
तुम तुच्छ नहीं हो
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(कुमारी भारती)
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है अपना “उद्धार तुम स्वयं करो, अपने आपको हीन न समझो मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र अथवा शत्रु है।
जब मनुष्य अपनी हिंसा स्वयं नहीं करता तभी वह उन्नति कर सकता हैं”
अपने आपको हीन समझना निकृष्टतम हिंसा है। इस बुराई को छोड़ो।
तुम आत्मा हो। मनुष्य हो, सबसे अधिक विकसित प्राणी हो। फिर तुम अपने को हीन क्यों समझते हो।
तुम्हारे पास धन नहीं तो क्या हुआ। संसार के सर्वश्रेष्ठ महापुरुष गाँधी से भी तुम निर्धन हो क्या सम्भव है तुम्हारी हीनत्व भावना ने ही तुम्हें निर्धन बनाया हो। यह बुराई तुम्हारा महान शत्रु है।
तुम सदा सुस्त और निराश दिखाई देते हो। तुम्हें सभी आपसे बड़े और मालिक दिखाई देते हैं तुम बोलते हुए भी डरते हो सदा सबसे पीछे ही चलते हो ऐसा क्यों? इसका कारण हैं तुम अपने आपको छोटा डीन निकम्मा और अनुपयोगी मानते हो। यदि तुम पिछड़ते गये तो तुम्हें कन्धे पर उठा कर कोई आगे न ले चलेगा। यदि तुमने अपने आप को खुद ठोकर मार दी वो स्मरण रखो जो भी आएगा तुम्हें ठोकरें मारता हुआ आगे बढ़ता चलेगा। यह संसार बढ़ते और दौड़ते का साथी है मरे हुए को फूँक कर अथवा मिट्टी में मिला कर शीघ्र ही दुनिया भुला देती है। सब के पास अपने ही अनेक प्रश्न हैं जिनका समाधान वह ढूँढ़ते हैं। तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर तुम्हें स्वयं ही तलाश करना होगा।
जब तुम्हारा सभा अथवा संस्था में कहीं अपमान होता है तब तुम रो कर संतोष कर लेते हो कि तुम्हारा अपमान आश्चर्यजनक नहीं तुम्हारी कीमत तुम स्वयं ही बहुत कम आँकते हो फिर दुनिया को क्या पड़ी है कि तुम्हें कीमती माने।
सम्भव है तुम अपनी हीनत्व भावना को विनय का रूप दो, यह तुम्हारी विचित्र और दयनीय अवस्था है। कृपया इस दल-दल में से अपने आपको निकालो हीनत्व भावना और विनय का कोई भी तो संबन्ध नहीं
विनय और क्षमा स्वाभिमानी तथा समर्थ पुरुष को शोभा देते हैं। क्या हुआ तुम्हारे पास साधन नहीं क्या तुम्हारे पास ऊंचे मकान और तड़प-भड़क का सामान नहीं। अपने आपको इतने से ही हीन न मान लो। यदि तुम चाहो और अध्यवसाय करो तो इन के बिना भी आप महान् हो सकते हो और इनसे भी अच्छे साधन जुटा सकते हो। कभी आपने यह भी सोचा है कि अधिक धन साधन मनुष्य को निष्क्रिय और पतित बना देते हैं। सब से उत्तम धन है उद्यम, सतत् कार्य और सच्चरित्रता। यह धन हाथ से न जाने देना।
तुम्हें अपना अथवा अपने परिवार का पेट भरने के लिए किसी संस्था में अथवा किसी के पास कार्य करना होता है यह कोई अनहोनी बात नहीं। यदि तुम्हारा कार्य कुछ पैसा लिये बिना नहीं चल सकता तो अपने निर्वाह के लिए पैसा लेना तुम्हारे लिए स्वाभाविक है। परन्तु कुछ पैसा लेने भर से तुम उस संस्था अथवा व्यक्ति के क्रीतदास अपने आप को न मानो। अपने मालिक का मानवता के नाते सत्कार करना अथवा अपने बड़े अधिकारी की आज्ञा का पालन करना तुम्हारा कर्त्तव्य है यह सर्वथा उचित है। परन्तु केवल पैसा लेने के कारण तुम किसी के आगे-पीछे घूमते रहो। उसकी हर भली बुरी बात का समर्थन करो, येन-केन प्रकारेण मालिक को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करो तो यह पहले दर्जे की नीचता है इस नीचता की जननी हीनत्व भावना है। यह भावना अनेक बुराइयों की जननी है इसे मार डालो इस में कुछ भी हिंसा नहीं विश्वास करो।
जो तुममें कमियाँ हैं उन्हें दूर करो परन्तु अपने आपको हीन और व्यर्थ न मान लो।
जगत् में स्वाभिमान के साथ जीवित रहने का तुम्हें भी वैसा ही अधिकार है जैसा कि औरों को है।
अपने आप को हीन न समझो। यही उन्नति का रहस्य है।