
गायत्री के अनुभव
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री आनन्द स्वामी जी महाराज भूतपूर्व श्री खुशाल चन्द जी खुशद संस्थापक हिन्दी, उर्दू मिलाप)
गायत्री का जिक्र आते ही इस शरीर की कहानी सामने आ जाती हैं। छोटी अवस्था में यह शरीर जलालपुर जटाँ में था एक छोटे से गाँव में जो अब पाकिस्तान में है। इस शरीर से तो सारी दुनिया का रहने वाला हूँ सारी दुनिया ही मेरा घर है परन्तु इस शरीर का घर उस गाँव में था। गाँव छोटा था परन्तु व्यापार और दस्तकारी के लिये मशहूर था। गाँधी जी के स्वदेशी आन्दोलन से पहले ही खादी वहाँ बनती थी। उसे गुजराती कपड़ा कहा जाता था और दूर तक वह कपड़ा बिकने को जाता था। इसलिए पहले दिन से ही इस शरीर को स्वदेशी कपड़ा पहनने को मिला। उसके बाद कभी विदेशी कपड़ा नहीं पहना।
बचपन की बात है मैं छठी या सातवीं क्लास में पढ़ता था और बुद्धू (मूढ़मति) था। कुछ नहीं आता था। स्कूल में पहली घण्टी से ‘स्टेन्ड औन दी बेंच’ होता और फिर चौथी घण्टी पर जब तक स्कूल बन्द होता तब तक बेंच पर खड़ा रहता। क्लास का मानीटर तमाचे मार-मार कर मेरा गाल लाल कर देता था। घर में आता तो पिता जी मारते थे। कहते थे तू नालायक है। किसी काम का नहीं है। मैं रो-रो कर कहता “पिता जी बहुत कोशिश करके पढ़ता हूँ परन्तु क्या करूं जो पढ़ता हूँ वह याद नहीं रहता” वह कहते “तू बिल्कुल निकम्मा है। अहमक है।” रोज-रोज के इस अपमान से, रोज-रोज की इस मार से मैं इतना दुःखी हुआ कि इस छोटी सी आयु में आत्महत्या करने की इच्छा जाग उठी। जीने की कोई इच्छा न रही। सोचा दुःख और इस अपमानजनक जीवन से मर जना अच्छा है। एक दिन 12 बजे स्कूल से छुट्टी हुई तो मैं सीधा बरसाती नाले पर गया जो हमारे गाँव के सहारे बहता था। ‘देवाला’ कहते थे उसे। वर्षा ऋतु थी, नदी भरी हुई थी। वर्षा का जल तेजी के साथ बह रहा था। मैंने पुल पर खड़े होकर छलाँग लगादी, निश्चय कर लिया कि मर जाऊँगा अब। जीऊँगा नहीं परन्तु भगवान को इस शरीर से कुछ काम लेना था। इसलिए यत्न करके भी मर नहीं सका। गोते खाता रहा बेहोशी की हालत में कोई-2 मील दूर नीचे किनारे पर जा लगा, इस्लाम गढ़ के पास। वहाँ के लोगों ने देखा ‘अरे! यह तो मुँशी गनेश दास का लड़का है’ मुझे उठाकर घर में पहुँचा दिया। मरना मेरी किस्मत में नहीं लिखा था।
परन्तु तभी स्वामी नित्यानन्द जी जलालपुर में आये। हमारे बाग में ठहरे। पिताजी ने हुक्म दिया “इन्हें रोटी खिलाने तू जाया कर” पर हुक्म शायद इसलिए कि मुझसे नालायक और निकम्मा आदमी उनके घर में न था। मैं रोज जाता और उन्हें रोटी खिला आता।
एक दिन पिताजी ने कहा ‘जा भैंस को पानी पिला लो’, मैं उसे गाँव के बाहर उस जोहड़ के पास ले गया जिसे “मसदी दाता” कहते थे। भैंस ने पानी पिया- पानी पीकर गहरे पानी में चली गई। मैं अब थोड़ा सा उसे बाहर निकालूँ तो कैसे। बहुत शोर मचाया। ढेले मारे तो भैंस जोहड़ से निकल कर दूसरे किनारे पर जा पहुँची। वहाँ एक जमींदार के खेत में घुस गई। जितनी देर में मैं दूसरी तरफ पहुँचा उतनी देर में उसने खेत का किनारे का हिस्सा ही नष्ट कर दिया। इधर से मैं भागा हुआ गया उधर से जमींदार आ गया। उसने इतना मारा कि हड्डियाँ दुखने लगीं। उस दिन मुझे स्कूल में भी मार पड़ी थी। घर आया तो पिता जी ने गुस्से से कहा “इतनी देर लगाकर क्यों आया है?” और तब उन्होंने भी मारा। मैं हैरान था कि हे भगवान्! क्या करूं? आँखें नहीं रोती