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Magazine - Year 1953 - Version 2

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स्वास्थ्य क्षेत्र में मानवता का यह पतन

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आधुनिक सभ्यता कृत्रिम जीवन को प्रोत्साहन देती है। मनुष्य दैनिक जीवन में प्रकृति के नियमों की अवहेलना करते हैं, जिसके फलस्वरूप आज नाना रोग अभिवृद्धि पर हैं। मनुष्य की औसत आयु निरन्तर न्यून होती जा रही है, स्वास्थ्य, शक्ति, सामर्थ्य नष्ट होते जा रहे हैं और मन सदा चंचल अस्थिर, कामी, लोलुप और चिंतित रहता है।

बढ़ते हुए घृणित रोग-

आज कल जिन रोगों को ठीक रखने के लिए दवाइयों के अधिकाँश विज्ञापन छपते हैं, उनमें मुख्य गर्मी, सुजाक, स्वप्नदोष, स्नायु दौर्बल्य, मूत्र मार्ग सम्बन्धी गुप्त रोग, कार्डी इत्यादि हैं। ये गुप्त रोग समाज की आचार भ्रष्टता, कुसंस्कार एवं जननेन्द्रिय के दुरुपयोग से सम्बन्धित हैं। वेश्यागमन एवं गुप्त व्यभिचार स्त्री से विषयोपभोग तथा गुप्त रूप से जो पापाचार समाज में फैला हुआ है, उसकी तुलना में प्रकट व्यभिचार जैसी कुत्सित मनोवृत्ति समाज के मनोविनोद का एक साधन बन गई है।

एक विद्वान् लिखते हैं- “समाज में कितने ही स्त्री-पुरुषों के आपस में गुप्त रूप से बड़े गन्दे सम्बन्ध हैं। इसका कारण है विकार की अधिकता। उन्हें औचित्य, जात पाँत, सगे रिश्ते, नीच ऊँच आदि का कोई ख्याल नहीं... इसमें प्रायः लोग स्त्रियों को ही दोष देते हैं, परन्तु यह पाप रूपी राक्षस किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। आजकल इसने समाज में जो अनर्थ मचा रखा है, उसे दूर करने का सबसे उत्तम उपाय यह है कि हम उन कमजोर स्थानों को ही दूर कर दें, जहाँ इसे प्रहार करने का मौका मिलता है। हमारे अज्ञान और कुप्रथा के कारण इसके पाँच कारण हैं। (1) सदोषं विवाह पद्धति, बाल विवाह, वृद्ध विवाह बेमेल विवाह, (2) स्त्रियों के वास्तविक गौरव को न मानना, (3) पौरुष की मिथ्या कल्पना, (4) परदा, गरीबी, अन्ध धार्मिकता, (5) हमारी परिस्थिति, जड़वादिता और प्रेरक आदर्श का अभाव।”

उपरोक्त कथन में अक्षरशः सत्यता है। इनके अतिरिक्त सामाजिक गन्दगी का एक मुख्य कारण आज कल के गन्दे कामुकता पूर्ण अश्लील फिल्म, गन्दा साहित्य और उत्तेजक चित्र हैं। इनकी एक बाढ़ देश में आ गई है। आज का जैसा विकारमय वातावरण सहशिक्षा वाले स्कूलों, कालेजों, क्लबों, सोसाइटियों में है, कृत्रिम सन्तति निग्रह के साधनों का इतना प्रचार है कि चारों ओर स्वच्छन्दता, उच्छृंखलता विकार का साम्राज्य फैल गया है, स्त्री-पुरुष तेजहीन, लम्पट और अल्पायु हो रहे हैं, विषपी वातावरण में पले बच्चे आरम्भ से विषयी संस्कार लेकर गुप्त रोगों के शिकार हो रहे हैं। गृह सौख्य नष्ट हो गया है।

