
प्रारब्ध भोगों का सरल भुगतान
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(श्री रामचन्द्र प्रसाद गुप्त, दानापुर केन्ट)
मेरा आरम्भिक जीवन बड़ा असंयत और अव्यवस्थित रहा है। उन भूलों के कारण शरीर खोखला हो गया, स्वास्थ्य से हाथ धोना पड़ा, आये दिन की बीमारियों के पंजे में फँसा और फिर सन् 45 में बुरी तरह चारपाई पर पड़ गया।
डाक्टरों ने इसे भी प्लूरिसी बताया, इस रोग में 411 वर्ष तक जो-जो तकलीफ सही हैं, चिर स्मरण रहेगा। लगभग तीन वर्ष तक खाट से उठने की आज्ञा न मिली खाना भी लेटे-लेटे खाता था। इस बीमारी में पिता जी ने भी बहुत तकलीफ सही है। डॉ. घोंसल ने तीन महीने तक सिर से लेकर कमर का बाँह छोड़कर पलस्तर लगवा दिया था जिससे मैंने बहुत कष्ट सहा। कई बार ऐसा मालूम पड़ा था कि अब प्राण नहीं रह सकता क्योंकि कष्ट चरमसीमा तक पहुँच चुका था। उस समय जीवन की सभी घटनाएँ वायस्कोप की तरह आँखों के सामने नाचती थीं, छोटी छोटी गलती जिसे एकदम भूल चुका था, नेत्रों के सामने साकार रूप होकर नाच रही थी। अपने अपराधों का स्मरण कर छाती भर आई आँखों में आँसू निकल आये, उस समय शिर धुनता था, कि हाय मैं इस जगत में आकर कुछ कर न सका, उलटे पाप के बोझ सिर पर लिये जा रहा हूँ। उस समय मैं रो रोकर ईश्वर से कहता था, प्रभु अधिक नहीं तो एक या दो वर्ष का समय दे दो अपने पापों का प्रायश्चित कर लूँगा, अब ऐसी भूलें नहीं करूंगा आदि।
उस समय आत्मा से यही आवाज आती थी कि “घबराओ नहीं तुम्हारी अभी मृत्यु नहीं होगी, एक ठोकर दिया गया, जिससे आगे चलकर सँभल सको। अगर इससे नहीं चेतोगे तो आगे बड़ी दुर्दशा होगी” इसके बाद वह दृश्य हट गया और मैं धीरे-धीरे आरोग्यता लाभ करने लगा। अब मैं बखूबी समझ गया हूँ, कि मरने के समय आँसू क्यों निकलते हैं?
मैं अभी पूर्ण निरोग भी नहीं हुआ था, कि दवाओं में उलट फेर होने से फिर रोग बढ़ने लगा बरसात का मौसम था, नीचे आँगन में मैं पाखाना के लिए जाता था। ठण्डी हवा बरसात का समय मुझे सर्दी खाँसी हो गई। यह सर्दी आज तक अच्छी नहीं हुई है। दवाओं में सुधार होने से फिर लाभ होने लगा, परन्तु पूर्ण निरोग नहीं हुआ। रोग कभी घट जाता कभी बढ़ जाता सभी लोग परेशान थे। इसी समय काशी के एक ताँत्रिक पण्डित जी दानापुर में आये।
उन्हें दिखलाया गया, उन्होंने अच्छा कर देने का 30) में ठेका लिया, उनके कहे मुताबिक पूजा का इंतजाम हो गया। उन्होंने 11 दिन तक पाठ स्तुति किया, बारहवें दिन हवन किया। जिससे मुझे सर्दी, खाँसी और कमजोरी छोड़कर और कोई कष्ट नहीं रहा। पण्डित जी से सर्दी खाँसी का भी करार था, उसे अच्छा न होने पर 5) रु0 रोक लिया गया। पटना के प्रसिद्ध डॉ0 टी. एन. बनर्जी ने मेरा लगभग तीन वर्ष इलाज किया था, तथा उन्हीं की दवा चल रही थी। उनसे जो लाभ हुआ उसे 11 दिन में पण्डित जी ने कैसे कर दिया? यह प्रश्न मेरे मस्तिष्क में चक्कर लगाने लगा।
