
राजनैतिक क्षेत्रों में भयंकर पतन
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आज की राजनीति स्वार्थ, भ्रष्टाचार, दूसरे राष्ट्रों को हड़पने, अपना साम्राज्य फैलाने के उपक्रम, धोखा, घृणा, विद्वेष और हिंसा से परिपूर्ण है। आज का शासन गुटबन्दी का शासन है। एक ओर ब्रिटेन-अमरीकी गुट है, तो दूसरी ओर रूस-चीन जोर मार रहे हैं। बिना किसी गुट में सम्मिलित हुए, बिना कूटनीति के प्रयोग किये किसी राष्ट्र का अस्तित्व निरापद नहीं ।
राजाओं का निरंकुश शासन-युग समाप्त हो गया है जनमत का आदर हो रहा है। जनता का राज्य गरीबी, मजदूरी, बीमारी, आर्थिक कष्टों को दूर नहीं कर पा रहा है। प्रायः जनता को भुलावे में डालकर डिक्टेटर जन्म ले रहे हैं और डिक्टेटर जनमत की परवाह नहीं कर रहे हैं। आज की राष्ट्रीयता संकुचित एवं आक्रामक राष्ट्रीयता है। फासिस्ट दल जमानत की परवाह नहीं करता। वह अपने विचार एक विशिष्ट प्रचार पद्धति से जनता पर थोप देता है। फैसिज्म कोई नई स्वयं स्थित विचार धारा नहीं, प्रस्तुत पूँजीवाद का खूनी रक्षक भर है। गरीबी दूर करने का बुलावा देकर वह जनता का ध्यान आर्थिक अधिकारों और उन्नति से हटाता है।
फासिज्म दूसरे राष्ट्रों की निर्बलता, पिछड़ेपन, निर्धनता, असभ्यता पर पनपता है। असभ्य तथा पिछड़े हुए देशों को हथिया कर अपने अधिकार में कर लिया जाता है। पिछड़े हुए राष्ट्रों पर जो भयंकर अत्याचार किए जाते हैं, उनका वर्णन नहीं किया जाता। अबीसीनियाँ और युथापिया इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।
फासिज्म में एक देश के विरुद्ध विषैला प्रचार किया जाता है, जो प्रायः मिथ्या होता है। फासिस्ट प्रोपेगेन्डा वाला डिक्टेटर अपनी प्रजा में यह प्रचारित करता है- “अमुक राष्ट्र ने, जो हमारे पड़ौस में है, हमारे यहाँ स्थिर नागरिकों पर बड़े बड़े अत्याचार किये है। वह हमारा शत्रु है। हमें अपनी आबादी को बसाने के लिये स्थान चाहिए। अतः उस पर आक्रमण कर देना चाहिए।”
इस मनोवृत्ति से परस्पर घृणा, द्वेष, कटुता, शत्रुता की वृद्धि होती है। एक राष्ट्र दूसरे के प्रति विषैला प्रचार करता है।
कम्यूनिज्म ऐसा राजनैतिक धर्म है, जो समाज में एक पार्टी का हित चाहता है। दूसरी पार्टी में चाहे कोई कितना ही अच्छा हो, कम्यूनिज्म की दृष्टि से हेय है।
साम्राज्यवाद पूँजीवादी वृत्ति का परिणाम है। हमारा साम्राज्य बढ़ता रहे, चाहे उससे जनता को लाभ हो या न हो, इससे हमें मतलब नहीं, पूँजीवादी व्यवस्था में सबसे बड़ा दोष यह है कि उसका आधार व्यक्तिगत लोभ है। उसमें मानवता के कल्याण को कोई स्थान नहीं। समाज के लोग बिना वस्त्र घूम रहे हों, पर पूँजीवादी देश विध्वंसक गोले बन्दूक, आतिशबाजी बनाने में कपड़े की बनिस्पत अधिक दिलचस्पी लेता है।
