं एक से बहुत हो जाऊँ। यह इच्छा की शक्ति के रूप में परिणत हो गई। ब्रह्म और माया दो हो गये। यह माया या शक्ति दो विभागों में बंटी। एक संकल्पमयी गायत्री, दूसरी परमाणुमयी सावित्री। संकल्पमयी गायत्री का उपयोग आत्मिक शक्तियों को बढ़ाने एवं दैवी सान्निध्य प्राप्ति करने में होता है। आत्मिक गुणों और विशेषताओं के बढ़ने के कारण साधन को साँसारिक कठिनाइयाँ पार करना, स्वल्प साधन में भी सुखी रहना एवं सुखकर स्थिति को उपलब्ध करना सहज होता है। अब तक इसी विधि-विधान की चर्चा अखण्ड ज्योति के पिछले अंकों में की गई है। यह योग-विज्ञान है, इसे दक्षिण मार्ग भी कहते हैं। यह सत् प्रधान होने से हानिरहित एवं व्यक्ति तथा समाज के लिए सब प्रकार हितकर है।
शक्ति की दूसरी श्रेणी, परमाणुमयी सावित्री है। इसे स्थूल प्रकृति, पंचभूत, भौतिक सृष्टि आदि नामों से भी पुकारते हैं। इस प्रकृति के परमाणुओं के आकर्षण, विकर्षण से संसार में नाना प्रकार के पदार्थों की उत्पत्ति, वृद्धि और समाप्ति होती रहती है। इन परमाणुओं की स्वाभाविक साधारण क्रिया में हेर-फेर करके अपने लिए अधिक उपयोगी बना लेने की क्रिया का नाम विज्ञान है। यह विज्ञान दो भागों में विभक्त है। एक वह जो यंत्रों द्वारा प्रकृति के परमाणुओं को अपने लिए उपयोगी बनाता है। रेल, तार, टेलीफोन, रेडियो, हवाई जहाज, टेलीविजन, विद्युत शक्ति आदि अनेकों वैज्ञानिक यंत्र आविष्कृत हुए हैं और होने वाले हैं। यह सब विज्ञान है। दूसरा है - तंत्र विज्ञान। जिसमें यंत्रों के स्थान पर मानव अन्तराल में रहने वाली विद्युत शक्ति को कुछ ऐसी विशेषता सम्पन्न बनाया जाता है। जिससे प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु उसी स्थिति में परिणत हो जाते हैं जिसमें कि मनुष्य चाहता है। पदार्थों की रचना परिवर्तन और विनाश का बड़ा भारी काम बिना किन्हीं यंत्रों की सहायता के तंत्र विद्या द्वारा हो सकता है। विज्ञान के इस तन्त्र माँग को सावित्री विद्या, तन्त्र साधना, वाममार्ग आदि नामों से पुकारते हैं।
यन्त्र विज्ञान एक स्वतंत्र विद्या है। इस पुस्तक में उसके आधार और कार्य की चर्चा नहीं की जा सकती। इन पंक्तियों में तो हमें केवल विज्ञान के तंत्र भाग का पाठकों को थोड़ा सा परिचय कराना है। प्राचीन काल में भारत के विज्ञानाचार्य अनेक प्रयोजनों के लिए इसी मार्ग का अवलम्बन करते थे। प्राचीन इतिहास में ऐसी अनेक साक्षियाँ मिलती हैं जिन से प्रकट होता है कि उस समय बिना यन्त्रों के भी ऐसे अद्भुत कार्य होते थे जैसे आज यन्त्रों से भी संभव नहीं हो पाये हैं। युद्धों में आज अनेक प्रकार के बहुमूल्य वैज्ञानिक अस्त्र-शस्त्र प्रयोग होते हैं पर प्राचीनकाल जैसे वरुणास्त्र, जो जल की भारी वर्षा कर दे, आग्नेयास्त्र, जो भयंकर अग्नि ज्वालाओं का दग्वानल प्रकट कर दे, सम्मोहनास्त्र- जो लोगों को संज्ञाशून्य बना दे, नागपाश, जो लकवे की तरह जकड़ दे, आज कहाँ है? इसी प्रकार बिना इंजिन, भाप, पेट्रोल आदि के आकाश में भूमि पर और जल में चलने वाले रथ आज कहाँ हैं? मारीच की तरह मनुष्य से पशु बन जाना, सुरसा की तरह बहुत बड़ा शरीर बड़ा लेना, हनुमान की तरह मच्छर के समान अतिलघु रूप धारण करना, समुद्र लाँघना, पर्वत उठाना, नल-नील की भाँति पानी पर तैरने वाला पत्थरों का पुल बनाना, रावण अहिरावण की भाँति बिना रेडियो के अमेरिका और लंका के बीच वार्तालाप होना, अदृश्य हो जाना आदि अनेकों एक अद्भुत कार्य थे जो आज यन्त्रों से भी नहीं हो पाते पर एक समय बिना किसी यन्त्र की सहायता के केवल आत्मशक्ति का ताँत्रिक उपयोग होने से सुगमतापूर्वक हो जाते थे। इस क्षेत्र में भारत भारी उन्नति कर चुका था उसके संसार पर चक्रवर्ती शासन करने एवं जगद्गुरु कहलाने का एक यह भी कारण था।
