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Magazine - Year 1952 - Version 2

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प्राणायाम का आध्यात्मिक आधार

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(श्री पं. केशव देव शर्मा)

मानव प्राणी के मेरु दण्ड (रीढ़ की हड्डी) के भीतर ‘ईड़ा’ और ‘पिंगला’ नामक स्नायुजन्य शक्ति और मेरु दण्ड की मज्जा में ‘सुषुम्ना’ नाम की एक सुप्त नाड़ी रहती है। इस सुन्य नाड़ी के सबसे निचले भाग में “कुण्डलिनी” शक्ति का आधारभूत पद्म अवस्थित है। योगियों का कहना है कि यह पद्म त्रिकोणाकार है। जब वह पद्म जागृत हो जाती है, तब उस सुप्त पोली नाली के भीतर जोर से ऊपर उठाने की चेष्टा करती है। जितनी ही कुण्डलिनी ऊपर को उठती है, उतना ही हमारा मन विकसित होता जाता है। उस समय अलौकिक दृश्य दिखलाई पड़ने लगते हैं और साधक को नाना प्रकार की अद्भुत क्षमताएँ प्राप्त होती हैं। जब यह कुण्डलिनी शक्ति मस्तिष्क में पहुँच जाती है, तब साधक सम्पूर्ण रूप से अपने शरीर एवं मन से पृथक हो जाता है, तब आत्मा मुक्त भाव को अनुभव करने लगता है। सुषुम्ना के बायें भाग में ईड़ा नाम की नाड़ी और दाहिने भाग में पिंगला नाम की नाड़ी रहती है और जो एक पोली नाली इस मेरु मज्जा के ठीक बीचो−बीच निकलती है, वही सुषुम्ना नाम की नाड़ी है। नीचे की तरफ से इस नाड़ी का मुँह बन्द रहता है। कटिदेश में स्थित स्नायु जाल के निकट तक ही यह नाड़ी रहती है। आजकल के शारीरिक शास्त्र के मत में यह स्थान त्रिकोणाकार है। इन नाड़ी समूहों का केन्द्र मज्जा में रहता है। इन्हीं केन्द्रों को सन्ध्या के मत में भिन्न-भिन्न पद्म (कमलों) के स्वरूपों में माना जा सकता है।

सबसे नीचे मूलाधार से आरम्भ होकर ऊपर मस्तिष्क (सहस्रदल पद्म) चक्र के बीच में कुछ केन्द्र हैं। यदि हम इन चक्रों को भिन्न-भिन्न नाड़ी जाल मानें तो वर्तमान शारीरिक विद्या की सहायता से सहज ही में इसका रहस्य प्रगट हो जाता है। इसकी अन्तर्मुखी को ज्ञानात्मक और बहिर्मुखी को क्रियात्मक कह सकते हैं। इनमें से एक बाहर का ज्ञान ले आता है और दूसरा मस्तिष्क से संवाद लाकर बाहर कार्य कराता है। इन समस्त चक्रों से सबसे निचले भाग में (1)’मूलाधार पद्म’, मूलाधार के ठीक ऊपर स्थित (2)’स्वाधिष्ठान पद्म’ इसके ऊपर नाभिदेश में (3)’मणिपुर पद्म’ इसके ऊपर हृदय देश के समीप (4)’अनाहत पद्म’, इससे कुछ ऊपर कण्ठ देश के समीप (5)’विशुदाख्य पद्म’, दोनों भोओं के मध्य में (6)’आज्ञा पद्म’, तथा उसके कुछ ऊपर मस्तक (7)’सहर्षदल पद्म’, सबसे ऊपर हैं। इनके विषय में ज्ञान रखना आवश्यक होता है।

