
मानवता के पथ पर (Kavita)
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किसको प्रेम नहीं है भाता, लेकिन प्रेम नहीं हो पाता।
कवि के सपनों की पटरानी! समय कहाँ जो प्यार करूं मैं!
जब अंगार बरसते, कैसे फूलों का अवतार धरुँ मैं! प्यार हृदय में पलता है, पर कोमल हृदय पेट से पलता।
और पेट की भूख बुझाने, मानव अपना हृदय कुचलता। आज सभ्य शोषण का खूनी जबड़ा हमें चबाया जाता। मानव हूँ, पापाण नहीं मैं, मन मेरा भी लहराता है।
घन अंधियारे से घबराकर, तेरे पास चला जाता है। तेरी याद मधुर तब आकर, रस का दीपक एक जगाती।
पर दीपक की बाती से भी, आँधी हाय! निकल है आती। जिसका आँगन आँधी में हो, उसका दीप कहाँ जल पाता। हाहाकारों की दुनिया में, आज मुझे भी जाना होगा,
मौन रहूँ तो आँसू बनकर, मुझको भी बह जाना होगा। मेरे कवि को, दुखी धरा के दुःखों में घुल जाना होगा।
घुलकर, अन्यायों से लोहा खुलकर आज बजाना होगा। स्वयं वहाँ ही जाना होगा जहाँ बधिक तलवार उठाता। यही मुझे विश्वास बड़ा है, जब अधर्म, भू भार हुआ है,
स्वयं धर्म की अमर शक्ति से पापों का संहार हुआ है। यही अटल विश्वास लिये जग-जीवन में खो जाऊँगा मैं।
अपने घर को फूँक, जगत के घर-घर का हो जाऊँगा मैं। जीवन के इस महा धनुष पर, लो, मैं अपना तीर चढ़ाता। अभी विदा! सपनों की रानी! तेरे कवि को जगत बुलाता।
तुझसे कहीं अधिक है प्यारा, मुझको मेरे जग का नाता। मेरे दुख की कथा! मौन हो, जग की कथा मुझे सुनने दे।
मेरे मन की व्यथा! मौन हो, जग की व्यथा मुझे चुनने दे। लपटों के आसन पर बैठा, तेरा कवि अब शंख बजाता। मेरे तन-मन-प्राण-कर्म तुम मानवता के पथ पर आओ।
पशु-बल, धन-बल एक ओर है, तुम निर्बल के बल बन जाओ। मेरी वीणे! आज गरज तू, मेरी राख को पुनः जिला दे।काँटे कुचलू , इसके पहले, फूलों में भी आग लगा दे। मेरी छोटी नाव वहीं चल, जहाँ महा सागर लहराता। -धर्म युग से *समाप्त*
जब अंगार बरसते, कैसे फूलों का अवतार धरुँ मैं! प्यार हृदय में पलता है, पर कोमल हृदय पेट से पलता।
और पेट की भूख बुझाने, मानव अपना हृदय कुचलता। आज सभ्य शोषण का खूनी जबड़ा हमें चबाया जाता। मानव हूँ, पापाण नहीं मैं, मन मेरा भी लहराता है।
घन अंधियारे से घबराकर, तेरे पास चला जाता है। तेरी याद मधुर तब आकर, रस का दीपक एक जगाती।
पर दीपक की बाती से भी, आँधी हाय! निकल है आती। जिसका आँगन आँधी में हो, उसका दीप कहाँ जल पाता। हाहाकारों की दुनिया में, आज मुझे भी जाना होगा,
मौन रहूँ तो आँसू बनकर, मुझको भी बह जाना होगा। मेरे कवि को, दुखी धरा के दुःखों में घुल जाना होगा।
घुलकर, अन्यायों से लोहा खुलकर आज बजाना होगा। स्वयं वहाँ ही जाना होगा जहाँ बधिक तलवार उठाता। यही मुझे विश्वास बड़ा है, जब अधर्म, भू भार हुआ है,
स्वयं धर्म की अमर शक्ति से पापों का संहार हुआ है। यही अटल विश्वास लिये जग-जीवन में खो जाऊँगा मैं।
अपने घर को फूँक, जगत के घर-घर का हो जाऊँगा मैं। जीवन के इस महा धनुष पर, लो, मैं अपना तीर चढ़ाता। अभी विदा! सपनों की रानी! तेरे कवि को जगत बुलाता।
तुझसे कहीं अधिक है प्यारा, मुझको मेरे जग का नाता। मेरे दुख की कथा! मौन हो, जग की कथा मुझे सुनने दे।
मेरे मन की व्यथा! मौन हो, जग की व्यथा मुझे चुनने दे। लपटों के आसन पर बैठा, तेरा कवि अब शंख बजाता। मेरे तन-मन-प्राण-कर्म तुम मानवता के पथ पर आओ।
पशु-बल, धन-बल एक ओर है, तुम निर्बल के बल बन जाओ। मेरी वीणे! आज गरज तू, मेरी राख को पुनः जिला दे।काँटे कुचलू , इसके पहले, फूलों में भी आग लगा दे। मेरी छोटी नाव वहीं चल, जहाँ महा सागर लहराता। -धर्म युग से *समाप्त*