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Magazine - Year 1955 - Version 2

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गुरु दक्षिण

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First 11 13 Last
(केशवदेव उपाध्याय, ‘कमलेश’ मथुरा)

“दूध!.... माता जी! दूध!!” यह कह कर अश्वत्थामा ने करुण दृष्टि से माँ की ओर देखा।

“दूध!.... भैया!”

“हाँ! माता जी! सभी बालक तो पीते हैं।”

बालक की सरल किन्तु सत्य उक्ति पर महाराज द्रोणाचार्य की धर्म के दिव्य ललाट पर चिन्ता की रेखायें उद्भूत हो गई, दूध कहाँ से आयेगा?

पतिदेव की दिनचर्या में दूध की माँग उपस्थित कर विघ्न खड़ा करना उस पति परायणा को इष्ट न था। आटे का दूध बना कर दरिद्र माता ने सरल चित्त बालक को भरपेट पिला दिया। पुत्र की माँग अनायास पूरी होने लगी।

एक दिन जब अश्वत्थामा ने आटे का दूध पीने का पात्र मुख से लगाया, अचानक तपस्वी द्रोणाचार्य आ निकले।

“क्या है अश्वत्थामा?”- उन्होंने स्नेह से पुकारा

“दूध पी रहा हूँ पिताजी!”- अश्वत्थामा ने संतोष भरे शब्दों में कहा।

“दूध!”

“जी हाँ”- कह अश्वत्थामा ने पात्र पिता के सन्मुख कर दिया।

अकारण स्वास्थ्य का दुरुपयोग वह सहन न कर सके। उन्होंने सरोष कहा- “अश्वत्थामा की स्वास्थ्य-रक्षा क्या इसी प्रकार होती है?”

“हाँ महाराज!”- उनकी धर्मपत्नी ने प्रत्युत्तर में कहा।

“क्यों?”

“दूध तो घर में नहीं है!”

“मुझसे क्यों नहीं कहा?”

“आपके एकान्त अध्यापन कार्य में दूध जैसी सामान्य वस्तु को लेकर अन्तराय उपस्थित करना क्या उचित होगा। फिर आप ही क्या करते। पुत्र के हठ पर आपको दूध का प्रबन्ध न कर देने पर और कष्ट होता, और फिर इस थोड़ी सी बात पर व्यर्थ असुविधा खड़ी कर देना क्या कम चिन्ता की बात होती?”

यह कह कर पतिप्राण रमणी ने भयभीत हरिणी की भाँति आचार्य को देखा।

उनका क्रोध उस दृष्टि में समूल विलीन हो गया और उसके स्थान में अपनी दरिद्रता का नीरव दृश्य क्षण-भर के लिये महर्षि की आँखों में प्रादुर्भूत हो गया।

उन्होंने कहा- “मेरी असुविधाओं का ध्यान करते करते तुमने इस सुन्दर शरीर को सुखा डाला है और जीवन-भर इस निर्धर ब्राह्मण की पर्णकुटरि में तुम्हें इन आपदाओं के सिवाय मिल ही क्या सकता था? अस्तु वह तो सब तुम्हारी रुचि के अनुकूल है। उस प्रकार रहने से शायद तुम्हें कुछ सुख मिलता है, किन्तु इस लाड़िले पुत्र के प्रति जो तुम्हारी यह भावना होगी प्रतिदिन दूध की जगह आटे का जल देने में जो तुम्हें आन्तरिक पीड़ा होती होगी उसे कब तक छिपा कर रख सकोगी?”

यह कह कर आचार्य ने भावपूर्ण दृष्टि से ब्राह्मणी की तरह देखा।

पुत्र का वात्सल्य अपनी असमर्थता से अधीर होकर माता के विशाल नयनों से स्नेह बरस पड़ा।

[2]

“द्वारपाल!”