थीं दिल रोता था। तभी पिताजी ने कहा “जा बाग में स्वामीजी को रोटी दे आ। मैं रोटी लेकर स्वामीजी के पास पहुँचा, वह खाते रहे। मैं एक तरफ उदास और निराश खड़ा रहा। वह देखते रहे। भोजन कर चुके तो बोले “खुशालचन्द क्या बात है? तू आज उदास क्यों है? बहुत दुखी मालूम होता है तू?” उनकी बात सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ गये। गोद में बिठा लिया। बोले- “तुझे क्या हुआ क्यों इतना दुखी है? मैंने रो रोकर सारी कथा उन्हें सुनादी। उन्हें बताया कि कोशिश करने पर भी मुझे कुछ याद नहीं होता। मेरी अक्ल खराब है। उन्होंने कहा ‘अरे’ इसका इलाज तो बता सकता हूँ। बैठ जा मेरे पास” और एक कागज लेकर उस पर गायत्री मंत्र लिख दिया। बोलें “यह है तेरे रोग का इलाज” जब परिवार के सब लोग सोते हुए हों तो सुबह प्रातः 3 बजे उठकर नहा धोकर इसका जाप किया कर” तब उन्होंने गायत्री मन्त्र का अर्थ भी बताया और और जो अर्थ उस वक्त उन्होंने बताया वह आज भी मुझे भूला नहीं।
“हे रक्षक! प्राण प्यारे दुःखों को दूर करने वाले आनन्द को देने वाले, मैं तेरे सुन्दर दिव्य रूप का ध्यान करता हूँ, मेरी बुद्धि को अपनी तरफ ले चल”।
तभी से प्रातः उठने लगा। समय पर उठ सकूँ इसलिए बहुत तेज अलार्म वाली एक घड़ी खरीदी। उठने के बाद भी नींद आती तो बार-बार आँखों पर छींटे लेता। परन्तु देखा कि पानी से भी नींद दूर नहीं आने लगती हैं। उन दिनों मेरी चोटी बहुत लम्बी थी। पाँवों में खड़ाऊं पहनता था। पीली धोती पहनता था। पिताजी हम सब भाइयों को इसी ब्रह्मचारी वेश में रखते थे। मैंने सोचा कि चोटी को नींद रोकने के लिये इस्तेमाल करना चाहिये। छत के साथ एक रस्सी बाँध दी। जाप के लिए बैठने लगता तब उसका दूसरा सिरा कसकर चोटी के साथ बाँध देता और तब जैसे ही नींद आती, सिर होता नीचे रस्सी खिंचती ऊपर, चोटी तन जाती, नींद खुल जाती और मैं फिर जाप करने लगता।
इसी तरह पाँच छः महीने गायत्री का जाप करते हुए गायत्री का असर होने लगा।
पहले परीक्षा होती थी तीन प्रश्न होते थे, वह तीनों ही गलत होते थे। अब एक सवाल ठीक होने लगा। मैं परीक्षा में पास हो गया। मास्टरों ने कहा तूने जरूर किसी की नकल लगाई होगी। तेरे तो पास होने की उम्मीद न थी। मैंने कहा- “नकल नहीं लगाई मैंने सिर्फ गायत्री का जाप किया है।” उन्होंने शायद यह बात समझ नहीं पाई परन्तु उसके बाद हर इम्तहान में पास होने लगा।
उन्हीं दिनों मैंने कविता भी लिखी मेरे उस्ताद मास्टर काकार मजी थे। उन्होंने इस कविता को पढ़ा और इतने खुश हुए कि उसी वक्त मुझे जेब से एक पौंड इनाम में दिया।
मैंने यह बात घर जाकर पिता जी को सुनाई उन्होंने इनाम देखा, कविता देखी और अपने पास से एक और पौंड इनाम में दे दिया। इससे कुछ महीने बाद एक और वाकया हुआ। आर्य समाज जलालपुर जटाँ का सालाना जलसा था। महात्मा हंसराज जी का एक भाषण जलसे में हुआ। मैं महात्मा जी के लेक्चर की रिपोर्ट लेने लगा। रात को बैठकर सारी रिपोर्ट लिखी। प्रातः ही उसे महात्मा जी के पास ले गया। वह पूछने के लिए कि कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई। उन्होंने रिपोर्ट को देखा। तो बोले “क्या तू शॉर्टहैंड जानता है? ‘जी नहीं’ शॉर्टहैंड क्या होता है?” वह बोले “किसका लड़का है तू?” मैंने कहा ‘आर्य समाज के मन्त्री का। गणेश दास जी हैं न वह मेरे पिता हैं’ इसी समय मेरे पिताजी भी उसी जगह आ गये।
महात्माजी ने पूछा, मुंशी जी!