बम्बई, कलकत्ता, देहली, कानपुर इत्यादि बड़े नगरों की गली-गली में धूर्त और दिखावटी हकीमों तथा वैद्यों की वृद्धि हो रही है, जो गुप्त रोगों के शिकार स्त्री-पुरुषों को भला चंगा करने, निःस्वत्व को शक्तिवान करने, नपुंसक को वीर्यवान करने के बड़े बड़े आश्वासन देते हैं। बदहजमी, संग्रहणी, प्रमेह क्षय से लेकर शक्ति वृद्धि, अमर यौवन, स्तम्भन, रुकावट, पौरुष हीनता, ल्यूरोकिया, मासिक धर्म-खोल की दवाई देते हैं। अजीब नाम रख कर शक्ति वर्द्धक औषधियों के विज्ञापन किए जाते हैं, जिनमें बल और पौरुष बढ़ाने की, धातु पुष्टकर तथा स्वप्नदोष और जातीय दुर्बलता मिटाने की, खोयी हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने की गारण्टी दी जाती है। गर्भपात कराने की मासिक-खोल की दवाइयाँ सबसे अधिक विज्ञापित की जा रही हैं। किसी को नवाब वाजिदअली शाह का नुस्खा मिल गया है, तो किसी को कोई संन्यासी नुस्खा बता गया है। धातु-पुष्टि, नेत्रों की कमजोरी, प्रमेह, प्रदर, खुजली, फोड़ा फुन्सी, शक्ति वृद्धि के बीसियों लच्छेदार विज्ञापन सबकी नजर से गुजरते हैं। सैंकड़ों हतभाग्य युवक उनके फन्दे में फंसकर अपना रहा सहा यौवन स्वास्थ्य और रुपया नष्ट करते हैं।

ये सब इस बात के प्रमाण हैं कि समाज में मूत्र अवयवों और स्त्री के योनि सम्बन्धी रोग उत्तरोत्तर बढ़े हैं। व्यसन तथा व्यभिचार के फलस्वरूप देश में रोग शोक आदि व्याधि की बढ़ती हुई है। इन पापाचारों को देखकर मानवता के भीषण पतन का अनुमान किया जा सकता है।

हम प्रकृति की अवहेलना कर रहे हैं!

आधुनिक सभ्य जीवन नितान्त अप्राकृतिक है। प्रातः से सायंकाल तक हम न यथा समय खाते पीते हैं, न विश्राम करते हैं। सोने के समय जागृत रहते हैं, जागने के समय सोते रहते हैं। हमारा भोजन चटपटी भुनी हुई कब्ज पैदा करने वाली वस्तुएँ होती हैं। माँस, प्याज, लहसुन, शराब, चाय, बिस्किट, सोडा वाटर, मिर्च-मसाले युक्त अचार चटनियों के बिना हमारा भोजन नहीं होता।

हमारी वेश भूषा ऐसी कृत्रिम फैशन युक्त है कि हमें पर्याप्त प्रकाश, वायु, धूप, कसरत नहीं मिल पाती। हमारी सूती बनियानें बहुत गहरी बनी हुई होती हैं। पैरों को चमड़े के जूतों मोजों से पाश्चात्य ठण्डे देशों की तरह कसे रहते हैं। नंगे पाँवों पैदल चलने के स्थान पर हमें साइकिल, मोटर, रिक्शा का सहारा ढूँढ़ना पड़ता है। सोते समय इतने वस्त्र पहन लेते हैं कि चादर के अन्दर की हवा, शरीर से निकले भाप, और पसीने के संसर्ग में आकर गन्दी हवा निकल नहीं पाती। आज कल के लोग शयन कक्ष के फर्श पर बिछे गलीचों पर सोते हैं। देर तक राम में सिनेमाघरों, क्लबों, सैर सपाटा, नाचघरों में निरत रहते हैं। फलतः हम रोगी, दुःखी अल्पायु हो गये हैं।