“महाराज! साष्टांग अबनत हो।” द्वारपाल ने कहा।

“अपने महाराज से कहो, द्रोणाचार्य नाम का एक ब्राह्मण तुमसे मिलना चाहता है।”

महाराज द्रुपद की राजसभा बैठी थी। रत्न जटिल स्वर्ण सिंहासन पर महाराज अपने प्रमुख अधिकारियों के साथ मनोरंजन कर रहे थे। एक बड़ी बारहदरी में लोकोत्तर ऐश्वर्य के लाडिले राज पुरुष अपने योग्य राजा को वीर-गाथायें सुना रहे थे, उसी समय द्वारपाल ने सूचना दी—

महाराज द्रुपद चिंता में पड़ गये, उनका राज्य शासन में व्यस्त मस्तिष्क किसी प्रकार भी इस समय द्रोण की अभ्यर्थना के लिये तैयार नहीं था। गुरु परशुराम की धनुर्विद्या, जो द्रोणाचार्य ने बड़ी कठिनता से उनके गले में उतार दी थी, किन्तु वीरता से उनके गले में उतार दी थी, किंतु वीरता से उन्होंने उसे विस्मृति-मन्दिर के सुदूर एकान्त कोण में ढकेल कर अपना पिण्ड छुड़ाना चाहा।

द्वारपाल ने महाराज को चिन्तित देकर कहा— महाराज क्या ब्राह्मण को लौटा दूँ?

महाराज का ध्यान भंग हुआ। उन्होंने अन्यमनस्कता से कहा—आने दो।

द्वारपाल चला गया और क्षणभर बाद द्रोणाचार्य को साथ लेकर उपस्थित हुआ।

महाराज एक अनजान ब्राह्मण अतिथि के उपयुक्त सम्मान के लिये उठ खड़े हुये।

निर्दिष्ट आसन पर बैठते हुए आचार्य ने द्रुपद का अन्तर देख लिया। अपमानजन्य क्रोध से उनके होठ दाँतों में दब गये।

कुछ देर बाद द्रुपद ने लोक नीति के अनुसार प्रश्न किया—“तपस्वी विप्र! किस उद्देश्य से यहाँ पधारे?”

व्यवस्थित होकर आचार्य ने कहा—“द्रुपद! क्या तुम मुझे भूल गये!”

“महाराज मुझे ध्यान नहीं आता, आज से पहले कभी आपको देखा हो।” आचार्य अधीर हो गये। उन्होंने कहा—

“क्या कभी तुमने गुरु परशुराम के आश्रम में द्रोण नामक किसी विद्यार्थी को देखा था?”

बड़ी देर तक स्मृति-सागर को उथल-पुथल कर द्रुपद ने कहा—“सम्भव है, किन्तु वह तो कुछ ध्यान रखने लायक बात न थी।”

इस अपमान पर क्रुद्ध आचार्य ने कहा—“कृतघ्न द्रुपद! यह सारा बल यह सारी विद्या क्या उसी के द्वारा उपार्जित नहीं हुई जिसे आज तुम जान कर भी भूल रहे हो?”

द्रुपद का अन्तःकरण भीतर-ही-भीतर कृतघ्नता के पाप से आन्दोलित होने लगा। उसे घुमा कर उसने कहा—“गुरुजी के आश्रम में द्रोण एक साधारण विद्यार्थी था। वह स्वयं कुछ विशेष उपार्जन न कर सका। ब्राह्मण भी वीर-विद्या में पारंगत हो सकते हैं! यह वचन तो केवल गुरु परशुराम को लेकर अपवाद हुआ है।”

आचार्य ने कहा—

“अच्छा वीर राजर्षि! क्या कभी तुम्हें उस साधारण द्रोण विद्यार्थी से यह कहने का अवसर मिला था कि राज्याभिषेक होने के अनन्तर आधा राज्य उन्हें दे दूंगा?”

द्रुपद ने कहा—“हम क्षत्रिय, ब्राह्मण की रक्षार्थ अपनी उदारता से आधा राज्य ही क्यों, समस्त राज्य भी प्रदान कर देते पर मुझे ऐसा अवसर उपस्थित नहीं हुआ।”

क्रोधी आचार्य अब न सह सके—“कृतघ्न द्रुपद! मैं वही द्रोण हूं। मुझे राज्य की लालसा नहीं थी, केवल एक दूर देने वाली गाय की अभिलाषा से ही तेरे निकट आया था। तूने गुरु का अपमान कर धनुर्विद्या का ही अपमान किया। नराधम! शीघ्र ही तेरा राज्य-मद इस ब्राह्मण के द्वारा चूर्ण होगा” आचार्य चले गये। द्रुपद ज्यों-का-त्यों बैठा रहा।

[3]

