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Magazine - Year 1953 - Version 2

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सामाजिक क्षेत्रों में मानवता का ह्रास

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हमारे समाज में मानव का मूल्य निरन्तर गिरता जा रहा है। रुपये, धन, जायदाद, बाह्य प्रदर्शन का स्तर उत्तरोत्तर बढ़ा है। रुपये के लिये मनुष्य की बहुमूल्य वस्तु उसकी इन्सानियत, इज्जत, आत्मप्रतिष्ठा, सेवाएँ सब कुछ बिक रही हैं। नारियों को अपनी अस्मात् सबसे प्यारी होती है किंतु आज हम देखते हैं कि रुपये की कमी के कारण वे अपनी मान प्रतिष्ठा पवित्रता किसी की परवाह नहीं कर रही हैं।

कुछ समय पूर्व दिल्ली के एक पत्र ने लिखा था कि दिल्ली में पाँच हजार के लगभग वेश्याएं हैं और यह संख्या शरणार्थियों के आने से और बढ़ती जा रही है। दिल्ली नारी रक्षा संघ ने पता लगाया है कि इनमें से अधिकाँश ने आर्थिक कारणों से उनके पिता अथवा संरक्षकों ने उन्हें यह घृणित पेशा करने पर बाध्य किया है। कुछ के पिता अथवा संरक्षकों ने कुछ निश्चित समय के लिए रकम लेकर पेशा कराने को ठेके पर दे दिया है। स्त्रियों को बेचने की, उनके द्वारा आत्महत्या, तेल छिड़क कर जल मरने के अनेक समाचार समाज के दुराचार का परिचय दे रहे हैं।

हम देखते हैं सूदखोर साहूकार गरीबों से सूद ले लेकर रक्त चूस कर मोटे बनते जा रहे हैं, वे लोग अपनी आय बढ़ाने की फिक्र में हैं। सरकारी अफसर रिश्वत लेने के नए तरीके सोच रहे हैं। बाजार में खाद्य पदार्थों में मिलावट, घी में वनस्पति का मिश्रण दही में अरबी, दूध में खरिया, अनाज में मिट्टी, आटे में बुरादा मिलाया जा रहा है। दफ्तरों में ऊपर की आमदनी का महत्व बढ़ता जा रहा है। पुलिस विभाग तथा कचहरियों में भ्रष्टाचार, पक्षपात और अनैतिकता खूब फैल रही हैं। समाज का नैतिक स्तर नीचा होता जा रहा है।

यह दुरंगी दुनिया

श्री प्रभाकर माचवे ने ‘गली के मोड़ पर’ नामक लघु नाटक में आज के मानवीय व्यापारों का पर्दाफाश किया है। इस नाटक के तीन पात्र हैं-म्यूनिस्पल लेम्पपोस्ट, दीवार और लेटरबक्स। यदि कहीं इन तीनों को जबान मिल जाती तो वे मानव के सारे कार्य व्यापार पर क्या-क्या टीका टिप्पणी करनी पड़ी इसमें बताया गया है। कुछ अंश देखिए -

“दीवार-यह है दुनिया। आज किसी की राह साफ नहीं। कोई आँख होकर भी अन्धा है, कोई अन्धा होकर भी मन की आँखें खोले देख रहा है। किसी को अपने उद्देश्य तक पहुँचने की जल्दी पड़ी है फिर भी उसे पता नहीं है कि उद्देश्य क्या है? यह दुनिया है, ऐसा ही इसका व्यापार चल रहा है।

दीपक-चारों ओर देखता हूँ-वही बाजार है, वही खरीद फरोख्त है, वही आपाधापी है, वही छीन झपट है। स्वार्थों की लड़ाई है।

लेटर बक्स-कभी कभी ऐसा लगता है कि दो पैरों पर फुर्ती से चलने वाले ये जानवर कितनी बेमतलब हलचल करते हैं। कितने स्वार्थी हैं। कितने ओछे और छोटे दिल वाले हैं। देखो, कोई दुर्घटना हो गई। शायद ताँगा मोटर से टकरा गया या कोई उसके नीचे दब गया। देखो, आदमी भी क्या-क्या फिजूल की आशाएँ लगाए रहता है।

दीवार-ये आज के वाहन सभी खतरनाक होते हैं। आदमी ने अपनी सुविधा के लिए, वेग बढ़ाने के लिए इनका निर्माण किया-और यहाँ देखो तो वह स्वयं ही इसका शिकार बन गया।

दीपक-देखो यह अखबार का रिपोर्टर है। उसने मेरी रोशनी में जल्दी जल्दी कुछ लिखा और इस बम्बे में डाल दिया। बताओ तो भाई लेटर बक्स उसने क्या लिखा है?

