
दहेज का एक कारण यह भी है?
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(श्री. आत्मदेव तिवारी)
वर्तमान समाज का रूप बहुत कुछ वैसा ही है जैसा कि मध्ययुग में रहा है। सैकड़ों वर्षों से हमारे समाज में धन की प्रधानता रही है। विवाह का आधार भी धन ही रहा है और अब भी है। विवाह के अनेक नियमोपनियामों के बावजूद धन के आगे सभी को झुकना पड़ा। धन के बल पर ही तो योजनागंधा ऐसी सुन्दरी को शान्तनु जैसे बूढ़े प्राप्त कर सके। धन के प्रभाववश ही तो राजा-महाराजा आवश्यकता से अधिक स्त्रियों को अपने यहाँ रख लेते थे। मुसलिम शासन में तो जितना ही धनी होता था वह उतनी ही अधिक स्त्रियाँ और रखेलियाँ रखता था। आजकल भी प्रायः यही दृश्य दिखाई देता है। यद्यपि मनु आदि स्मृतिकारों ने विवाह के सम्बन्ध में अनेक प्रतिबन्ध लगा रखे हैं, परन्तु धन के सम्मुख वे सभी ढीले पड़ जाते हैं। धन के बल पर नीच जाति का पुरुष ऊँची जाति की कन्या से विवाह कर सकता है। यहीं नहीं, कुरूप तथा अंगहीन होने पर भी धनी व्यक्ति किसी सुन्दरी से विवाह कर सकता है। एक पत्नी के मर जाने पर अथवा जीवित रहने पर भी धनवान् व्यक्ति किसी अन्य कुमारी से विवाह कर सकता है। इसके अगणित उदाहरण हमें वर्तमान समाज में देखने को मिलेंगे।
हम मानते हैं कि हमारे समाज में ऐसे माता-पिता भी हैं जो धन के इस व्यापक प्रभाव से मुक्त हैं। ऐसे लोगों ने व्यक्ति गत योग्यता के आधार पर ही अपनी कन्याओं का विवाह किया है। परन्तु एक बड़ी संख्या ऐसे अभिभावकों की है जो किसी धनी से नाता जोड़ने के हेतु चिन्तित रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि अयोग्य अथवा साधारण योग्यता के लोग अपने धन के बल पर दो-दो तीन तीन शादियाँ कर लेते हैं और बहुत से सुशिक्षित युवकों को अच्छी पत्नी नहीं मिलती।
विवाह के इस दूषित आधार से सम्बद्ध एक दूसरी समस्या दहेज की है। संसार से जिस प्रकार दुःख-दारिद्रय दूर करने के अनेक विफल प्रयत्न किये गये। उसी प्रकार दहेज को मिटाने के भी अनेक प्रयास हुए हैं परन्तु दहेज की प्रथा अब भी पूर्ववत् बनी है। कहा जाता है कि दहेज के कारण कितनी ही निर्दोष कन्याओं के प्राण गये और कितने ही माँ बाप कंगाल हो गये। फिर भी क्या कारण है कि यह समस्या ज्यों की त्यों है। एक कहावत है कि धन की तीन गति हैं- दान, भोग और नाश। बस धनी वर्ग ने संचित धन के उपयोग (अथवा दुरुपयोग) का यह भी एक उपाय निकाल रखा है। कन्या के साथ-साथ वे वर पक्ष बालों को रत्न सुवर्ण तथा अन्य बहुमूल्य वस्तुएँ देते हैं। इस प्रकार के आदान-प्रदान में वे गर्व का अनुभव करते हैं।