श्री बिट्ठल दास मोदी ने सत्य लिखा है-

“भोग्य वस्तुएँ बढ़ीं, तो रोगों की संख्या भी बढ़ी, या यों कहिए कि मनुष्य का स्वास्थ्य गिरा। इसमें सन्देह की गुंजाइश नहीं है... शहर में गया हुआ मजदूर मिल मालिक की तरह अधिक से अधिक धन कमाने की इच्छा करने लगता है। श्रम के और घर से दूर रहने के गम को गलत करने के लिए मादक द्रव्यों का व्यवहार करता है। उसका सारा दृष्टिकोण भौतिक हो जाता है। जरा भी कष्ट होने पर रोगों को अपने पापों का-किए का-फल न समझ कर, दैवी चक्र समझने लगता है और उनसे छुटकारा पाने के लिए उस पीड़ा की कड़ाही में से निकलने के लिए भट्टी में जा गिरता है।”

मनुष्य की जीवन सीमा निरन्तर कम होती जाती है हमारी औसत आयु गिर गई है। आज का शहरी जीवन वासनामय चमक दमक, गन्दी बदबूदार गलियों सड़कों पर लगे हुए कूड़े करकट के ढेर, नालियों में टट्टी बैठते हुए बच्चे, घरों के बाहर इकट्ठे गन्दे पदार्थ, तामसिक भोजन, माँस भक्षण, हमारी दूषित रहन सहन के प्रतीक हैं। शहरों के अंधेरे घने बसे हुए मजदूरों भंगियों, गरीबों के मकान देखिए, जहाँ प्रकाश एवं स्वच्छ वायु का नाम निशान तक नहीं होता। यथासमय इनमें प्लेग हैजा, महामारी, घातक छूत से फैलने वाली बीमारियाँ बृहत् संख्या में गरीबों को यमराज के अतिथि बना रही हैं, आधुनिक सभ्यता की बड़ाई करने वालों की दृष्टि गन्दे प्रकाश-वायु-हीन इन मानवी बिलों और घोंसलों में रहने वाले बन्धुओं की कारुणिक अवस्था पर नहीं जाती। न जान कितने दीन हीन भोजन से मुहताज, मानसिक विद्रूपता, मनोविकार से युक्त निस्सहाय गरीब कंट्रोल का सड़ा हुआ बदबूदार गन्दे कीटाणु युक्त गेहूँ ज्वार चना खाकर बीमार होते हैं और अल्प आयु में मक्खियों की तरह मर जाते हैं।

युद्धों ने मानवता का ह्रास किया है। बल पौरुष से युक्त युवक फौज में भरती कर गोली के शिकार बना दिये जाते हैं। रोगी, भीरु, निर्बल व्यक्ति, जो युद्ध से भयभीत होकर बच रहते हैं, वे ही शक्तिहीन व्यक्ति सन्तान उत्पत्ति के निमित्त अवशेष रह जाते है। कमजोर की सन्तान निर्बल, अल्पायु विकारमय होनी अवश्यम्भावी है। निरन्तर युद्धों में श्रेष्ठ शारीरिक शक्ति वाले व्यक्तियों के मरते मरते आज का मानव निस्तेज और दुर्बल हो गया है। अतः मानव की पूर्ण विकास रुक सा गया है। आज की सभ्यता, जिससे घृणा, लोभ, प्रतिशोध, स्वार्थ आदि दुष्ट मनोविकारों को आश्रय मिलता है, जंगलीपन से भी अधिक घातक है। यहाँ मानव रुपये का दास होकर अल्पकाल ही में ढकेल दिया जाता है। यह अस्वाभाविक और कृत्रिमता से परिपूर्ण है। हम सभ्यता की पोशाक पहिन कर दीन, हीन, रोगी, अपंग, अल्पायु बन गए हैं।