संसार में विविध प्रकार की गतियों का प्रकाश देखने में आता है। तब यहाँ प्रश्न हो सकता है, कि तड़ित नाम से प्रसिद्ध गति विशेष में और इसमें क्या भेद है? इसको समझने के लिये एक टेबल का उदाहरण सामने रखते हैं। मान लो कि एक मेज कुछ परमाणुओं के सम्मिलन से बनता है, यदि इस मेज के समस्त परमाणुओं को निरन्तर एक तरफ को संचालित किया जाय तो यही विद्युत शक्ति (बिजली) के आकार में परिणत हो जायगा किसी भी पदार्थ के सम्पूर्ण परमाणुओं को एक तरफ प्रवाहित होते रहने को ही “विद्युत” गति कहते हैं। दूसरा उदाहरण—इस घर में जो वायु पुँज वर्तमान है, इसके समग्र परमाणुओं को यदि क्रमशः एक ही संकीर्ण छेद में से प्रवाहित किया जाय तो वह एक महान् विद्युत धारा यन्त्र के आकार में परिणत हो जायगा। इसी तरह यह भाव समझ में आ जायगा कि सुषुम्ना के खुल जाने पा सम्पूर्ण वायु प्रवाह सुषुम्ना द्वारा सहस्रार पद्म में अवस्थित होकर शरीर व मन को निश्चेष्ट कर देता है और आत्मा शरीर से पृथक होकर यत्र-यत्र विचरण करने लगता है।

आधुनिक शारीरिक शास्त्रों की एक बात हमें और समझ लेनी चाहिए, वह यह है कि जो स्नायु केन्द्र श्वास-प्रश्वास की गति को चलाता है, उसका कुछ प्रभाव सारे शरीर में स्नायुओं के ऊपर ही रहता है। इसको ‘अनाहत पद्म’ या यों कहिये कि ‘ॐ कण्ठः’ कहा गया है। यह श्वास-प्रश्वास की गति को चलाता है और जो स्नायु चक्कर शरीर में वर्तमान रहता है, उसके ऊपर भी कुछ थोड़ा बहुत प्रभाव रखता है।

अब हम प्राणायाम साधन का कारण अच्छी तरह समझ सकेंगे। इसको सुगमतया समझने के लिये इस प्रकार की व्याख्या की जा सकती है कि सबसे पहले श्वास-प्रश्वास की गति का एक तरफ होने का उपक्रम हो जायगा।

जब मन विभिन्न दिशाओं में न जाकर एक ओर होकर एक ही दृढ़ इच्छाशक्ति में परिणत हो जाता है, उस समय सम्पूर्ण शक्ति एक तरफ होकर विद्युत के समान गति प्राप्त करता है। साधक की साधना का उद्देश्य इसी इच्छा शक्ति को ही प्राप्त करना है। प्राणायाम विधि की इस प्रकार शारीरिक विद्या की सहायता से व्याख्या की जा सकती है, प्राणायाम द्वारा शरीर में एक प्रकार की गति उत्पन्न की जा सकती है, श्वास-प्रश्वास यन्त्र के ऊपर अत्यधिक विस्तार करके शरीर में वर्तमान चक्रों को भी वश में लाने के लिये सहायता मिलती है।

हम जो कुछ देखते हैं, कल्पना करते हैं, अथवा कोई स्वप्न देखते हैं, सब आकाश तत्व में अनुभव करना होता है। यह दृश्यमान आकाश जो साधारणतया प्रत्येक को दिखलाई देता है, उसका नाम (महाकाश) है। साधक जब दूसरे के मन के भाव को प्रत्यक्ष करता है, तब वह उसको अपने चिदाकाश में पाता है जिस समय हमारा आत्मा सत स्वरूप में प्रकाशित होता है, उस समय उसका नाम ‘चिदाकाश’ दिया जाता है। जिस समय कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाती है और जितने विषयों का ज्ञान होता है, वह सब चिदाकाश से होता है। जब हम अचेत पड़े रहते हैं, उस समय हमारा आत्मा सत स्वरूप में प्रकाशित होता है। जब कुण्डलिनी शक्ति की सीमा मस्तिष्क में पहुँच जाती है उस समय साधक अलौकिक विषय शून्य ज्ञान अनुभव करता है।