‘यह आपका लड़का है’।
पिता जी ने कहा ‘जी’।
महात्माजी बोले ‘क्या कराते हो इससे’?
पिताजी ने बताया ‘यह पढ़ने में बहुत अच्छा नहीं इसलिए इसको जुराबों का कारखाना लगा दिया है।’
इन दिनों मैं जुराबें बुनने का काम करता था। पन्द्रह मशीनें थीं। मेरे पास 15 आदमी काम करते थे। मगर सबसे ज्यादा मैं जुराबें बुनता था। दूसरों को जुराबें बुनना सिखाता भी था। इसलिये सारे जलालपुर में नौजवान लड़के मुझे उस्ताद जी कह कर पुकारते थे।
महात्मा जी ने सब यह कुछ सुना और कहा “इस काम के लिए लड़का ठीक नहीं। मुँशीजी ‘इसे मुझको दे दो।’ मैं इसको काम पर लगाऊँगा। जिसके यह काबिल है।”
पिताजी ने कहा ‘मैं इन्कार कैसे कर सकता हूँ’। यह आपका बच्चा है जैसे आप चाहें करें।
उसके बाद कई दिन बीत गये। एक दिन महात्मा जी का पत्र आया कि खुशालचन्द को लाहौर भेज दो।
मैं वहाँ गया। आर्य गजट में नौकर हुआ। 30) महीना तनख्वाह मुकर्रर हुई, गाँव के लोगों को जब पता लगा तो वह हैरत में बोले 30) रुपया महीना एक रुपया रोज- देखो भाई मुँशीजी का पुत्र तो बहुत बड़ा आदमी बन गया है।
आर्य गजट में काम करते-करते मैं उसका सम्पादक भी बना कितने ही वर्ष बीत गये।
1921 तक आर्य गजट के सम्पादक के तौर पर काम किया, तभी मालावार में भोपला बगावत हुई। मुसलमानों ने 2॥ हजार हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बना लिया। महात्मा हंसराज जी के हुक्म से रिलीफ का कार्य करने के लिए वहाँ पहुँचा।
वहाँ से मैं वापिस आया तो अफसोस हुआ कि कि देश के अखबार कुछ खबरों को छापते नहीं। गलत किस्म के हिन्दू-मुस्लिम फसाद की थ्योरी बनाकर वह सत्य को दबा देना चाहते हैं। हिन्दुओं पर कोई जुल्म हो तो भी उनकी बात कोई छापना नहीं चाहता। मैंने महसूस किया कि इस तरह हिन्दू-मुस्लिम इत्तहाद कभी होगा नहीं। हिन्दू-मुस्लिम इत्तहाद जरूरी है। परन्तु वह इत्तहाद तब हो सकता है जब हिन्दू भी उतने ही संगठित और मजबूत हों जितने कि मुसलमान हों। वरना मिट्टी और पत्थर का मिलाप कभी होता नहीं। पत्थर-पत्थर का मिलाप हो सकता है। इस ख्याल को सामने रखकर मैंने “मिलाप” अखबार शुरू किया। इसलिए कि देश में मिलाप की-हिन्दू-मुस्लिम इत्तहाद की-हिन्दू, हिन्दू मिलाप की चरित्र को ऊँचा करने की सदाचार को प्रोत्साहन देने की, सत्य की रक्षा करने की-इन्साफ को रखने की स्प्रिट पैदा की जाय।
यह आदर्श लेकर “मिलाप” जब निकला तो कई लोगों ने कहा “इस अकेले आदमी से क्या अखबार चलेगा” एक दो हफ्तों की बात फिर बन्द हो जावेगा।
परन्तु एक दो हफ्ते तो नहीं “मिलाप को चलते पूरा एक वर्ष हो गया। तो लोगों ने कहना शुरू किया “कहीं से रुपया ले लिया होगा” इसी से अखबार चलाता है। परन्तु यह बात तो ठीक न थी। कभी किसी से कोई रुपया मैंने लिया नहीं “मिलाप” यदि चलता था तो किसी के रुपया से नहीं बल्कि ईश्वर की कृपा से। ‘मिलाप’ सफल हुआ तो इसके बाद ‘हिन्दी मिलाप’ भी निकाला। लोगों ने कहा अब इसका अन्त आ गया है” परंतु अन्त तो आया नहीं “हिन्दी मिलाप” में करीब-करीब एक लाख रुपया घाटा डाला गया। इसके बावजूद वह चलता रहा। अब भी चलता है।
तब भगवान कृपा होने लगी। ताँगे, मोटरें, गाड़ियाँ, गाय, भैंसे-सभी कुछ आ गया। बेटे हुए, बेटियाँ भी, धन, दौलत लाखों की जायदाद, यह सब कुछ मिला-क्योंकि गायत्री माता ने कहा है कि मैं सब कुछ देती हूँ! धन, दौलत, ताकत, इज्जत, आयु, सन्तान, सब कुछ,-माँ की कृपा से यह सब कुछ मिला।
