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Magazine - Year 1959 - Version 2

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आध्यात्मिक प्रतीकों का रहस्य

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(श्री हेमचन्द्र साहित्य मनीषी)

धार्मिक साहित्य में अनेक बातें चिन्हों अथवा संकेतों द्वारा प्रकट की जाती हैं। उदाहरणार्थ भगवान विष्णु के चार हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म बतलाये गये हैं। इसका अर्थ यह समझना कि भगवान वास्तव में इन स्थूल पदार्थों को लिये रहते हैं ठीक नहीं। वरन् ये वस्तुएँ उनकी चार प्रकार की शक्तियों की प्रतीक हैं। इनके द्वारा अनेक बड़ी-बड़ी बातों को अति संक्षेप में कहा जा सकता है और साधकों को निराकार शक्ति की अपेक्षा साकार वस्तुओं का ध्यान करने में भी सुगमता रहती है। यह संकेत अथवा प्रतीक शास्त्र बहुत बड़ा है और आर्य जाति के मूल प्रतीक ॐ की व्याख्या ही इतनी विस्तृत है कि उससे एक विशाल ग्रंथ भर जाये। इसी प्रकार गणेश जी की सूँड और चूहे की सवारी, देवी की दस भुजाएँ और सिंह की सवारी, शिवजी का त्रिशूल सर्पों की माला और बैल की सवारी आदि सैंकड़ों प्रतीक हिन्दू धर्म ग्रन्थों में पाये जाते हैं जिनमें बहुत सा धार्मिक और आध्यात्मिक ज्ञान भरा हुआ है। इस प्रकार के गूढ़ प्रतीकों की व्याख्या करने का प्रयत्न अनेक विद्वानों ने किया है और उससे हमारी बहुत कुछ ज्ञान-वृद्धि होती है। इस प्रकार की व्याख्या कुछ थियोसॉफी (ब्रह्म विद्या) समाज के कुछ आत्म ज्ञानियों ने की है इन विद्वानों के कथनानुसार संसार की आध्यात्मिक व्यवस्था करने वाला एक गुप्त ऋषिसंघ है, जिसका आश्रम साधारण लोगों के लिये अगम्य स्थान में है। उसमें पाये जाने वाले एक ग्रंथ में से कुछ प्रतीकों का वर्णन इस प्रकार है।

इस ग्रंथ में जिसका नाम “ज्ञान” है पहले पृष्ठ में एक श्वेत वर्तुल या घेरा दिया हुआ है, यह परमात्मा की निराकार (अव्यक्त) अवस्था का सूचक है। दूसरे पृष्ठ में श्वेत-चक्र के मध्य में एक बिन्दु है जो व्यक्त ईश्वर (महेश) का सूचक है। तीसरे पृष्ठ में यह मध्य बिन्दु रेखा के आकार का हो जाता है जिससे उस चक्र के दो समान भाग हो जाते हैं, इससे पुरुष और प्रकृति की भिन्नता का और द्वितीय ईश्वर (विष्णु)का बोध होता है। इसे सदैव द्वैत-भाव युक्त कहते हैं। चौथे पृष्ठ में इस रेखा पर दूसरी खड़ी रेखा लंब रूप में उसे काटती है जिससे वह चार बराबर भागों में बँट जाता है। इससे तीसरे ईश्वर (ब्रह्म) की निश्चेष्ट अवस्था का बोध होता है। आगे के पृष्ठ में परिधि (वृत्त) का लोप हो जाता है और केवल एक दूसरे को समकोण पर काटती हुई दोनों रेखाएँ ही रह जाती हैं। यही हिन्दुओं का ‘स्वास्तिक” और ईसाइयों का “क्रास” चिन्ह है। यह “ब्रह्मा” की उस अवस्था का द्योतक है जब वह सृष्टि रचना के लिये और अपने जगत की प्रकृति में अवतीर्ण होने के लिये तैयार हो जाता है। यह चिन्ह दुनिया के हर एक देश में और हर एक धर्म के सम्बन्ध में पाया जाता है।

जिस “ज्ञान-ग्रंथ” में उपर्युक्त संकेत दिये हैं उसको कई व्यक्ति “महात्माओं” के आश्रम में जाकर देख चुके हैं। उसमें ऐसी ओजस्-शक्ति भरी है कि उसका एक पन्ना हाथ में लेते ही एक विचित्र प्रभाव पड़ता है। लेने वाले की दृष्टि में, उस पन्ने से जिस बात का संकेत होता है, उस बात का चित्र सा खिंच जाता है और जिन वाक्यों में उसका वर्णन होता है वे सुनाई देने लगते हैं। इस अनुभव को शब्दों द्वारा प्रकट कर सकना बड़ा कठिन है। यह ग्रंथ जिसे लोगों ने देखा है मूल-ग्रन्थ नहीं है, वरन् उसकी नकल है जो गुप्त-विद्या सम्बन्धी अजायब घर में रखा है। मूल ग्रंथ तो शम्बाला या शम्बल देश में सिद्ध-संघ के अधिष्ठाता के अधिकार में है और संसार का सबसे पुराना ग्रंथ है। जो सृष्टि के आदि में ही बना था। महात्माओं के पास वाली नकल भी लाखों वर्ष पुरानी है।