मैंने तान्त्रिक जी से बहुत पूछा पर वे दो चार बातों के अतिरिक्त अधिक नहीं बताये। उससे मेरी जिज्ञासा शान्त नहीं हुई, बल्कि उनके छिपाव करने पर दुःख हुआ। मेरा स्वभाव है कि जिस बात के पीछे पड़ जाता हूँ कुछ न कुछ ईश्वर की कृपा से जानकारी हासिल कर ही लेता हूँ। मैंने तन्त्र विद्या की चन्द बातें मालूम कर ही लीं और तान्त्रिक साधना का विचार करने लगा। लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। इसी अवसर पर मेरे मित्र विश्वनाथ प्रसाद जी के बड़े भाई दुर्गाप्रसाद जी ने “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका मंगाया था, मैंने मन बहलाने के लिए मंगाकर पढ़ने लगा। गायत्री महिमा पढ़कर मन प्रसन्न हुआ, और कई छोटी-छोटी पुस्तकें मंगवाकर पढ़ी, पढ़ कर खाट पर बैठे-बैठे ही मानसिक साधना को आरम्भ कर दिया। उस समय मकान मालिक ने मकान से निकालने के लिये कैन्टोमेंट से मुकदमा चलवा दिया था, मैंने परीक्षा का यही अवसर अच्छा समझा, विधि विधान से करना उस समय मुश्किल था, जैसे तैसे 1 माला जपने लगा। और मुकदमा जिता देने की प्रार्थना करने लगा। कैन्टोमेंट बोर्ड के कई मेम्बर मकान मालिक के दोस्त थे। सरकारी मुकदमा मेरे ऊपर चल रहा था। कोई नहीं कह सकता था, कि आसानी से यह मामला सुलझेगा, लेकिन आश्चर्य। कैन्टोमेंट के ऑफीसर ने समझौता कर लिया। जिसकी कोई आशा नहीं थी। 20) में समझौता हो गया।
इससे गायत्री के प्रति मेरी श्रद्धा और विश्वास बहुत बढ़ गयी। इस मामले में कई व्यक्ति मकान मालिक से मिलकर तंग कर रहे थे, उन्हें भी लज्जित होना पड़ा। इस तरह दो तीन कामनाएँ माता ने पूरी कीं, जिससे श्रद्धा भी बढ़ती गई। रुचि बढ़ने पर और भी कई पुस्तकें मँगाकर पढ़ीं, 5 मई सन् 50 से जप आरम्भ किया था कुछ दिन बाद खाट से नीचे जमीन पर आसन लगाकर जप करने लगा। बात बिगड़ने से पेट में गड़बड़ी रहती थी। जब उपासना में बैठता तो पेट गुड़गुड़ाता और अधोवायु निकलने लगता, इतना ही नहीं घण्टा भर अगर एक आसन से बैठे-बैठे जप करता तो दो चार बूँद धात निकल जाता था। उपासना के समय यह तमाशा देखकर कभी-कभी हतोत्साहित हो जाता था। साधना चालू रखे तो यह लीला, न करे तो मन नहीं मानता था। जैसे तैसे चालू रक्खा छोड़ा नहीं, माँ की दयालुता पर भरोसा था। मैंने ठान लिया था, कि चाहे जो कुछ हो, उसे छोड़ नहीं सकते। यह विकट परिस्थिति बहुत कम लोगों के आगे आयी होगी। मेरे पास कातर वाणी, दृढ़ श्रद्धा और विश्वास के सिवा और क्या था? मैं इन्हीं को अपनाकर आगे बढ़ रहा था। इससे क्या लाभ हुआ? इस विषय में मैं यहाँ कहूँगा, कि माता की दया और गुरुदेव के अनुग्रह से वर्षों का मंजिल कुछ ही दिनों में तय किया। अज्ञान अन्धकार हटता जाता है, आत्मा के ऊपर जमा हुआ मल, कुसंस्कार आदि नष्ट होता जाता है।
सन् 1951 में हाथ में “कोल्ड अबसेस हो गया प्लूरिसी रोग से मेरा दाहिना हाथ ऊपर नहीं उठता था। डॉ. ने बताया कि पठ्ठे की हड्डी जम गयी है, वहीं से रीम आकर जमने से ‘काल्ड+अबसेस’ हो गया है, आपरेशन कराना होगा। मैं बड़े फेर में पड़ा। डॉ. जी. पी. गुप्ता ने कहा जहाँ से रीम चला है, अगर वहाँ आपरेशन किया जायेगा तो हाथ हिलाने डुलाने लायक भी नहीं रहेगा। निदान पटना के प्रसिद्ध डॉ. केपटन, एन. पाल के यहाँ जाकर दिखलाया गया।