लेटर बक्स-क्या लिखा है? वही तिल का ताड़। जरा सी बात को बढ़ा चढ़ा कर कहना। आखिर सारे कालमों को भरने के लिए कुछ न कुछ मैटर तो चाहिए समाचार इतने न हों, तो बनाये जाएं और गढ़े जाएं। पाठकों को कुछ न कुछ चटपटा, मसालेदार, तीखा और खट मीठा रोज सवेरे पढ़ने को चाहिए।

दीपक-आज कल आदमी की रुचि ही कुछ ऐसी विकृत हो गई है कि वह साधारण से सन्तुष्ट नहीं है। वह हर बात में असाधारणता पीछे लगी है। छोटी चीज से वह समाधान नहीं पा सकता। उसे कुछ विशेष और विचित्र चाहिए।

दीवार-पहले तेज भागते हैं, तेजी से दुर्घटनाएँ करते हैं और फिर हुज्जत। संसार भी एक विचित्र खेल हैं।

बना-बना के जा दुनिया मिटाई जाती है। जरूर कोई कमी है कि पाई जाती है॥

दीपक--मेरे प्रकाश में जो अच्छा बुरा हो रहा है, वह मैं बतला रहा हूँ बुरा मत मानना। बुराई वह दीमक है, जो अन्दर ही अन्दर इस समाज को खोखला कर रही है।

लेटरबक्स-परन्तु आदमी को अपनी ईमानदारी पर गर्व है।

दीपक-वही ईमानदारी न? जो केवल कल्पना है। देखो देखो, वह सामने के मकान में एक सूट-बूट डाले बाबू अपनी पत्नी से प्रमाणिक प्रेम के वायदों का अभिनय सा कर रहे हैं। उनका अन्य किसी स्त्री से मिलने का समय और स्थल निश्चित है, परन्तु वह यहाँ ऐसे बहाने अपनी पत्नी के सामने बना रहे हैं मानो उन्हें अपनी जरूरी नौकरी के काम से ही जाना है। और ये दो मित्र हैं। हजरत मिलते हैं, तो बड़ी मीठी-मीठी बातें एक दूसरे से करते हैं मगर पीठ मुड़ते ही एक दूसरे की बुराई करते हैं।

लेटरबक्स-दुनिया दुरंगी है, दीपक राज।

दीपक-दुरंगी? नहीं बहुरंगी भी है। यहाँ बहुत अधिक छूतछात का विचार करने वाले कोई बड़े अपने को धार्मिक समझने वाले सज्जन चोरी से छिप कर उस वेश्या से मिलने जा रहे हैं जिसको छूने में जाति भेद आड़े आता है, और अपनी दुकान में सब देवताओं को तस्वीरें और मोटे मोटे सिंदूरी अक्षरों में राम नाम लिखने वाला यह अपढ़ ग्रामीण को कर्जा देकर अपनी तबियत से रुका बनाकर चाहे जो सूद उसमें चढ़ाकर, उस पर गँवार का अँगूठा ले रहे हैं। इस समाज में आदमी आदमी का उपकार कर रहा है, अत्याचार भी कर रहा है। कभी कभी दोनों साथ साथ भी कर रहा है।

दीवाल-बाजार और सच्चाई साथ साथ नहीं चलती।

दीपक-और आज की मानवी सभ्यता बाजारू सभ्यता है। एक ओर आदमी को रहने के लिए मकान नहीं है, सड़क के किनारे गन्दी नालियों के पास बेघर सोते हैं, परन्तु कीमती साड़ियों या जूतों को सजाकर शोकेसों में रखने के लिए काँच के कमरे बने हुए हैं। यहाँ कई आदमियों के बच्चे दूध के बिना तड़प जाते हैं। हसरत भरी निगाहों से यह भिखारिन की बच्ची उस दूध की ओर देख रही है, जबकि रायबहादुर के घर का नौकर उनकी पाली हुई बिल्ली के लिए आध सेर दूध खरीदने आया है, क्योंकि रोज का दूध उस बिल्ली ने ढुलका दिया था।”

