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Magazine - Year 1950 - Version 2

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First 8 10 Last
(प्रोफेसर रामचरण महेन्द्र, एम.ए.)

आपका जीवन किधर जा रहा है?

मानवी जगत् में आकर आपने क्या किया है? क्या कोई ऐसा कार्य किया है जिससे आपको मनः शान्ति का चरम सुख प्राप्त हो? क्या आपकी मनोवृत्ति सात्विक वस्तुओं पर एकाग्र होती है, या वह अब भी निंद्य एवं वासनामय पदार्थों की ओर मारी-मारी फिरती है? संसार में जिन दो स्थानों पर रह कर आपको आत्म विकास करना पड़ा, उन स्थानों पर रह कर क्या आपने कुशलता और चातुर्य का परिचय दिया है? क्या आप उस परिपक्वता में आ गये हैं कि आपकी राय दूसरे लेते हैं? निर्णय करते समय क्या भावावेश, या जल्दबाजी में आ जाते हैं, या ‘करूं या न करूं’ की स्थिति में पड़े रहते हैं? जीवन में क्या आपके कोई निश्चित या अनिश्चित उद्देश्य हैं? उस तक पहुँचने के लिए क्या आपने कुछ प्रयत्न किया है?

एक संतुलित और विवेकशील व्यक्ति के मन में इस प्रकार के अनेक प्रश्न आते हैं। वासना या क्षणिक आवेश से मुक्त होकर जब वह जीवन की जटिलताओं पर विचार करता है, तो उसे ज्ञान होता है कि वास्तव में अभी उसमें कुछ नहीं किया है। यों ही निरुद्देश्य जीवन-यात्रा चली जा रही है।

यह अनिश्चित प्रवृत्ति मानव की सबसे बड़ी निर्बलता है। मनुष्य अपने आपको बड़ा बुद्धिमान समझता है किन्तु वास्तव में उसके जीवन का 50 प्रतिशत जीवन यों ही आलस्य और बेकारी में नष्ट होता है।

जीवन में विकास कीजिए -

आपका शरीर प्रतिदिन विकसित हो रहा है। प्रत्येक दिन शरीर में नए रक्त, मज्जा, तन्तुओं का विकास हो रहा है पर खेद है कि शारीरिक अनुपात में मानसिक और आध्यात्मिक विकास नहीं हो रहा। आपका शरीर बड़ा होता जा रहा है किन्तु मन बच्चों जैसा अविकसित ही पड़ा है। उसमें उन तत्वों का विकास नहीं हुआ, जिनसे मनुष्य पूर्णता प्राप्त करता है।

मन विकसित हुआ या नहीं, यह जानने के लिए निम्न प्रश्नों का उत्तर दीजिए-

1. क्या आप आत्मनिर्भर हैं, या हीनता के भाव को, लोगों से बात करते या व्यवहार करते हुए अनुभव करते हैं?

2. मन की शान्ति या उत्साह के लिए आप दूसरों के विचारों और मन्तव्यों पर कहाँ तक निर्भर रहते हैं? दूसरों के कुत्सित संकेत क्या आपको पस्त हिम्मत कर देते हैं या आप बिना उनकी परवाह किए अविचल भाव से अपने कर्तव्य-पथ या निर्दिष्ट मार्ग पर आरुढ़ हैं?

3. क्या आप मिथ्या घमंड, अहंकार या दूसरों की तारीफ के आदी बन गये हैं? बच्चे प्रायः जरा सी तारीफ से प्रसन्न हो उठते हैं, तनिक सी कठोर बात से विक्षुब्ध हो उठते हैं। क्या आप भी अपने को इसी श्रेणी में रक्खे हुए है? क्या दूसरों की झूठी तारीफ का जादू आप पर चलता है? यदि चलता है तो आप अभी अविकसित ही हैं।

4. क्या आप अपनी पोशाक की बहुत देखभाल रखते हैं? बाहर से शृंगार बनाकर अंदर का खोखलापन छिपाना चाहते हैं? क्या आपको आभूषणों, फेस पाउडर, रोज हजामत, टीप-टाप का शौक अभी तक बना हुआ है? क्या आप बच्चों की तरह अब भी चटकीले, रंग बिरंगे वस्त्र पहनने के आदी हैं?