उन्होंने थोड़ा सा आपरेशन करके रबर की नली लगादी जिससे रीम रुकने नहीं पाता था साथ ही पेन्सलीन और स्पेटोमाईसीन भी चालू कर दिया। 20 दिन से भी अधिक समय बीत गया लेकिन रीम बन्द नहीं हुआ। तब डॉ0 पाल ने कहा तीन या अधिक 7 दिन तक और देखेंगे रीम रुक गया तो ठीक, नहीं तो जहाँ से रीम चलता है, वहाँ तक आपरेशन करना होगा।
डॉ0 पाल चीर फाड़ के नामी डॉक्टर हैं, पटना में वे जख्म आदि के पुराने अनुभवी हैं। उनकी बात सुनकर मुझे बड़ी दुःख हुआ, क्यों कि डॉ0 जी. पी. गुप्ता ने पहले ही कह दिया था कि वहाँ पर आपरेशन करने से हाथ बे काम हो जायगा। क्योंकि हड्डी में दाग होने से छिलना पड़ता इससे हड्डी और नसें बेकार हो जाती। मेरी दाहिनी भुजा बेकार हो जायेगी इसकी कल्पना से ही दुःख होने लगा, मैंने सोचा जब हाथ बेकार हो जायगा तो हम जीकर ही क्या करेंगे जान दे देना ही अच्छा है। उस समय जख्म के कारण लेटे-2 ही एक दो माला जप करता था। उस दिन जप में भी मन नहीं लगा। भावी अनिष्ट की आशंका दिल में उथल पुथल मचा हुआ था।
मैंने कातर होकर अश्रुपूर्ण नेत्र से माँ से अपनी दर्दभरी कहानी कही, मुझे ऐसा लगा मानों माँ सामने खड़ी हैं, और कह रही हैं, ‘घबराओ नहीं तुम शीघ्र अच्छे हो जाओगे” लेकिन इस बात पर पूर्ण विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि उन दिनों बरसात का महीना था पूर्वईया हवा जोरों में चल रही थी। दूसरे उस दृश्य को मैंने कल्पना ही समझा लेकिन दिल कहता था, वह दिव्यवाणी है, असत्य न होगी।
उसी दिन से रीम सूखने लगा, तीन चार दिन में बहुत कम हो गया अब आपरेशन का डर भी कम हो गया, एक दिन डॉ0 पाल ने किताब निकाल कर दिखाया और कहा, देखिए मैं आपके आपरेशन का रूपरेखा तैयार कर लिया था, लेकिन आप का भाग्य। “वास्तव में इस जख्म को इस तरह सूखते देख, जिसकी आशा नहीं थी, डॉ0 पाल भी आश्चर्य चकित थे।
इसी बीच में एक और संकट से माता ने रक्षा की। हम कुछ ही दिन में अच्छा होकर घर चले आये। इस घटना को 3 वर्ष के लगभग हो रहा है। मैं बड़ा अनुष्ठान आज तक नहीं कर सका हूँ। थोड़ी बहुत दैनिक साधना टूटी फूटे नियम से कर रहा हूँ। माता की दया और गुरुदेव की कृपा से जन्म जन्मान्तर के पड़े कुसंस्कार धीरे-2 हटते जा रहा हैं।
अगर माता की दया और गुरुदेव का अनुग्रह होगा तो आत्म दर्शन कर सकूँगा, ऐसी आशा और विश्वास से साधना में लगा हूँ।
मन भड़क-भड़क कर पुराने ढंग पर चलता है, परन्तु उसका अब वश नहीं चलता, पछता-पछता कर फिर अपने जगह पर लौट आता है। गायत्री तू धन्य है, तेरी महिमा अपार है, वाणी में सामर्थ्य नहीं है जो तेरा गुण गा सके। मेरे जैसे पापी को जब सत् मार्ग पर ला सकती है, और कठिन प्रारब्ध भोगों को सरल कर सकती है तो जो धर्मात्मा, पुण्यात्मा है, उनकी तो बात ही दूसरी है।