बढ़ती हुई डाक्टरी चिकित्सा-

अंग्रेजी चिकित्सा के प्रति जनता में इतनी आस्था हो गई है कि वे छोटी-2 साधारण बीमारियों पर भी डाक्टरों के यहाँ भागते हैं। चूँकि वे जानते हैं डॉक्टर के पास प्रत्येक रोग की दवाई है, बड़े से बड़े पाप से बाज नहीं आते। डॉक्टर इन्जेक्शन द्वारा प्रत्येक रोग को ठीक करने का ठेका लेते और भोली जनता को लूटते हैं। सर्दी, जुकाम, सरदर्द, जैसी साधारण सी बीमारियों के लिए भी कीमती दवाइयाँ लेते हैं। ऐस्पिरीन का प्रचार वृद्धि पर है। कफ मिक्सचर, फीवर मिक्सचर, कारमिनेटिव मिक्सचर पर लाखों रुपये अदा किये जा रहे हैं। बहुत सी औषधियों में शराब का भी प्रयोग किया जा रहा है।

आधुनिक विलासमय जीवन तथा बीमारियाँ ः-

प्राकृतिक जीवन, भोग विलास नाना बीमारियों का जन्मदाता है। आज के रोग क्या हैं? सर्वप्रथम नेत्र रोगों को लीजिए। रात में जागरण, दौड़ धूप के कारण आज के युवकों में चश्मा एक साधारण सी चीज बन गया है। कुछ व्यक्ति धूप के चश्मे के ऐसे आदी हो गये हैं कि सारे दिन उसी का प्रयोग करते रहते हैं। पेट की बीमारियाँ चैन नहीं लेने देती। शर्करा की अधिकता के कारण मधुमेह, पेचिश, बदहजमी इत्यादि फैल रहे हैं। न्यूरिसथेनिया बुद्धिजीवियों का आम मानसिक रोग बन गया है। पान, सिगरेट, बीड़ी, बर्फ, सोडा, तम्बाकू इत्यादि के कारण पाचन शक्ति कम होती जा रही है। दाँतों के रोग उत्तरोत्तर बढ़ें हैं। कब्ज अमीरों आरामतलबों का रोगी दूर करने के लिए नये नये तरीके निकाले जा रहे हैं जब कि अप्राकृतिक जीवन ज्यों का त्यों चल रहा है। मनुष्य ने जितना अनुसंधान बीमारियों को अच्छा करने का किया है, उसके अप्राकृतिक कृत्रिम जीवन ने उतना ही बढ़ाया है यदि जीवन को सरल सीधा आडम्बर विहीन शान्त बनाया जाय, तो आधी बीमारियों को बखूबी दूर किया जा सकता है।

हरी, वरी, करी-तीन भयानक शत्रु

आधुनिक सभ्यता ने हमें तीन नए रोगों का जन्म दिया है। प्रथम रोग है-”हरी” अर्थात् जल्द बाजी, दूसरा ‘वरी’ अर्थात् चिन्ता है, तृतीय ‘करी’ अर्थात् मिर्च मसालों का शौक। इन तीनों रोगों के कारण आधुनिक जीवन अशान्त और दुखी बन गया है।

आज का सभ्य व्यक्ति सब कुछ काम जल्दी-2 कर डालना चाहता है। खाने, पीने, मनोरंजन, रोजगार, भजन पूजन प्रार्थना, दफ्तर आना जाना-प्रायः हर क्षेत्र में वह जल्द बाजी कर रहा है। बड़े नगरों में सड़कों पर चलते हुए व्यक्तियों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है, मानों सब कहीं लगा हुई आग बुझाने भागे चले जा रहे हों! इस जल्दबाजी में न वे स्वयं अपना मन स्थिर कर पाते हैं, न कुछ स्थाई महत्व की महान् वस्तु का ही निर्माण कर सकते हैं।

दूसरा रोग चिन्ता का है। आज के व्यक्ति की आवश्यकताएँ असंख्य हैं। विलासिता, कामुकता, फैशन, झूठी शान, मिथ्या अभिमान ने अनेक आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक आवश्यकता तथा बढ़ा दी हैं। प्रत्येक आवश्यकता पूर्ण न होने से चिंता की उत्पत्ति करती है। असंख्य चिन्ताओं का बोझ लिये मनु के पुत्र आज पीड़ा दुख कसक और वेदना पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