5. जिह्वा के स्वाद में, स्वादिष्ट मिष्ठान्न और मेवे पकवान चाट पकौड़ी बीड़ी पान क्या इनमें आपको रुचि है? यदि हाँ, तो आप अभी रुचि में परिष्कार नहीं हुआ है। परिपक्वता और विकास इस दिशा में नहीं हुए हैं।

ऊपर लिखे हुए प्रश्नों पर विचार कीजिए। इनसे आपको अपने रुचि परिष्कार एवं विकास का कुछ ज्ञान होगा।

आत्मविकास के कुछ उपाय :-

यदि आप आत्मनिर्भर हैं, तो स्मरण रखिए आपने ऐसी सम्पदा प्राप्त कर ली है, जो सम्पद् में, विपद् और आनन्द के क्षणों में आपको सदैव ऊँचा उठायेगी। बस, आपको आवश्यक यह है कि प्रतिदिन कुछ नवीन, कुछ उपयोगी ज्ञान की अभिवृद्धि करते रहें, ज्ञान के कोष को बढ़ाते रहें, आगे बढ़ते रहें।

यदि आप आत्म प्रताड़ना करते हैं, अपने विषय में हीनभाव रखते हैं, तो आप भावनाओं की बीमारी से त्रस्त है। यह बीमारी आपको आपकी महत्ता का अनुभव नहीं होने देती। इससे मुक्ति का उपाय यह है कि आप कार्यों को बिना भावना की परवाह किए सम्पन्न करते जाइए। यह नियम बना लीजिए कि अपने किए हुए किसी भी कार्य की बुराई न करेंगे, अपने विषय में उच्च और पवित्र धारणाएँ बना लीजिए और उन्हें पुष्ट करते रहिए। कार्य करने से आप की हीनता लुप्त होगी। अधिक सोचने से वह पुष्ट होती है। सोचिए कम कार्य अधिक कीजिए । जो व्यक्ति अपनी अधिक टीका-टिप्पणी करता है, और गलतियाँ निकाला करता है, वह आपका विकास एवं परिष्कार रोक लेता है।

आप अपने संतोष और उत्साह के लिए दूसरों पर निर्भर मत रहिए। दूसरों का अनुकरण कीजिए। ऐसा करने से आपकी मौलिकता, गुण और विशेषताएं सभी प्रकट न होंगी। स्वयं सोचिए कि क्या उत्तम है? वही कीजिए चाहे कोई कुछ भी कहे। आपकी विशेषताएं प्रकाश में आयेंगी और लोग चमत्कृत होंगे।

यदि आप घमंडी, अहंभाव से भरे हुए, दूसरों से प्रशंसा चाहने वाले या क्रोधी हैं, तो उसका अभिप्राय यह है कि आप अंदर ही अंदर अपनी हीनता से डरते हैं। हीनता की प्रतिक्रिया आपके मानसिक जगत् में ही हो रही है।

अपनी वेशभूषा और शृंगार की अधिक देख-रेख करने वाला व्यक्ति बाहरी टीपटाप में विकास और गंभीरता की कमी छिपाता है। वास्तविक परिपक्वता आन्तरिक एवं बौद्धिक है। जो व्यक्ति सही अर्थों में विकसित हुआ है, उसकी पोशाक साधारण होती है, वह गहरे रंग नहीं पसंद करता, आभूषणों से घृणा करता है, सरल सीधा स्वच्छ और भले मानुषों जैसा पोशाक पहनता है।

यदि आप अपने प्रति ईमानदार हैं, तो न तो आप अपनी अच्छाई छिपायेंगे, न झूठा शेखी बघारेंगे। आप समझेंगे कि मनुष्य होने के नाते आपकी भी दूसरों की तरह कुछ कमजोरियाँ हैं। आप अपने को दूसरों से यदि अच्छा नहीं समझेंगे, तो बुरा भी न मानेंगे। आप अपनी विशेषताएं प्रकट करेंगे। प्रत्येक व्यक्ति अपनी विशेषताएं रखता है। यदि व्यक्तित्व का ठीक तरह अध्ययन किया जाय, तो आप भी महान बन सकते हैं।

यदि आप झूठे दिखावे को पसन्द नहीं करते हैं, इसका अभिप्राय यह है कि आप अपने मन में आत्मा की आवाज के अनुसार सत्य का अन्वेषण कर रहे हैं। आप उन्नति की ओर उठ रहे हैं।

यदि आप सच्चे हैं, तो आप अपने या दूसरे किसी के विषय में भी बढ़ा-चढ़ा कर मिथ्या भाषण करेंगे। आपके कार्य कुशलता लिए हुए होंगे और आप दूसरों को दिखाकर व्यर्थ का उपहास न करेंगे। यदि आज अपने प्रति सच्चे नहीं हैं, तो आप स्वार्थ की रीतियों से दूसरों को धोखा देने का प्रयत्न करेंगे। जैसे आप वास्तव में नहीं हैं, वैसा दिखाकर आप अपनी महत्ता कम कर रहे हैं। यदि आप जैसे आप हैं, वैसे ही दूसरों को दिखाते हैं, तो आपका व्यक्ति अपने स्वाभाविक रूप में विकसित होता रहेगा।

जब तक मनुष्य अपने मानसिक जगत् में परिपक्वता प्राप्त नहीं करता, छोटी-मोटी बातों में फंसा रहता है, अपनी भावनाओं पर संयम नहीं रख पाता तब तक वह बच्चा ही बना हुआ है।

मानसिक दृष्टिकोण से बालक न बनिए। संसार की विभीषिकाओं, आपत्तियों और संघर्ष को सहन करने की आत्मशक्ति का निरन्तर विकास करते रहिए।

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