उन्हीं दिनों लाहौर के अन्दर यूनीवर्सिटी हाल में पंजाब के गवर्नर पर गोली चली। चार नौजवान पकड़े गये। उन पर गवर्नर को कत्ल करने की साजिश का मुकदमा चला। रनवीर भी उनमें से एक था। सैशन जज ने उसे फाँसी की सजा का हुक्म दे दिया।
तभी एक हादसा हुआ। मैं जोगींद्र नगर आर्य समाज के जलसे में गया हुआ था। एक पत्थर से पाँव फिसल गया। मैं पहाड़ से नीचे जा गिरा। रीढ़ की हड्डी टूट गई। जख्मी होकर मैं लाहौर में पहुँचा। सारा धड़ प्लास्टर से जकड़ दिया गया। एक तखत पोश पर मुझे लिटा दिया गया। बोलना मना था। हिलता जुलता भी न था। लोग रनवीर को फाँसी देने के कारण मेरे पास हमदर्दी करने के लिये आने लगे। सीढ़ियों पर चढ़ते समय रोती सी सूरत बना लेते, आवाज को भारी कर लेते, आंखों में आँसू ले आते, परन्तु जब वह मेरे पास आते तो मैं उन्हें हँसता हुआ मिलता।
वे मुझे मुस्कराता हुआ देखते तो हैरान होकर कहते “तेरे सीने में दिल है या पत्थर! बेटे को फाँसी का हुक्म हो गया है खुद तख्तपोश पर पड़ा है फिर भी हँसता हैं।’ मैं तो विश्वास के साथ कहता कि अगर मेरा कल्याण इसी में है कि मेरा बच्चा फाँसी पर लटके तो वह कभी न रहेगा और अगर मेरा कल्याण इसमें हैं कि मेरा बच्चा बच जाय तो दुनिया की कोई भी शक्ति उसको मेरे से छीन न सकेगी। लोग रोते थे रनवीर के लिये- परन्तु मैं नहीं रोया, एक भी आँसू मेरी आँखों से नहीं निकला।
एक दिन स्वामी सन्तदेव अनार कली में मुझे मिले। वह महाराजा जम्मू काश्मीर के गुरु थे। मेरे पिता जी के साथ और मेरे साथ उन्हें बहुत प्रेम था। गाड़ी में बैठकर वह सामने आ रहे थे। मैंने हँसकर उन्हें नमस्ते की। गाड़ी को रोककर वह नीचे आ गये। बोले “खुशाल चन्द। तेरा रनवीर तेरे पास अब आया ही समझ’। रनबीर इन दिनों जेल में मृत्यु पर फतह पाने वाले मंत्र का जाप कर रहा था। मैंने समझा स्वामी जी इस जाप का जिक्र कर रहे हैं या फिर अपनी आत्मिक शक्ति से बात कर रहे हैं। हँसकर पूछा “क्या आपने यह बात ध्यान में देखी?” वह बोले ‘नहीं’ तेरा चेहरा देखकर यह बात समझ में आई। जो इतनी मुसीबत में इस कदर खुशहाल रह सकता है, इस तरह हँस सकता है उसके बेटे उससे कौन छीन सकता है और वह बात ठीक हुई। रनवीर का बाल भी बाँका न हुआ।
परन्तु गायत्री माता सिर्फ इस लोक को ही नहीं देती परलोक भी देती है। लोक और परलोक दोनों का सुधार करती है। द्विज को पवित्र करने वाली वह माता आयु, प्राण, प्रजा, पशु, प्रीति, धन, दौलत, और ब्रह्म वर्चस् को देकर ब्रह्मलोक को ले जाती है।
उसी ने सब कुछ देकर इज्जत, दौलत, सन्तान, बेटे, बेटियाँ, मोटरें, सम्बन्धी इस प्यार भरी गायत्री माँ ने कहा- मार सबको लात, मेरे साथ आ मैं तुझे ब्रह्मलोक में ले चलूँगी और सब कुछ छोड़कर यह गेरुए कपड़े पहनकर माँ के दिखाये हुए मार्ग पर चल पड़ा।
आठ नौ वर्ष की इस छोटी आयु से लेकर 70 वर्ष की इस आयु तक हाँ 70 वर्ष का हो गया है यह शरीर मैं नहीं मैं तो आनन्द स्वामी हूँ। आनन्द स्वामी की आयु सिर्फ 4 साल साढ़े तीन महीने होती है आज। परंतु शरीर की उम्र के 70 वर्षों में आठ वर्ष से 70 तक एक दिन भी मुझे याद नहीं जब मैंने गायत्री माता की गोद में बैठकर अमृत न पिया हो।