उपरोक्त वार्तालाप में हमें आज के समाज की दयनीय झाँकी मिल जाती है। हमारा समाज कैसा खोखला, मिथ्या प्रदर्शन और झूठे दिखावे से परिपूर्ण हो गया है। हम सारे दिन गली गली में प्रेम के गीत सुनते हैं, लेकिन यह वह दुनिया है जहाँ प्रेम वास्तविक जीवन में न होकर सिनेमा के पर्दे पर है। यहाँ आदर्श फिल्मों में दिखाया जाता है जबकि दैनिक जीवन में वह विलुप्त प्रायः हो गया है, यह वह समाज है, जिसमें पारस्परिक सद्भाव, सहानुभूति, भ्रातृभाव, प्रेम, सेवा, सहायता विनष्ट होकर उनके स्थान स्वार्थ प्रविष्ट हो गया है। सबको अपनी अपनी पड़ी है। प्रत्यक्ष जीवन में यहाँ आदमी आदमी की सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ने का प्रयत्न कर रहा है। जिस प्रकार ऊपर चढ़कर सीढ़ी को ठोकर जमा दी जाती है, वही हालत हमारे नेताओं पथ प्रदर्शकों, लीडरों की बन गई है। जनता का दुख दर्द उन्हें परवाह नहीं। जिधर देखिए, उधर लोग जेब को खनखना रहे हैं। रुपयों का गर्व उन्हें सत असत् का विवेक नहीं करने देता। जीवन-मान गिरता जा रहा है। कोई मान अपमान जीवन में नहीं बचा है। आदमी आदमी के संबंध आज मानवता की पवित्र रज्जु से आबद्ध नहीं हैं, वे नगद उधार के हैं। कुछ न कुछ उन्हें निरन्तर बेचैन विक्षुब्ध किये हुए है।

जीवन की यह कृत्रिमता।

आज का जीवन दिखावे से भर गया है। बात चीत में दिखावा, पोशाक में दिखावा, संध्या-पूजा धर्म कर्म में दिखावा। हम कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। सामने एक व्यक्ति की प्रशंसा के पुल बाँध देते हैं, पीठ पीछे उसकी चुगली करते हैं। बेमतलब झूठी शान में न जाने क्या क्या बकते फिरते हैं! हमारा समग्र जीवन रंगमंच पर अभिनय की तरह कृत्रिम है।

श्री अनन्त गोपाल शेवड़े ने उचित ही लिखा है, “जीवन की सहजता और स्वाभाविकता मानो लोप हो गई है, और उसके स्थान पर आ गई है, घोर कृत्रिमता। अन्दर एक बात है, बाहर दूसरी। खरी बात सुनने का दम सब भरते हैं, पर सुनाता कोई नहीं, क्योंकि इसका फल जो भोगना पड़ता है, उसकी तैयारी नहीं होती। इसलिये सारे समाज में एक विचित्र परिस्थिति पैदा हो गई है। राजनैतिक जीवन में, साहित्य, समाज क्षेत्र हर जगह यही कृत्रिमता दिखाई देती है। शिष्टाचार के नाम पर असत्य और अतिरंजित बातों को प्रश्रय दिया जाता है। नकली और कृत्रिम मूल्यों का महत्व बढ़ गया है। एक प्रकार की कृत्रिम, छिछोड़ जीवन प्रणाली समाज में घर करती जा रही है। बाहरी दिखावे का प्रलोभन ज्यादा है, आन्तरिक तथ्य कम है। कल कुछ भी हो, आज तो वाहवाही में कोई कमी नहीं पड़नी चाहिये। यह वाहवाही लूटने की हविस, कृत्रिम और नकली साधनों से सुख पाने की वृत्ति हमारे सब दुःखों का कारण है। यह यथार्थ में मृग जल है। उसके पीछे कितना ही भागो, उसमें तृप्ति नहीं, पानी का नाम नहीं।”

हमें बाहरी लिफाफे का विशेष ध्यान रहता है। ऊपर से हम चिकने चुपड़े सभ्यता का आवरण पहन कर अपनी आन्तरिक कुरूपता, स्वार्थ, तृष्णा, द्रव्य लोभ, रिश्वतखोरी को ढक लेना चाहते हैं। हम झूँठा दिखावा करना सीख गये हैं। दूसरों को धोखा देते देते हम स्वयं अपने को धोखा दे बैठे हैं।

फैशन की यह गुलामी!