नागार्जुन, गोरखनाथ, मछीन्द्रनाथ आदि सिद्ध पुरुषों के पश्चात भारत से इस विद्या का लोप होता गया और आज तो इस क्षेत्र में अधिकार रखने वाले व्यक्ति कठिनाई से ढूंढ़े मिलेंगे। इस तन्त्र महाविज्ञान की कुछ लंगड़ी-लूली, टूटी-फूटी शाखाएँ-प्रशाखाएँ जहाँ तक मिलती हैं, उनके चमत्कार दिखाने वाले जहाँ-तहाँ मिल जाते हैं। उनमें से एक शाखा है- ‘दूसरों के शरीर और मन पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालना’ है। जो इसे कर सकते हैं वे यदि अभिचार करें तो स्वस्थ आदमी को रोगी बना सकते हैं, किसी भयंकर प्राणघातक पीड़ा-वेदना या बीमारी में अटका सकते हैं, उस पर प्राणघातक सूक्ष्म प्रहार कर सकते हैं, किसी भी बुद्धि को फेर सकते हैं, उसे पागल, उन्मुक्त, विक्षिप्त, मंदबुद्धि या उलटा सोचने वाला कर सकते हैं। भ्रम, भय, संदेह आशंका और बेचैनी के गहरे दलदल में फंसा कर उसके मानसिक धरातल को अस्त-व्यस्त कर सकते हैं। इसी प्रकार किसी अप्रत्यक्ष चेतना शक्ति द्वारा किसी व्यक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ा हो तो उसे वे दूर भी कर सकते हैं। नजर लगना, उन्माद, भूतोन्भाव, ग्रहों का अनिष्ट, बुरे दिन किसी के द्वारा प्रेरित अभिचार, मानसिक उद्वेग आदि को शान्त किया जा सकता है। शारीरिक रोगों के निवारण, सर्प बिच्छू आदि का दंशन, एवं विषैले कीड़ों का समाधान भी तन्त्र द्वारा होता है। छोटे बालकों पर इस विद्या का बड़ी आसानी से भला या बुरा भारी प्रभाव डाला जा सकता है। तंत्र साधना द्वारा सूक्ष्म जगत में विचरण करने वाली अनेक चेतना ग्रन्थियों में से किसी विशेष प्रकार की ग्रन्थि को अपने लिए जागृत, चैतन्य, क्रियाशील एवं अनुचरी बनाया जा सकता है। देखा गया है कि कई ताँत्रिकों को मसान, पिशाच, भैरव, छाया पुरुष, सेबड़ा, ब्रह्मराक्षस, बेताल, कर्ण पिशाचिनी, त्रिपुर, सुन्दी, कालरात्रि, दुर्गा आदि की सिद्धि होती है। जैसे कोई सेवक प्रत्यक्ष शरीर से किसी के यहाँ नौकर रहता है और मालिक की आज्ञानुसार काम करता है वैसे ही यह शक्तियाँ अप्रत्यक्ष शरीर से उस तंत्र-सिद्ध पुरुष के वश में होकर सदा उसके समीप उपस्थित रहती है और जो आज्ञा दी जाती है उसको वे अपनी सामर्थ्यानुसार पूरा करती हैं। इस रीति से कई बार ऐसे-ऐसे अद्भुत काम किये जाते हैं कि उनके कारण आश्चर्य से दंग होना पड़ता है।
होता यह है कि अदृश्य लोक में कुछ ‘चेतना ग्रन्थियाँ’ सदा विचरण करती रहती हैं। ताँत्रिक साधना विधानों के द्वारा अपने योग्य ग्रन्थियों को पकड़कर उनमें प्राण डाला जाता है। जब वह प्राणधान हो जाती हैं तब उसका सीधा आक्रमण साधक पर होता है, यदि साधक अपनी आत्मिक बलिष्ठता द्वारा उस आक्रमण को सह गया, उससे परास्त न हुआ तो प्रतिद्दत होकर वह ग्रन्थि उसके वशवर्ती हो जाती है और चौबीस घंटे के साथी आज्ञाकारी सेवक की तरह काम करती है। ऐसी साधनाएं बड़ी खतरे से भरी हुई होती हैं। निर्जन, श्मशान आदि भयंकर प्रदेशों में ऐसी रोमाँचकारी विधि-व्यवस्था का प्रयोग करना पड़ता है जिससे साधारण मनुष्य का कलेजा दहल जाता है। उस समय में ऐसे-ऐसे घोर अनुभव होते हैं जिनमें डर जाने पर बीमार पड़ जाने, पागल हो जाने या मृत्यु के मुख में चले जाने की आशंका रहती है। ऐसी साधनाएं हर कोई नहीं कर सकता। कोई कर ले तो सिद्धि मिलने पर उन अदृश्य शक्तियों को साथ रखने की जो कष्टसाध्य शर्तें होती हैं उनका पालन नहीं कर सकता। यही कारण है कि इस मार्ग में चलने का कोई विरले ही साहस करते हैं, जो साहस करते हैं उनमें से कोई विरले ही सफल होते हैं, जो सफल होते हैं उनमें से कोई विरले ही अन्तकाल तक उनसे समुचित लाभ उठा पाते हैं।