हम बाहर से जिस वस्तु को देख या सुन सकते हैं वह सबका सब ही पहले शरीर के भीतर और अन्त में मस्तिष्क में पहुँचता है। इसके अतिरिक्त बाहर से जो क्रियाएं होती हैं, वह सब मस्तिष्क के भीतर से बाहर आती हैं। मेरु मज्जा में स्थित ‘ज्ञानात्मक’ व ‘क्रियात्मक’ यह दोनों तरह के स्नायुगुच्छ योगियों की भाषा में क्रमशः ईड़ा और पिंगला नाड़ी के नाम से कहे जाते हैं। इन दानों तरह की नाड़ियों के भीतर से ऊपर बताये हुये शक्ति प्रवाह का मध्यवर्ती पदार्थ न रहने पर भी मस्तिष्क के चारों तरफ विभिन्न प्रकार के संवाद का भेजना और अनेक स्थानों से संवाद का आना इस मस्तिष्क में ही विभिन्न प्रकार से संवाद पहुँचाने का काम फिर कैसे नहीं हो सकता है? प्रकृति में तो इस प्रकार के दृश्य होते दिखाई देते हैं। इसमें सफल हो जाने पर मनुष्य सबके सब भौतिक बन्धनों से छूट जाता है। पर प्रश्न हो सकता है, कि इसमें सफल होने का उपाय क्या है? उत्तर में दृढ़तया कहा जा सकता है, कि मेरुदण्ड के मध्य में स्थित सुषुम्ना के बीच में से यदि स्नायु प्रवाह चलाया जा सके तो यह समस्त प्रश्न हल हो सकता है। मन की शक्ति से ही यह स्नायु जाल निर्माण किया गया है। इस मन को ही यह जाल छिन्न-भिन्न करके इस नाड़ी की सहायता न लेकर अपना काम करने की शक्ति प्राप्त करनी होगी। बस, जिस समय मन में यह सामर्थ्य आ गई कि उसी समय सम्पूर्ण ज्ञान हमारे अधीन हो जायगा। इसलिये सुषुम्ना नाड़ी को वश में करने की आवश्यकता होती है।

साधारण लोगों का निचला भाग बद्ध रहता है, जिससे उसके द्वारा कुछ भी कार्य नहीं होता है। इस सुषुम्ना का द्वार खोलकर उसके द्वारा स्नायु प्रवाह को चलाना एक निर्दिष्ट प्रणाली है उस प्रणाली में सफल होने पर ही स्नायु प्रवाह इसके भीतर से चल सकता है। उस समय इस केन्द्र से एक तरह की क्रिया होती है, जिसको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। उसमें एक को ज्ञान विरहित गति युक्त केन्द्र और दूसरे को चैतन्यमय केन्द्र कहते हैं। सबका विषय ज्ञान, हमारे ऊपर जो बाहर से आघात करता है, उसका ही प्रतिघात मात्र है। जहाँ पर यह विषयानुभूति संस्कार सृष्टि संचित रहती है, उसको ‘मूलाधार’ कहते हैं। और इस जगह पर जो क्रियाशक्ति संचित रहती है उसको ही ‘कुण्डलिनी’ कहते हैं।

सम्भवतः शरीर के भीतर स्थित सम्पूर्ण गति शक्तियाँ इस कुण्डल के आकार में इसी स्थान पर संचित रहती हैं। क्योंकि बाहरी वस्तुओं के विषय में दीर्घकाल तक विचार करने के अनन्तर यह मूलाधार चक्र उष्ण होते देखा गया है। यदि इस कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करके ज्ञानपूर्वक सुषुम्ना नाली के भीतर एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र तक ले जाया जावे, तो इससे अति तीव्र प्रतिक्रिया उपस्थित हो जाती है। जब कुण्डलिनी शक्ति का एक सामान्य अंश नसों के बीचो−बीच होकर प्रवाहित होता है, उस समय वह ही स्वप्न अथवा कल्पना के नाम से कहा जाता है। परन्तु बहुत काल पूर्ण ध्यान से सञ्चित शक्ति सुषुम्ना मार्ग से भ्रमण करती है। उस समय जो भ्रमण होता है, या परिवर्तन होता है, वह स्वप्न अथवा कल्पना के नाम से, अथवा ऐन्द्रिक ज्ञान की क्रिया से अनन्त गुणा श्रेष्ठ होता है, इनको ही अतीन्द्रिय अनुभव कहते हैं। इसी समय ही साधक को ‘ज्ञानातीत’ व ‘पूर्ण चैतन्य’ अवस्था प्राप्त होती है। जब वह सम्पूर्ण ज्ञान व सम्पूर्ण अनुभूति के केन्द्र स्वरूप मस्तिष्क में पहुँचती हैं उस समय मानों माथे से ही एक महान ज्योति का प्रकाश होता है। इसे प्राणायाम का फल, ज्ञानालोक या आत्मानुभूति कहा गया है।

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