लाला किशनदास हमारे मुहल्ले के साधारण से पन्सारी हैं। उनकी दुकान भानवती का पिटारा समझिये। योंही एक दिन फैशन पर बात चल पड़ी, वे बोले-”प्रोफेसर साहब! फैशन की कुछ न पूछिये। दो एक दिन की बात है। एक महत रानी मेरी दुकान पर आई और मुझसे गालों की सुर्खी तथा लिपिस्टिक माँगी। लिपिस्टिक महंगी चीज है। दो आने मेरे सामने रखकर दोनों चीजों के लिये मिन्नतें करने लगी। उसे खूबसूरती बढ़ाने का भूत सवार था। दो आने में पाउडर और लिपिस्टिक कहाँ से आये? मुझे एक युक्ति सूझ गई। कुछ खरिया मामूली खुशबू डालकर पिस वाली है और दवात में डालने की लाल स्याही की टिकिया रखली हैं। बस दो आने में दोनों चीजें देता हूँ। मैं देख रहा हूँ मेहतरानियों में फैशन का रोग निरन्तर फैलता जा रहा है।”

इस कथन में गहरी सत्यता है। आज की नारियाँ फैशन की पुतलियाँ बन रही हैं। कृत्रिम सौंदर्य वृद्धि के जितने प्रसाधन आज देखने में आ रहे हैं, उतने कभी नहीं देखे गये। कहते हैं अकेली मसूरी में तीन मन पाउडर प्रति दिन व्यय होता है। कालेज स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले लड़के लड़कियों में फैशन बुरी तरह फैलते चले जा रहे हैं। बढ़िया सूट, रेशम, सिल्क या चटकीले वस्त्रों, धूप चश्मों, पालिशदार जूते, गले में बंधे हुए रुमाल, टोप, सिगरेट, पान इत्यादि का प्रचार उत्तरोत्तर बढ़ रहे है। गरीब का पुत्र-पुत्री भी अधिक व्यय करने में गर्व का अनुभव करते हैं। कैंटीन या मिठाई वालों के बिल चढ़ रहे हैं, फिर भी हमारे विद्यार्थियों का मिथ्या प्रसाद दूर नहीं होता?

फैशन समाज का गन्दा रोग है। सभ्यता के नाम पर हम फैशन और उच्छृंखलता सीखते जा रहे हैं। बालों की सजावट में वेश्याओं से छोड़ लेते हैं अनावश्यक, असुविधाजनक, बेढंगी, खर्चीली यूरोपीय फैशन की, नए-नए तर्ज की पोशाकें पहनने में आगे बढ़ते जा रहे हैं। बड़े के प्रति आदरभाव दूर हो रहा है। चाय और सिगरेट हमारे नित्य के साथी बन गये हैं। चश्मा सदा हमारे नेत्रों पर डटा रहता है। ऐसी शिक्षा और सभ्यता से क्या लाभ?

आज का यह चंचल वैभव

सामाजिक जीवन में, हम जैसा अपने पड़ौसी को करते हुए देखते हैं, स्वयं भी वैसा ही करने का प्रयत्न करते हैं। चाहे अन्दर से हम कैसे ही काले कलूटे खोखले दीन हीन क्यों न हों, बाहर से ऐसा प्रदर्शन करते हैं, कि सब प्रकार से संपन्न हैं। चाहे हमारे पास केवल दो चार वस्त्र ही हों, हम उन्हीं को पहिन कर अपना बाहरी लिफाफा शानदार रखना चाहते हैं। दैनिक जीवन में हमें सोफा सेट भी चाहिये, मेज कुर्सी और बिजली की रोशनी, कालीन और धूप का चश्मा। चाहे धूप हो या न हो, चाहे गर्मी हो या सर्दी, चाहे हम बाहर फिरें, चाहे कमरे के अन्दर हों, धूप का चश्मा हमारी नाक पर चढ़ा रहता है और हमारे कान पकड़े रहता है। घर में चाहे तन ढकने के लिये वस्त्र न हों, किन्तु खिड़कियों के लिये हमें एक खास रंग के पर्दे अवश्य चाहियें। यदि हम अपना फर्नीचर नहीं खरीद सकते, तो बजाय साधारण वस्तुओं से काम निकालने के हम किराये का फर्नीचर जरूर ले डालेंगे।

इस संबंध में मुझे अपने मुहल्ले में रहने वाले मेजर साहब का ध्यान आता है जिन्हें आठ सौ रुपये मासिक वेतन मिलता था, किन्तु जो इतने वेतन को बाहरी लिफाफा बनाये रखने में व्यय करते रहे। तीन चार नौकर भी चल रहे हैं, तीन चार सब्जियां, दो टाइम नाश्ते, मित्रों की दावतें, हर दूसरे दिन सकुटुँब सिनेमा शो, चाय सोडा बर्फ इत्यादि चलते रहे। बिना मोटर के धरती पर पग न गया। फलतः जब आपका तबादला हुआ, तो मकान के किराये की अदायगी के लिये पत्नी के आभूषण बेचने पड़े, बाजार की उधार देने में मोटर बेचनी पड़ी। असलियत प्रकट हो कर रही।