आज प्रजातन्त्र का युग है किंतु प्रजा अशिक्षित मूर्ख, अन्य विश्वासों, रूढ़ियों, धार्मिक कुचक्रों में बंधी हुई है। अवसरवादी ढोंगी नेता, भोली जनता की अशिक्षा से लाभ उठाते हैं। प्रजा का शोषण चलता है। अधिकारी समझता है कि यह उसका अन्तिम अवसर है। अतः वह उचित अनुचित रूप से अधिकतम रुपया खींच लेना चाहता है। रुपये के बल पर वोट मिलते हैं, जनता को धोखे में डाल दिया जाता है। कल जो किसी रिश्वत-खोरी, बेईमानी या अनुचित कार्य करने पर निकाल दिया गया था, आज वही रुपये तथा प्रोपेगेन्डा के बल पर जन नेता का स्वाँग बनाता है। कुछ राजनैतिक पार्टियाँ धर्म और साम्प्रदायिकता की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करती हैं। कोई किसान मजदूरों का नारा लगाकर जनता की सहानुभूति खींचना चाहता है। आज राजनीति के क्षेत्र में अजीब खींचतान, संघर्ष, झूठ, कपट, प्रोपेगेन्डा, स्वार्थसिद्धि चल रही है। युद्ध के बादल मंडरा रहे है। जब तक ऐसा कुटिल वातावरण चलता रहेगा, तब तक मानवता पतित होती रहेगी।
प्रान्तीयता का विष
“यह हमारे प्रान्त का व्यक्ति है। अतः इसकी उचित शिक्षा अपने ही प्रान्त के व्यक्तियों का प्रोत्साहन, आधिक सहायता या तरक्की नौकरी देनी चाहिए” यह प्रान्तीयता की भावना आज अपने घृणात्मक रूप में देखी जा रही है।
सरकारी नौकरियों में यदि कोई मद्रासी अफसर है तो उसकी दृष्टि में मद्रास के अतिरिक्त अन्य प्रान्त वाले किसी योग्य नहीं हैं। बंगाली सज्जन अपने बंगालियों को ही लेना पसन्द करते हैं। पंजाबी पंजाबियों, सिंधी जिंध वालों और यू. पी. उत्तर प्रदेश में रहने वालों को आगे बढ़ाना चाहते हैं। प्रान्तीयता की भावना हमारी संकुचिता, की प्रतीक है। इससे यह ज्ञात होता है कि हमारे हृदय कितने छोटे हैं। हमारी आत्मीयता के ये छोटे-छोटे दायरे हिंद समाज के कलंक हैं। जब हम एक प्रान्त के व्यक्ति से पक्षपात करते हैं, और दूसरे का सच्चे हठ की अवहेलना करते हैं, तो हम एक पाप करते हैं। पक्षपात हमारा राजनीति का एक बड़ा शत्रु है। पक्षपात के कारण अयोग्य, अशिक्षित अनाधिकारी व्यक्ति मिनिस्ट्री, म्यूनिस्पैलटी, की मैम्बरी का आनन्द भोगता है-भ्रष्टाचार पूर्ण शासन करता है, जबकि योग्य विद्वान् अधिकारी सज्जन पड़े सड़ा करते हैं।
आज कल के भ्रष्टाचार का तीसरा कारण अवसर वादिता है। “अब अवसर है, हम अधिकारी हैं, अपने महकमे के सरताज हैं, हमारा अपना राज्य है। अतएव अपना उल्लू सीधा कर लेना चाहिए”- ऐसी विचार धारा हमारे पतन का कारण है। आज राजनैतिक जीवन में अधिकार नेता, अधिकारी अफसर लोग अपने-2 अवसर से पूरा-पूरा फायदा उठाने की फिक्र में लगे हुए हैं। इस अवसरवादिता का पतित रूप कन्ट्रोल तथा पुलिस-कचहरियों आदि के विभागों में अपने सबसे घिनौने रूप में देखा जा सकता है।