द्रुपद के व्यवहार से आचार्य का मन खिन्न हो गया था, क्षत्रिय जाति पर उन्हें क्रोध और घृणा होने लगी। आवश्यकता होने पर भी भीष्म के निकट जाने की उनकी इच्छा जाती रही। राह में एक विशाल कूप पर बैठ कर वह चिंतामग्न हो गये।

कुछ देर बाद कुछ राजकुमार खेलते हुए उधर आ निकले। शैशव की चंचलता उन्हें तेज हवा की भाँति झकझोर रही थी। खेलते-खेलते ज्यों ही वे कूप के निकट आये त्यों ही उनकी गेंद उछल कर कूप में जा गिरी।

सभी ने यथा शक्ति उसे बाहर निकालने के उपाय किये, किन्तु वह निर्मोही गेंद बालकों के मन की बात न जान सकी। स्निग्ध सरस शीतल जल को क्षणिक मिलन विरह में बदल देने के लिए उसका हृदय तैयार न हुआ।

आचार्य सब देख रहे थे, कोमल हृदय बालकों की बेचैनी उनसे छिपी नहीं। आचार्य का क्षुब्ध तपस्वी मन बालकों की सौम्य सरल दृष्टि में क्षण भर के लिये आनन्द मग्न हो गया, उन्होंने एक बाण से उसका हृदय बींध कर ऊपर निकाल दिया।

राजकुमार आश्चर्यचकित हो कहने लगे—

“महाराज! आप हमारे दादा के पास चलिये, वह आप-जैसे बाण विशारदों को देख कर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं।”

“वह कौन हैं!” आचार्य ने कहा—

“भीष्म-पितामह!”

“आह! वह मेरे गुरुभाई हैं, सहाध्यायी।”

“तो चलिये न ।”

मैं नहीं जा सकेगा, तुम उनसे जा कर कह दो एक द्रोणाचार्य नाम के ब्राह्मण तुमसे मिलन चाहते हैं।”

राजकुमार लौट गये और कुछ देर बाद भीष्म पितामह आचार्य के स्वागत के लिये प्रमुख राज पुरुषों के साथ द्रोण के निकट उपस्थित हुए।

स्वागत के अनन्तर भीष्म-पितामह ने कहा—

“आचार्य! ये राजकुमार आपकी धनुर्विद्या से प्रभावान्वित हो गये हैं, इन्हें शिक्षा देकर वीर बनाइये। यह राज्य और राजकुमार सभी प्रकार आपकी सेवा के लिये प्रस्तुत रहेंगे।”

आचार्य का ब्राह्मण हृदय इस विनय पूर्ण आग्रह से गदगद हो गया। वह सपत्नीक हस्तिनापुर आकर रहने लगे।

[4]

आचार्य की विलक्षण शिक्षा-शैली ने कुरु और पाण्डु-वेश में धनुर्विद्या का अपूर्ण चमत्कार खड़ा कर दिया।

राजकुमार अव साधारण राजकुमार न रह गये थे। उनका धनुर्ज्ञान दिव्य हो उठा था, वीरता दूर-दूर तक विख्यात हो गई थी। अश्वत्थामा भी राजकुमारों के संग अद्भुत प्रतिभाशाली वीर बन गया। अब उसे दूध की जिद न थी। माँगने का अवसर ही न मिलता था। बिना माँगे ही राज्यलक्ष्मी हाथ बाँधे आचार्य के कुटी द्वार पर खड़ी रहती थीं।

भीष्म पितामह की इच्छा से राजकुमारों की परीक्षा के लिये राज सभा बैठी। कुरु और पाण्डु वंश के सम्मिलित राज पुरुषों में दूर-दूर के निमन्त्रित राजे-महाराजे भी उपस्थित थे।

नियत समय राजकुमार पधारे। परीक्षा प्रारम्भ हुई। दुर्योधन, दुशासन, भीम आदि ने अपनी कुशलता से सब को चकित कर दिया। बारी-बारी से सभी ने अपना कौशल दिखाया। योग्य स्नातकों को देख कर भीष्म आचार्य के सद्गुणों पर अधिक रीझ उठे। सब से अन्त में अर्जुन उठा। वह आचार्य का सबसे अधिक प्रिय शिष्य था। आचार्य ने आज्ञा दी, पार्थ ने धनुष उठाया। उसके विलक्षण शर-सन्धान को देख कर सब भयभीत हो गये। अर्जुन पलभर में दिव्यास्त्रों का आवाहन कर एक अभूतपूर्व बाण-चातुरी से विकट संहार का दिग्दर्शन करने लगा।