तीसरा रोग ‘करी’ अर्थात् अधिक मिर्च मसालों से परिपूर्ण स्वादिष्ट भोजनों का गुलाम बनना है। जब तक दस तरह के मसाले भोजन में न हों, खटाई के लिए चटनी, अचार, मुरब्बे इत्यादि न हों, सायं काल चाट पकौड़ी समोसा चाटने के लिए न मिल जाय, तब तक आज का मनुष्य भोजन का आनन्द नहीं ले पाता। वास्तव में देखा जाय तो वह भोजन का आनन्द नहीं लेता, वह तो मिर्च मसालों का मजा लूटना चाहता हैं। जिह्वा के स्वाद के वशीभूत होकर वह खूब ठूँस ठूँस कर अभक्ष पदार्थों का सेवन करता है और बीमार बनता है। वह भोजन खाने के लिए जैसे जीवित रहता हो। जहाँ पशु भी बे भूख भोजन नहीं करते, वहाँ मनु का यह समझदार कहने वाला पुत्र-मनुष्य सारे दिन मुँह चलाया करता है।

अधिक सन्तान की उत्पत्ति तथा हमारे दुःख-

समाज में स्त्री जाति का सुन्दर, स्वस्थ और दीर्घ जीवी होना परमावश्यक है। आज की स्त्रियों की दशा शोचनीय है। उनके शरीर पर पर्याप्त माँस नहीं, शरीर में शक्ति, सौंदर्य, स्वास्थ्य, ओज, उत्साह नहीं है। अधिकाँश भारतीय नारियाँ पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुकरण में शृंगार की बीहड़ता, सौंदर्य के अवाँछित प्रदर्शन बहुत अंशों में विलासिता के रूप में प्रकट कर रही हैं। आलस्य, फैशन, अकर्मण्यता, भोजन में लापरवाही और अधिक सन्तान पैदा करने के कारण स्वास्थ्य और सौंदर्य से वंचित हो रही हैं।

बहु संतान उत्पत्ति हमारा कलंक है। सन्तान उत्पत्ति देश में एक प्रकार का खेल सा बन गया है। छोटे छोटे बच्चों का विवाह करना उनके ढेर के ढेर बच्चे उत्पन्न होना, बालकों की अधिक मृत्यु, नई पीढ़ी की कम होती हुई आयु शक्ति सौंदर्य हमारी मानवता के लिए कलंक है। हमारे भाई अज्ञान वासना, और गन्दगी के वातावरण में रहने के कारण इन्द्रिय संयम नहीं कर पाते, उनके पास उच्च साँस्कृतिक मनोरंजन के साधन नहीं हैं। अतः विलासिता, पत्नी व्यभिचार की ओर प्रवृत्त होते हैं। फलतः देश में सन्तान की अधिकता हो रही है। जन संख्या निरन्तर बढ़ रही है। खाद्य सामग्री उस अनुपात में बढ़ नहीं पा रही है। इसलिए देश में घोर गरीबी, अनैतिकता, भुखमरी, फैलती जा रही है।

बरेटेन्ड रशल के अनुसार देश में जो प्रतिवर्ष लाखों नए प्राणी अनियंत्रित रूप से बढ़ते चले जा रहे हैं, उन्हें रोकना आवश्यक है। जन्म नियंत्रण के बिना केवल बाहर से अनाज मँगा मँगा कर हम खाद्य समस्या का हल नहीं कर सकते। फिलहाल इसमें दुर्बल और स्वस्थ सन्तान उत्पन्न न करने वालों, भिखारियों, बीमारों, प्रमाद ग्रस्त व्यक्तियों को सन्तान पैदा न कर सकने योग्य बना देना भी इस समस्या को हल करने का एक उपाय है लम्बी आयु में विवाह संयम, कृत्रिम उपायों का भी प्रचलन होना चाहिए।

मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी के भूत पूर्व प्रधान मंत्री श्री तुलसीदास सरावगी ने अपनी अपील में उचित ही लिखा है, “रोगियों को मरने से बचाने के लिए, छोटे छोटे शिशुओं को अकाल मृत्यु मुख में जाने से रोकने के लिए, हम हर जगह अस्पताल और क्लीनिक खोलते जा रहे हैं, परन्तु इन सब बुराइयों की जड़- को अभी काटने का हमारे देश में सुसंगठित प्रयत्न नहीं किया गया हमारे सामने देश की जड़ को खोखली करने वाले ऐसे अनेक विषैले पौधे खड़े हैं, जिनको काट डालना देश और समाज की प्रथम सेवा है। संकोच, लज्जा, भय और रूढ़ियों के मायाजाल से निकल कर हमें समाज में से अंधकार को दूर करना है और फैलाना है, उस प्रकाश को, जिसके द्वारा देश सुखी हो, समाज का विकास हो, नर नारी स्वस्थ और निरोग हों, दरिद्रता और बहु सन्तानों का अभिशाप दूर हो।”

अधिक स्वस्थ सबल, बुद्धिमान पीढ़ी के लिए देश से भूख और खाद्य संकट को दूर करने के लिए सुयोजित परिवारों की परम्परा के लिए हमें आबादी की वृद्धि का नियंत्रण करना है।

ताकत की दवाइयों की यह होड़

मनुष्य की ताकत बढ़ाने वाली दवाइयों की एक प्रतियोगिता-सी लगी हुई है। बाजारों की सड़कों के किनारे ताकत की दवाइयाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की छोटी बड़ी जड़ी बूटियाँ, शिलाजीत इत्यादि बेचने वाले बृहत् संख्या में नित्यप्रति देखे जा सकते हैं। इन दवाओं के इतने प्रचार का दूसरा मतलब यह है कि वर्तमान मनुष्य की शक्ति क्षीण हो गई है। उसने अपनी स्वाभाविक प्राकृतिक शक्ति का दुरुपयोग किया है, उचित अनुचित का विवेक हट जाने के कारण वह निरन्तर कमजोर होता जा रहा है। आत्महत्या से मरने वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है, जिसका दूसरा तात्पर्य यह है कि मनुष्य का मस्तिष्क पूर्णतः स्वस्थ नहीं रहा है उसमें कोई-न-कोई रोगात्मक कारण अवश्य विद्यमान रहता है। अस्वस्थ एवं निर्बल शरीर के कारण मस्तिष्क भी अस्वस्थ हो गया है। विकार ग्रस्त मस्तिष्क में वैराग्य विषाद, आत्महत्या इत्यादि ने अपना अड्डा जमा लिया है। यह आधुनिक सभ्य मनुष्य की मनः स्थिति।

आत्महत्या, अकाल मृत्यु, उत्तेजना, शक्तिहीनता का एक कारण यह है कि व्यसनों की निरन्तर वृद्धि हो रही है। शराब, तम्बाकू, चरस, गाँजा, अफीम आदि का प्रचार तथा खपत अधिकता से हो रही है। इस अभागे देश में जब एक एक बूँद दूध को तरसते हैं, वहाँ लोग अपना बहुत धन ताड़ी और दूसरी विदेशी शराबों में व्यय कर देते हैं और साथ ही शरीर और मन की शक्तियों को भी नष्ट करते हैं। शराब की उत्तेजना में व्यभिचार होता है, साथ ही सरदर्द, बदहजमी, रीढ़ की हड्डी का दुखना, धड़कन, बहुमूत्र, नपुँसकता, क्षय और पागलपन की वृद्धि हो रही है। एक ओर गन्दे जीवन से वीर्य पात होता रहे, दूसरी ओर ताकत की दवाइयाँ खाई जाती रहें, तो किस प्रकार लाभ हो सकता है? दवाइयों या इन्जेक्शनों से शक्ति प्राप्ति का उपाय आधुनिक मनुष्य की मृग-मरीचिका मात्र है!

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