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Magazine - Year 1959 - Version 2

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आत्म-चिन्तन नितान्त आवश्यक है।

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(प्रो. मोहनलाल वर्मा, बी.एल-एल बी.)

स्वयं अपने विषय में आपके अपने विचार क्या हैं? आप खुद अपने को कैसा समझते हैं? क्या आप अपने को नीच, धोखेबाज दुष्ट या राक्षसी स्वभाव का समझते हैं? अथवा आप अपने को शिष्ट, सौम्य, विद्वान और विश्वासी समझते हैं वस्तुतः वैसे ही आप स्वयं हैं। उससे रत्ती भर भी कम या अधिक नहीं।

शान्त हृदय से कभी-कभी आत्म-निरीक्षण किया करें और अपनी अच्छाइयों तथा ईश्वर प्रदत्त श्रेष्ठताओं को पहचाना करें। आत्म-निरीक्षण कर बुराइयों को त्यागने का अमोघ उपाय यह है कि हम अच्छाइयों और श्रेष्ठ गुणों का ही चिन्तन करें। सद्गुणों के चिन्तन से हम दिव्यताओं की अभिवृद्धि करते हैं। मनुष्य के मन की कुछ ऐसी प्रक्रिया है कि वह जिन गुणों का चिन्तन करता है, गुप्त रूप से वे ही उसके चरित्र में बढ़ते और पनपते रहते हैं। आप यदि ध्यान से आत्म-निरीक्षण करें, तो आपको अपने चरित्र के उज्ज्वल पहलू मिल जायेंगे। ये वे पहलू हैं जो दूसरों में नहीं हैं। केवल आप ही में हैं। चरित्र के ये दिव्य गुण ईश्वर की ओर से विशेष रूप में आप ही को दिये गये हैं। फिर क्यों नहीं आप अपने व्यक्तित्व के इन पहलुओं का चिन्तन द्वारा विकास करते?

अपनी महानताएँ खोलिये, दिव्य सम्पदाओं को मालूम कीजिए। आपकी शुद्धि किस ओर प्रखरता से चलती है? कौन सा कार्य करने में आपको विशेष उत्साह आता है? संसार और समाज आपके किस कार्य की विशेष प्रशंसा करता है? आत्म-निरीक्षण द्वारा यह अमर तत्व आप बखूबी मालूम कर सकते हैं अथवा किसी योग्य मनोवैज्ञानिक चिकित्सक की सलाह ले सकते हैं। अब्राहम लिंकन आजन्म आत्म-निरीक्षण द्वारा उन्नति करता रहा। उसने कभी अपने अवगुणों का ध्यान नहीं किया शुभ गुणों को ही चिन्तन तथा कार्यों द्वारा समुन्नत किया। इसी प्रकार नेपोलियन ने अपने व्यक्तित्व की परीक्षा द्वारा जीवन को ऊँचा उठाया था। पहिले वह समझता था कि वह एक लेखक बने, पर बाद में सैनिक के रूप में उसे अपनी महानता को प्राप्त करने की ईश्वरीय प्रेरणा हुई।

हर व्यक्ति अपने ऊपर अपनी कीमत की मुहर स्वयं लगाता है। अपने लिए हमें वही मूल्य प्राप्त होता है, जिसका हम दावा करते हैं। मनुष्य स्वयं अपना मूल्य-निर्धारण करने से बड़ा या छोटा बनता है।

फिर क्यों न आप अपना नयी दृष्टि से मूल्य निर्धारण करें। क्यों न एक बार नए सिरे से अपनी नई कीमत लगायें। प्रत्येक मनुष्य अपनी इच्छा से अधिक मूल्यवान या कम मूल्यवान बनता है। अपनी ही इच्छा से सुखी और दुःखी बनता है।

बाइबिल में एक स्थान पर लिखा है, “मनुष्य अपने मन में स्वयं को जैसा मान बैठा है, वस्तुतः वह वैसा ही है।”

अपने इष्ट मित्रों और नेताओं के सद्गुणों की प्रशंसा करना सहज स्वाभाविक है, जब आप उनकी अच्छाइयों से अपनी त्रुटियों को मिलाकर देखते हैं। हो सकता है कि किसी नवीन दिशा में आपकी प्रतिभा और बुद्धि दूसरों से बढ़ी चढ़ी हैं। किसी खास लाइन में आप उन सबको पीछे छोड़ रहे हैं। इसी दशा में आपका मूल्य ऊँचा लगता है। इसी महत्व से आप संसार से अपना मूल्य वसूल करेंगे।

आपने टिटियन नामक चित्रकार की कहानी सुनी होगी। वह एक दिन अपनी दुकान में बैठा चित्र बना रहा था। इतने में एक धनी व्यक्ति आया और एक चित्र के दाम पूछे। चित्रकार ने उत्तर दिया, “पचास गिन्नियाँ”। इस पर वह अमीर व्यक्ति चकित रह गया। वह बोला—”एक छोटे से चित्र का इतना बड़ा मूल्य! आपको मुश्किल से इस चित्र को बनाने में एक सप्ताह लगा होगा।” इस पर टिटियन ने उत्तर दिया, “महाशय, आप भूलते हैं। पूरे तीन तीन साल निरन्तर परिश्रम करने के बाद मैं इस लायक बना हूँ कि ऐसे चित्र को चार दिनों में ही बना सकता हूँ।” धनी व्यक्ति ने चित्र का मूल्य चुकाया और चित्र खरीद लिया। यदि चित्रकार अपना मूल्य कम लगाता, तो उसे वही मिलता। पर उसके आत्म-विश्वास की अन्ततः जीत हुई। उसने अपने को जितना मूल्यवान समझा संसार ने उसका उतना ही महत्व स्वीकार किया। उसे उतना ही अपना मूल्य समाज में प्राप्त हुआ।