समागत राजपुरुषों का मन इस अद्भुत बलशाली वीर के पराक्रम से चिंतित हो गया। भविष्य की आशंकाओं ने क्षण-भर के लिये उनके अन्तर में घोर हाहाकार मचा दिया।

आचार्य ने अर्जुन को आशीर्वाद देकर शाँत कर दिया—“परीक्षा समाप्त हो गई।”

[5]

भीष्म की आज्ञा से राजकुमार गुरु दक्षिणा के लिये आगे बढ़े। आचार्य क्षण भर मौन रह कर बोल उठे—

“अर्जुन! तुम सभी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार धनुर्विद्या के पारंगत पण्डित हो गये। अब उसी के प्रत्युपकार स्वरूप गुरु-दक्षिण की आज्ञा सुनना चाहते हो!”

राजकुमारों ने अवनत होकर कह—“हाँ गुरुदेव! जो कुछ आज्ञा होगी, वह प्राणों की बाजी लगा कर भी अवश्य पूरी की जायगी।”

“अच्छा तो सुनो, इसी समय द्रुपद को बाँध कर मेरे सामने उपस्थित करो और उसके समस्त राज्य में राजा की जगह मेरा नाम घोषित कर दो यही मेरी उपयुक्त गुरु-दक्षिण है।”

[6]

आचार्य के आदेश के अनुसार द्रुपद बाँध कर लाया गया। अर्जुन ने आगे बढ़ कर कहा—“देव! द्रुपद उपस्थित है।”

आचार्य ने सरोष एक नजर द्रुपद को देखकर मुख फेर लिया। अपराधी द्रुपद आचार्य की इस उपेक्षा से अधीर हो रहा था।

क्षण-भर बाद अर्जुन ने फिर कहा—“आचार्य, बन्दी के लिये क्या आज्ञा होती है?”

एक अन्तर्भेदी दृष्टि डाल कर आचार्य ने कहा—“अभिमानी द्रुपद ! कृतघ्न द्रुपद! मुझे पहचानते हो, मैं कौन हूँ?”

भयभीत द्रुपद ने श्रद्धांजलि होकर—“आचार्य! आप तो राज गुरु द्रोणाचार्य हैं।”

“जिस समय तुम्हारे द्वार पर गया उस समय कौन था?”

द्रुपद पृथ्वी पर आँखें गड़ाकर रह गया।

आचार्य ने कहा—“ब्राह्मण का अपमान, गुरु के प्रति-कृतघ्नता, प्रतिज्ञा भंग और मिथ्याचार—एक साथ चार अपराध हैं ऐसे दुर्विनीत मनुष्यों को राज्य शासन करने देना द्रुपद, प्रजा के साथ घोर कृतघ्नता है। अर्जुन! अर्जुन इसको मेरी कुटिया के द्वारा पर आजीवन बन्दी बन कर रहना होगा और राज्य मेरा है, उसका शासन प्रबन्ध तुम करना और राज्य की आय प्रजा के हितों में व्यय कर देना।”

द्रुपद का रंग बिगड़ गया, ऐसी कठोर दण्डाज्ञा सुन कर उसके प्राण रो उठे। वह आचार्य के चरणों में गिर गया। रोते-रोते उसने कहा—“गुरुदेव! आचार्य!! मुझे क्षमा करो, अपने पाप कर्मों के प्रति मुझे क्षमा करो, मैं पापी हूँ, जान-बूझ-कर मैंने आपका अपमान किया था, मुझे घोर कष्ट हो रहा है।”

क्षण-भर में आचार्य का ब्राह्मण हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने कहा—“यदि पश्चाताप हुआ है तो मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ, किन्तु भविष्य में राज्यमद से भूल कर किसी की अवज्ञा न करना, मिथ्या न बोलना।”

द्रुपद ने आचार्य के चरण स्पर्श कर कहा—“गुरु-देव! फिर ऐसा कदापि न होगा।”

सन्तुष्ट मना आचार्य ने कहा-अर्जुन! मेरी ओर से द्रुपद को राज्य-तिलक कर दो—गुरु-दक्षिणा में पाया हुआ राज्य मैं अपने अपराधी शिष्य को फिर सहर्ष प्रदान करता हूँ।

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