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Magazine - Year 1955 - Version 2

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(प्रो. कन्हैयालाल सहल, एम.ए.)

भगवान से कोई पूछे कि वह चाहे जब और चाहे कहीं मृत्यु को जाने की इजाजत क्यों दे देता है? वृद्ध के पास मृत्यु आ जाय तो कोई अनहोनी बात नहीं, और फिर यदि वृद्ध के पास मृत्यु न जाय तो जाय भी कहाँ? किन्तु मृत्यु की एक बात बहुत खटकती है, वह युवकों के पास भी क्यों बिना बुलाये पहुँच जाती है? सच मानिये मुझे मृत्यु का पता ही नहीं था, मृत्यु क्या चीज होती है, किन्तु जब मेरी प्रियतमा संसार को छोड़ कर चल बसी, मृत्यु के भयंकर हाथों ने जब उसको मुझसे छीन लिया तो मैं “का वार्ता” के इस उत्तर का मन ही मन दोहराने लगा—

अस्मिन्महामोहमये कटाहे सूर्याग्निना रात्रिदिवेस्वनन मासर्तुदर्वो परिघटनेन भूतानिकालः पचतीति वार्ता॥

यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था कि हे युधिष्ठिर! बतलाओ खबर क्या है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया था संसार रूपी महामोह का कड़ाह है, सूर्य की आँच है रात दिन का ईंधन जल रहा है सब प्राणी इस कड़ाह में पड़े हैं और महीने और ऋतुओं की करछुल से घोंट कर काल उन प्राणियों को पका रहा है, बस यही एक मात्र खबर है।

सब ऋतुयें अपने अपने समय पर आती है किन्तु हे भगवान्! तुम्हारी सृष्टि में यह कैसा नियम है कि इस मृत्यु की कोई ऋतु नहीं, कोई मौसम नहीं इसका कोई समय निर्धारित नहीं, इसका कोई पल निश्चित नहीं—यह चाहे जब आ जाय!

बहुत से मनुष्य तो मृत्यु के नाम मात्र से ही भयभीत हो उठते हैं; मृत्यु की चर्चा को वह एक प्रकार का अपशकुन समझते हैं—वे सोचने लगते हैं कि कहीं अपनी चर्चा से आकृष्ट होकर मृत्यु वहाँ पहुँच न जाय!

मृत्यु क्या सचमुच ऐसी भयंकर चीज है? ऐसे वीर पुरुष इस धरा धाम पर अवतीर्ण हुए हैं जिन्होंने मृत्यु के साथ खिलावड़ किया है। राजस्थान में वीर योद्धा जब देश और धर्म की रक्षा के लिए अपने को न्यौछावर कर देता था तो यहाँ मरण-त्यौहार की कल्पना तो एक दम रोमाँच जान पड़ती है। ‘भारतीय आत्मा’ ने तो ‘मरण त्यौहार’ पर सुन्दर कविता भी लिखी है। अंग्रेजी साहित्य के दार्शनिक कवि ब्राउनिंग ने अपनी स्त्री की मृत्यु के बाद एक कविता लिखी थी जिसमें मृत्यु को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था हे मृत्यु जब कभी तू आये, मेरे सामने से आना ताकि मैं तुमसे लोहा ले सकूँ, तुम्हारी विभीषिकाओं से खेल सकूँ—मेरा जीवन तो संघर्ष का जीवन रहा है, मृत्यु के रूप में एक संघर्ष और सही!

ऐसे दार्शनिक इस दुनिया में हुए है जो मृत्यु के समय भी विचलित नहीं हुए। महात्मा सुकरात को इस बात का पता था कि दूसरे दिन उसको विष का प्याला दे दिया जायेगा किन्तु फिर भी उसे गहरी नींद में सोते देख कर उसके मित्र क्राइटो के आश्चर्य का ठिकाना न रहा था। ‘अनलहक अनलहक’ की रट लगाने वाला मंसूर खलीफा द्वारा फाँसी पर चढ़ाया गया तो हजारों लोग इस दृश्य को देखने के लिये इकट्ठे हुए। दर्शकों में से किसी ने पूछा—मंसूर, प्रेम क्या है? मंसूर ने उत्तर दिया—। ‘आज देखोगे, कल देखोगे।’ उसका अभिप्राय यह था कि आज मुझे फाँसी पर चढ़ा दिया जाएगा कल मेरा शरीर भस्म कर दिया जायेगा, परसों कोई चिन्ह भी बाकी नहीं रहेगा। कुछ दुष्ट मनुष्यों ने मंसूर की ओर पत्थर भी फेंके, किन्तु फिर भी वह शान्ति धारण किये रहा, क्षुब्ध या उत्तेजित न हुआ। कहा—मेरे भौतिक हाथों का काट डालना सहज है, किन्तु किसमें शक्ति है जो मेरे आध्यात्मिक हाथों को काट सके? जब उसके पैर काटे जाने लगे तो वह बोल उठा—इन पैरों से तो मैंने पृथ्वी पर भ्रमण किया है, किन्तु मेरे आध्यात्मिक पैर भी है जिनके द्वारा मैं स्वर्गलोक में भ्रमण करूंगा। किसी में सामर्थ्य हो तो वह आकर मेरे आध्यात्मिक पैरों को काटे।