हम मिथ्या अभिनय कर रहे हैं।

आज का युग अभिनय का है। सिनेमा के पर्दे पर एक साधारण व्यक्ति राजा या मंत्री का अभिनय कर एक मिथ्या प्रभाव उत्पन्न करता है, गन्दे बदबूदार कपड़े पहिनने वाले दीन हीन मजदूर जैसे ऊपर से चटकीले रेशमी वस्त्र धारण कर शान दिखाते फिरते हैं, कुछ वैसा ही अभिनय हम मध्य श्रेणी के व्यक्ति कर रहे हैं। नये नये फैशनों की भरमार है। एक किस्म का कपड़ा एक व्यक्ति पहनता है, तो दूसरा भी वैसा ही कपड़ा, वैसी ही कटिंग, रंग इत्यादि पसन्द करता है। आवारा कपड़ा यत्र तत्र विद्यार्थियों का प्रिय बन गया है। जो निरक्षर भट्टाचार्य हैं, पढ़ाई लिखाई से दूर रहते हैं, पैन्ट पहिनते हैं और धूप चश्मा लगाकर सिनेमा के अभिनेताओं की भाँति झूमते हुए निकलते हैं। हेयर कटिंग, मूँछ कटिंग, नाखून कटिंग, की भिन्न भिन्न शैलियाँ प्रचलित हो रही हैं। जो गाँधी जी के सत्य, अहिंसा, प्रेम, कर्तव्य निष्ठा को नहीं समझते, सारे दिन झूठ काला बाजार रिश्वत, घूँस में संलग्न रहते हैं, वे ही पूँजीपति व्यापारी, शराब के ठेकेदार, बीड़ी बनाने वाले गाँधी जी की मूर्ति अपनी शेल्फ या दुकान पर सज्जित कर जनता की आँखों की मिट्टी डालते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में कृत्रिमता का भण्डार हो रहा है। कुँजियों के द्वारा सहज ही में परीक्षायें पास करने की दुष्प्रवृत्ति विद्यार्थियों में चल रही है। जो दो चार जगह भाषण दे लेता है, वह अपने आपको समाज सुधारक विद्वान भाषण कर्ता कहता है, दो चार छोटी छोटी पुस्तकें लिखकर महा लेखक का प्रोपेगेन्डा किया जाता है। दो चार तुकबांदियां कर लेने वाले अपने आपको कवि शिरोमणि कहलाना पसन्द करते हैं, साधारण दौड़ धूप करने वाले नेता गिरी का दम भरते हैं। हजारों रुपये नष्ट कर सच्चा झूठा विज्ञापन कर अनैतिक उपायों से वोट प्राप्त कर म्युनिस्पैलिटी की मेम्बरी प्राप्त की जाती है और सार्वजनिक सेवा के स्थान पर शून्य दिखा दिया जाता है। मेम्बर साहब के पास जब गरीब व्यक्ति माँगें पेश करते हैं, तो उन्हें फरियाद सुनने का अवकाश नहीं होता। जो उन्हें रिश्वत दे दे, घर के चार कार्य मुक्त कर दे, दस बार मुक्त कर सलाम झुकाता रहे, उसका कार्य अनायास ही हो जाता है, शेष दीर्घकाल तक प्रतीक्षा ही देखते रहते हैं।

शादी विवाह, जनेऊ, सालगिरह, दावतें, टी पार्टियों में बाहरी दिखावे का क्रम निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। दहेज आज भी आकर्षक ढंग से लिया जाता है। बाजे, आतिशबाजी, पंगत पार्टी, बैण्ड बाजे, शराब, इत्रों की भरमार, वाहवाही लूटने की सस्ती भावना, कर्ज लेना, ऊपर से बने ठने रहना समाज में यह प्रतियोगिता लगातार उग्र रूप में चल रही है। भौतिक सुख श्रृंगार की वस्तुएं, मोटर बंगला रेडियो, इत्यादि की होड़ लगी है। मनुष्य को अपनी आदमियत, अपनी इन्सानियत-प्रेम, उदारता, सत्य इन्द्रिय निग्रह, सहृदयता, दयालुता, निर्लोभ, तेजस्विता, आत्मचिन्तन आदि दैवी सम्पदाओं की परवाह नहीं है। उसका बाहरी लिफाफा आकर्षक होना चाहिये।

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