दूसरा प्रसिद्ध संकेत “पक्षिराज” अथवा गरुड़ का है। वह ईश्वर के अपने जगत पर मँडराने का, जल रूप में जगत पर छा जाने का, अथवा विकास क्रम से नीची अवस्था में प्रकट होने का बोध कराता है। पक्षिराज के पंखों में विश्राम करने का अर्थ इस प्रकार का ध्यान करना है कि जिससे ध्यान करने वाला ‘ब्रह्म’ में लीन हो जावे।

अब से आठ लाख वर्ष पूर्व ‘एटलान्टिस’ नामक महाद्वीप था, जिसका अधिकाँश भाग उस स्थान में था जहाँ आजकल अटलाँटिक महासागर लहरें मार रहा है। उसके “गोल्डिन गेट” नामक शहर के सब से बड़े मंदिर की सबसे भीतरी वेदी तक पर सोने की संदूक रखी रहती थी जिसका आकार एक बहुत बड़े हृदय की तरह था। उसके खोलने की गुप्त रीति केवल बड़े पुजारी को मालूम थी और उसे संसार का हृदय कहा जाता था। जितनी गुप्त-रहस्य क्रियाएँ उन लोगों को मालूम थी उन सबकी स्त्रोत वही संदूक थी। उसमें वे अपनी सब से अधिक पवित्र वस्तुएँ रखते थे और धार्मिक चिन्हों का सम्बन्ध भी उसी से था । वे जानते थे कि प्रत्येक परमाणु हृदय के समान धड़कता है और समझते थे कि सूर्य में भी इसी प्रकार की गति हुआ करती है। उनके ग्रंथों में कहीं-कहीं ऐसी बातें मिलती थीं जिनसे विदित होता है कि वे भौतिक विद्या (विज्ञान) का हम लोगों से अधिक ज्ञान रखते थे। पर वे उसे पदार्थ-विद्या (साइंस) की दृष्टि से न देख कर कवि की दृष्टि से देखते थे। उदाहरणार्थ वे समझते थे कि पृथ्वी साँस लेती और चलती है। आधुनिक विज्ञान वेत्ताओं ने भी हाल ही में यह पता लगाया है कि पृथ्वी धरातल पर हर रोज नियमित रूप से परिवर्तन हुआ करता है और एक प्रकार से उसे साँस लेना ही कहा जा सकता है।

दूसरा अर्थ-युक्त चिन्ह कमल का है। इससे सूर्य-मंडल या सौरलोक का उसके ईश्वर के साथ का सम्बन्ध सूचित होता है। इस प्रकार की तुलना सृष्टि की कुछ यथार्थ बातों के आधार पर की गई है। सात ग्रहों के अधिपति वास्तव में बड़े विशाल व्यक्ति हैं तथापि वे इसके साथ-साथ सूर्य मंडल के ईश्वर की मूर्ति किवाँ उसके शरीर के चक्र भी हैं। अब इन विशाल ग्रहाधिपतियों में से प्रत्येक में नियमित समय पर कुछ विकार या गति उत्पन्न हुआ करती है। उसकी तुलना भी हृदय के धड़कने या साँस के लेने और छोड़ने से हो सकती है।

ऊँचे लोकों में प्रत्येक पदार्थ ऐसी अवस्था में हैं जिसको हम यहाँ प्रकाशमान कह सकते हैं। एक विशेष लोक के बाद प्रत्येक वस्तु अग्नियुक्त है। पर वह अग्नि ऐसी नहीं होती जैसी कि हमको भूलोक (पृथ्वी मंडल) पर अनुभव में आती है। जिसको हम यहाँ पर अग्नि कहते हैं वह जलते हुये या चमकते हुये पदार्थ के आधार बिना नहीं रह सकती। हमारी यह अग्नि उस ऊँचे लोकों के अग्नि तत्व का आभास या प्रतिबिम्ब है। हमको उस अग्नि तत्व को जानने के लिये एक ऐसी अग्नि का विचार करना चाहिये जो जलती नहीं किन्तु जल के समान द्रव रूप में है। यह बात प्रथम पारसी धर्म के मूल आचार्य “जरदुश्त” को मालूम थी। वे उस अग्नि का उपयोग करते थे जो उनकी वेदी में बिना ईंधन के जलती थी। वह एक पवित्र अग्नि थी जो ईश्वरीय जीवन का संकेत करती थी।

इस दृष्टि से ईश्वर को प्राप्त करने का अग्नि एक संकेत या प्रतीक है। पुराने पारसी लोग इस बात को अच्छी तरह जानते थे और अपनी इतनी आध्यात्मिक उन्नति करते थे कि उन्हें अग्नि के साथ एकत्त्व प्राप्त हो जाता था और उससे ईश्वर प्राप्ति होती थी। यह कार्य एक प्रकार के देवों की सहायता से संभव हो पाता था। परन्तु वर्तमान समय में हम लोगों में जड़ता की इतनी अधिकता है कि इस प्रकार के कार्य की योग्यता बहुत कम लोगों में है। प्रथम जरर्दुश्त के बहुत से ऐसे अनुयायी थे जो इस मार्ग को ग्रहण कर सके। वर्तमान समय में यदि हम इसके लिये प्रयत्न करें तो कदाचित् हमारे नीचे के कोष (अन्नमय) नष्ट हो जायें। परन्तु भविष्य में नई जातियों अथवा दूसरे ग्रहों में जन्म लेने पर हम इस कार्य को साध सकने में समर्थ हो सकेंगे।

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