जब मंसूर की आँखें निकाल लीं गई तो बहुत से मनुष्यों का हृदय द्रवीभूत हो उठा, हृदय-स्रोत नेत्रों के द्वारा अश्रुओं के रूप में उमड़ पड़ा। जब उसकी जीभ काटी जाने लगी तो मंसूर ने कहा—कुछ क्षणों तक धैर्य धारण करो, मैं दो शब्द निवेदन करना चाहता हूँ। तब अपने मुँह को ऊँचा कर उसने कहा-हे परमेश्वर! इन लोगों ने जितनी यन्त्रणायें मुझे दी हैं, उनके लिये इन्हें दण्ड न देना, इन्हें सुखों से वंचित न करना। इस प्रकार हंसते-हंसते यह सूफी सन्त मृत्यु के प्रेमालिंगन में आबद्ध हो गया था।

बहुत से दार्शनिकों की दृष्टि में तो मृत्यु विभु का वरदान है। जो वस्तु इतनी प्राकृतिक हो, इतनी सार्वभौम और इतनी सार्वजनिक हो वह कभी अनिष्टकारिणी हो ही नहीं सकती। कालीदास कह गये हैं :—‘मरणं प्रकृतिः शरीरिणाँ विकृतिर्जीवन मुच्ते बुधैः’ और फिर इस मृत्यु में समानता भी कितनी है! कहते हैं कि एकबार डाइवोगेनेस नाम का दार्शनिक किसी मृत दास की हड्डियों को बड़े गौर से देख रहा था। सिकन्दर ने पूछा—दार्शनिक इन हड्डियों में तुम क्या ढूंढ़ रहे हो? दार्शनिक ने उत्तर दिया—तुम्हारे पिता की हड्डियों और उसके दासों की हड्डियों में मुझे कोई अन्तर नहीं मिल रहा! उसी की तलाश में था!

कितना महत्व है इस मृत्यु का! प्लेटो की दृष्टि में तो मौत पर मनन करना ही तत्व ज्ञान की परिभाषा है, और शोषनहार ने कहा है कि मृत्यु को देख कर ही मनुष्य के हृदय में पहले पहले तत्वचिन्तन की वृत्ति सजग हुई थी। रवीन्द्र जैसे कवियों ने मृत्यु के दर्शन-शस्त्र पर बहुत कुछ लिखा है, सच कहा जाय तो, रवीन्द्र के मृत्यु सम्बन्धी विचारों से स्वयं मृत्यु भी गौरवान्वित हुई है। मरण जीवन का अन्त नहीं है। वह तो माता के एक स्तन को छोड़ कर दूसरे स्तन के लगने के समान है। मृत्यु को चीर कर भी जीवन का स्त्रोत बहता रहता है। जीवन और जन्म एक ही वस्तु नहीं है, जीवन व्यापक है तो जन्म है व्याप्य। जीवन के शाश्वत प्रवाह में न जाने कितने जन्म-मरण बहते रहते हैं। जन्म-मरण तो वास्तव में जीवन के एक अध्याय का अथ और इति मात्र हैं।

किसी वस्तु दाँया बाँया जैसे एक ही वस्तु के दो पक्ष हैं, उसी प्रकार जन्म और मरण को भी समझना चाहिये मरण जीवन का अन्त नहीं, क्योंकि मरण के बाद तो जीवन नये सिरे से प्रारम्भ होता है। इसलिये मृत्यु किसी भी हालत में डरने की वस्तु नहीं। कल्याण मार्ग का पथिक मौत से भी नहीं डरता, और फिर तात्विक दृष्टि से देखा जाय तो आत्मा अमर है, और अमर मानव मृत्यु से क्या डरे? इसीलिये तो विश्वास के स्वर में कबीर ने कहा था :—

“हम न मरिहै मरिहै संसारा। हमको मिला जिलावन हारा॥”

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