घूस, भ्रष्टाचार और पक्षपात -
पुलिस वाला इक्के वालों, ताँगे वालों, छोटे-2 फेरी वालों, खोमचा फल इत्यादि बेचने वालों, पटरियों पर बिसाती की छोटी-2 दुकान लगाने वालों से रिश्वत लेते हैं। सबका दैनिक रुपया बँधा है। शाम को प्रत्येक ताँगा, रिक्शा, या बिसाती अपनी अर्जित आय का एक भाग लाकर कानिस्ट बिल साहब की जेब में डाल जाता है। चुँगी कस्ट इत्यादि में मुसाफिर या व्यापारी को पकड़ लिया जाता है। राशन की दुकानों पर कम तोलने, कूड़ा करकट मिलाकर गेहूँ आदि निकाल लेने, दूध में पानी की मिलावट, घी में वनस्पति का मिश्रण, काली मिर्च में पपीते के बीज, जीरे में सींकों के जीरे का पुट इत्यादि बाजार की अनैतिकता का कारण निरीक्षकों को मिलने वाली घूस ही है।
गत कुछ वर्षों से देश में चोरी डाकू का दौर दौरा चल पड़ा है। स्कूल कालेज में छोटी छोटी वस्तुओं की चोरी, फाउंटेन पेन, पेंसिल, रुमाल इत्यादि उचाटने को तो बुरा ही नहीं माना जाता। उधार चीज लेकर, विशेषतः रुपया या पुस्तक वापस न करना तो हमारी आदत का अंग बन गया है। जो वस्त्र खुले बाजार में प्राप्त नहीं होता, वह चोर बाजार में अनायास ही प्राप्त हो जाता है। रेल के महकमे में रिश्वत पर्याप्त चलती है। व्यापारी अपने व्यापार के लोभ में अनाप शनाप घूस देकर माल की बिल्टी तैयार करा लेते हैं। बिना टिकट सफर करने की अनैतिक आदत भी बृहत् संख्या में दृष्टि गोचर हो रही है। सरकारी दफ्तरों में रिश्वत का यह जोर है कि एक क्लर्क अपने ही आफिस के दूसरे क्लर्क से चाय पानी के पैसे ले लेता है। दिनों दिन बढ़ती हुई यह चोरी, घूस खोरी, भ्रष्टाचार और छीना झपटी भोगवाद, धन लिप्सा का विराम कम होना, कहा नहीं जा सकता। भोग गर्भित स्वार्थ के कारण आज प्रायः सभी प्रकार के नैतिक बन्धन शिथिल पड़ गये हैं।
नेताओं का दुरंगापन-
सरकारी योजनाओं की विफलता में उनके कर्मचारियों, नेताओं, पथ प्रदर्शकों की स्वार्थ जन्य अनैतिकता का प्रमुख हाथ है। आज एक व्यक्ति कुछ प्रोपेगेन्डा करता है, कल वही मिनिस्टर या अधिकारी बन कर राष्ट्र की उपेक्षा कर निजी स्वार्थ को सर्वोपरि समझने लगता है। पिछले और दलित वर्गों की आवाज को दबाता है और अपने खूनी पंजों से बहुसंख्यक जनता की सामाजिक दासता की बेड़ियाँ सख्त कर देता है। अनेक नेता घर पर नौकरों मजदूरों को मारते पीटते, तनख्वाह नहीं देते हैं, बाहर जनता में प्लेटफार्म पर मजदूरों का पथ प्रदर्शन का ठेका लेते हैं। स्वयं मदिरा पान कर दूसरों को मदिरा की असंख्य बुराइयाँ दिखाते हैं, स्वयं रेशमी सिल्क इत्यादि घर में पहिन कर बाहर खद्दर पहिन कर निकला करते हैं। कहते कुछ हैं, करते कुछ उलटा ही हैं। वचन तथा आचरण में सर्वत्र दुरंगापन चल रहा है!