यहाँ तन्त्र साधना की किन्हीं विधियों को बताने का हमारा कोई इरादा नहीं है क्योंकि उन गुप्त रहस्यों को जनसाधारण के लिए अनधिकारियों के लिए प्रकाशित कर देने का अर्थ है- बालकों ने क्रीड़ा-स्थल में बारूद बिखेर देना, जिसमें वे बेचारे क्रीड़ा कौतुक करने के उपलक्ष में सर्वनाश का उपहार प्राप्त करें। यह परम्परा तो अधिकार और अधिकारी के आधार पर एक-दूसरे को सिखाने की रही है। हमें स्वयं इस मार्ग पर प्राण घातक खतरों में होकर गुजरने का कड़वा अनुभव है, फिर भोले-भाले पाठकों को कोई खतरा उपस्थित कर देने के लिए उस शिक्षण-विधि को लिख मारने की भूल हम कैसे कर सकते हैं? इन पंक्तियों में तो हमारा इरादा केवल यह बताने का है कि प्रकृति की परमाणुमयी सावित्री शक्ति पर भी आत्मिक विद्युत शक्ति द्वारा भूतकाल में अधिकार प्राप्त किया जा चुका है और आगे भी प्राप्त किया जा सकता है।
यह ठीक है कि आज ऐसे व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ते जो प्रत्यक्ष रूप से यह प्रमाण दे सकें कि किस प्रकार अमुक यन्त्र का काम, अन्दर की बिजली से हो सकता है। यह विद्या जगत दो हजार वर्षों से धीरे-धीरे लुप्त होती चली आई है और अब तो ऐसे उस विद्या के ज्ञाता, ढूंढ़े नहीं मिलते, वैसे तो वैज्ञानिक यन्त्रों के अनेक आविष्कारों के कारण उनकी उतनी आवश्यकता आज नहीं रही है फिर भी उस महाविद्या का प्रकाश तो जारी रहना ही चाहिए। वह आज के ताँत्रिकों का कर्तव्य है कि इस लुप्त प्रायः सावित्री विद्या को अथक परिश्रम द्वारा पुनर्जीवित करके भारतीय विज्ञान की महत्ता संसार के सामने प्रतिष्ठित करें। आज के ताँत्रिक जितना कर लेते हैं यद्यपि वह भी कम महत्वपूर्ण और कम आश्चर्यजनक नहीं है। फिर भी इस मार्ग के पथिकों को तब तक चैन नहीं लेना चाहिए जब तक कि परमाणु प्रकृति पर आत्म शक्ति द्वारा अधिकार करने के विज्ञान में पूर्वकाल जैसी सफलता प्राप्त न हो जाए।
वर्तमान काल में तन्त्र का जितना अंश प्रचलित, ज्ञात एवं क्रियान्वित है उसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। मनुष्यों पर अदृश्य प्रकार से भला या बुरा प्रभाव डालना आज के तंत्र विज्ञान की मर्यादा है। वस्तुओं का रूपांतर, परिवर्तन, प्रकटीकरण, लोप एवं विशेष जाति के परिमाणुओं का एकीकरण करके उनके शक्तिशाली प्रयोग की माँग आज लुप्तप्राय है। चैतन्य ग्रन्थियों का जागरण और उनकी वशीवर्ती बनाकर आज्ञा पालन कराने में विक्रमादित्य के समान सफल साधक तो आज नहीं हैं पर किन्हीं अंशों में इस विद्या का अस्तित्व मौजूद अवश्य है।
तन्त्र शास्त्र में अनेक मंत्र है। पर उन सब मन्त्रों का कार्य गायत्री से भी हो सकता है। गायत्री की, संकल्प सृष्टि की, साधना भविष्य में सविस्तार कभी लिखेंगे क्योंकि वह सर्वहितकारी, सर्वसुलभ और सर्व मंगलमय है। परमाणुपथी तन्त्र प्रधान, वाममार्गी सावित्री विद्या का विषय गोपनीय है। उसका परिचय मात्र इन पंक्तियों में करा दिया है। इस संबंध की गुप्त बातों पर अधिक प्रकाश डालना और तत्संबंधी साधनाएं प्रकाशित करना जनसाधारण के हित में अनुपयुक्त है, इसलिए इस लेख को अधिक न बढ़ाकर यहीं समाप्त किया जाता है।