दहेज के सम्बन्ध में एक और मत है। बहुत से गरीब माँ-बाप ऐसे है जो येन-केन उपायों द्वारा धनिक वर्ग से सम्बन्ध स्थापित करने को लालायित रहते हैं। ऐसे लोगों की बाढ़ रोकने के लिए दहेज प्रतिबन्ध स्वरूप है। जहाँ तक धनिकों की बात है, दहेज कोई समस्या नहीं है। इसे रोकने अथवा निर्मूल करने की कोई आवश्यकता नहीं। कुछ समय पूर्व युक्त-प्रान्तीय असेम्बली में श्री जयराम वर्मा ने दहेज प्रथा विरोधी कानून बनाने का प्रस्ताव किया था। परन्तु उन्हें यह प्रस्ताव वापिस लेना पड़ा। उनसे कहा गया कि इस प्रकार के विधान को कार्यान्वित करने में अनेक कठिनाइयाँ पड़ेंगी। कोई भी अभिभावक अपने नये सम्बन्धी को अदालत द्वारा दण्ड दिलाना नहीं चाहेगा। सच्ची बात तो यह है कि दहेज के सभी विरोधी नहीं। जब गरीब माँ बाप किसी धनिक के लड़के से अपनी कन्या ब्याहना चाहते हैं उस समय दहेज की लम्बी रकम चुकाने में उन्हें कठिनाई जान पड़ती है और वह प्रथा उनके लिए समस्या का रूप धारण कर लेता है। ऐसी स्थिति में बहुत-सी निरीह कन्याओं को अपना बलिदान करना पड़ता है और समाज में लोक नारे लगाने लगते हैं कि दहेज प्रथा बुरी है और उसे मिटाना आवश्यक है।
कुछ वर्ष पहले प्रयाग के एक प्रसिद्ध सज्जन ने दहेज-प्रथा की बुराइयों की चर्चा करते हुए लिखा था कि जिन कन्याओं को दहेज की प्रथा के फलस्वरूप दुख भोगना पड़ता है उनके अभिभावकों का ‘माथा ऊँचा’ रहता है। तात्पर्य यह है कि ऐसे अभिभावक स्वयं निर्धन होते हुए धनिकों के घर ही अपनी कन्याओं का विवाह करना चाहते हैं। यदि वे अपने ही समान आर्थिक स्थिति के लोगों से सम्बन्ध स्थापित करें तो दहेज समस्या के रूप में उनके समक्ष उपस्थित ही न हो। हमें धनिक बग की अन्धभक्ति से अपने को विरत करना होगा। अपनी पूँजीवादी मनोवृत्ति को सुधार कर जनतन्त्रीय भावनाओं को अपनाना होगा।
एक पुरानी कहावत है कि वैर, ब्याह और प्रीति’ समान में ही करना चाहिये। यह कथन बड़ा ही सारगर्भ एवं महत्वपूर्ण है। जब विवाह आर्थिक साम्य के अनुकूल होंगे तो पुनर्विवाह, बहु-विवाह आदि स्वयं ही निर्मूल हो जाएंगे। तब यह दृश्य देखने में नहीं आयेगा कि विधुर एवं प्रौढ़ लोग तो अनेक विवाह, सो भी कुमारियों से, कर लें और बहुत से युवकों को योग्य पत्नियाँ ही न मिलें। विवाह का आधार प्रेम होना चाहिये। वास्तविक प्रेम आर्थिक दृष्टि से विषम लोगों में नहीं हो सकता। होगा भी तो वह कृत्रिम प्रेम ही होगा। समान लोगों में विवाह का आधार धन न हो कर व्यक्ति गत योग्यता मानी जायगी।
इस सम्बन्ध में हम अपने देश के प्रबुद्ध नारी समाज तथा अपनी प्रगतिशील बहिनों से अपील करेंगे कि उन्हें स्वयं इस दिशा में अग्रसर होना चाहिये। साधारण स्थिति की बहिनों से हम कहेंगे कि धनिक की दासी बनने का स्वप्न देखते उन्हें बहुत दिन हो गये। अब समय बहुत कुछ बदल गया है। यह समाजवाद का युग है। हमें चाहिये कि समान लोगों में विवाह सम्बन्ध होंगे तो दहेज की समस्या आपसे आप लुप्त हो जायगी। उसके लिये कानून बनाने की आवश्यकता न पड़ेगी। अब हम स्वतन्त्र देश के नागरिक हैं। हमारा आदर्श समाजवादी जनतन्त्र की स्थापना है। अतएव हमें पूँजीवादी मनोवृत्ति का त्याग कर समाजवादी मनोवृत्ति को अपनाना होगा, तभी हमारा कल्याण है।