कभी आप अपने गुणों, अपनी प्रतिभा, अपनी विशेष ईश्वरीय देन के बारे में भी सोचा कीजिए। त्रुटियों को छोड़कर श्रेष्ठताओं की भी सूची बनाया कीजिए। यह अपनी श्रेष्ठताओं को विकसित करने का एक नया मनोवैज्ञानिक मार्ग है। क्या आपने इसका प्रयोग अपनी शक्तियाँ बढ़ाने के लिए किया है?

इसका उपाय यह है। आप अपने प्रिय पात्र को अपनी प्रेमिका को सहानुभूति की स्याही से प्रेम पत्र लिखते हैं जिसमें अपने हृदय की समस्त कोमल भावनायें उड़ेल देते हैं। क्यों न आप स्वयं अपने को ही एक सुन्दर सा प्रेम-पत्र लिखें?

ई. स्टैनले जौन्स महोदय का कथन है कि यदि मनुष्य स्वयं अपने आपको प्रेम नहीं करता, तो वह अपना ध्यान भी न रखेगा, अपने गुप्त मानसिक बौद्धिक और आत्मिक गुणों की भी वृद्धि नहीं करेगा, अपने शरीर को स्वच्छ न रखना चाहेगा।

अपने पूरे स्वास्थ्य में रहना, पूरे सौंदर्य और आकर्षण में सामने आना और अपने व्यक्तित्व को पूरे निखार पर रखना अपने पिता—ईश्वर के गौरव के अनुरूप अग्रसर होना है।

“प्रजापतिः बहुधा विजायते।

(अथर्ववेद 10-8-13)

इस विश्व में परमात्मा ही अनेक रूपों में जन्म ले रहा है। आप स्वयं भी परमात्मा की ही प्रतिमूर्ति हैं। फिर अपने आप को धिक्कारने का आपको क्या अधिकार है?

“शुक्रोऽसि भ्राजोऽसि स्वरसि ज्योतिरसि” (अथर्ववेद) (तू शुद्ध, तेजस्वी, आनन्दमय एवं प्रकाशवान्) है।

अतः अपना तिरस्कार न कीजिए। अपने आपको प्यार कीजिए और उन्नति के उपाय सोचिए। अपनी अच्छाइयों, अपने सद्गुणों अपनी महत्वपूर्ण बातों पर विचार करना आपका एक पुनीत कर्तव्य है। अपने शरीर में परमात्मा का निवास मानकर इसकी श्रेष्ठताओं को विकसित करना चाहिए।

स्वयं अपने आपको एक प्रेमपत्र लिखिये। इसमें वे सभी अच्छी अच्छी योजनाएं स्पष्ट कीजिए जो आप कार्यान्वित कर रही हैं, अपनी वे सभी महत्वाकाँक्षाएँ लिखिये, जिनको आप मन-मंदिर में संजोये हुए हैं। फिर पूरी शक्ति और आत्म-विश्वास से उनको पूर्ण करने पर जुट जाइये।

आपका प्रेम पत्र इस प्रकार हो सकता है—

प्रिय आत्माराम,

मुझे यह देखकर प्रसन्नता है कि तुम अपनी स्वावलम्बी जीवन की योजना पर निरन्तर चले जा रहे हो। सब कुछ अपने ही श्रम से प्राप्त करते हो। बिना स्वयं श्रम किये बीते हुए जीवन को व्यर्थ समझते हो। मुझे तुम्हारी यौवन श्री की स्फूर्ति और ताजगी देखकर संतोष होता है। तुम अपना कार्य स्वयं करने में तनिक भी शर्माते नहीं हो। निज बाहुबल के सामने तुम दुनिया का कोई भी बल नहीं समझते हो। तुम निरन्तर उन्नति करते जा रहे हो, उसका कारण तुम्हारा स्वावलम्बी जीवन ही है। अपने घर परिश्रम के कारण ही तुम वन्दनीय बनोगे।

तुम्हारी पाश्चात्य देशों के लोगों की सी परिश्रम करने की शक्ति, देश को उठाने की भावना, अपना काम स्वयं करने की आदत की तारीफ करते हैं। महान् देश के नागरिक अपना काम अपने हाथों से करने की प्रवृत्ति रखते हैं। सरकारी नौकर होते हुए भी अपना काम अपने हाथों से करना अच्छा समझते हैं। तुम कभी निठल्ले नहीं बैठते। आलसी जीवन को जघन्य पाप समझते हो। अपने जीवन का प्रत्येक क्षण उन्नति में लगाते हो। तुम्हारे ये विचार बहुत मूल्यवान हैं। इनसे तुम अपनी सभी गुप्त शक्तियों का विकास करने जा रहे हो।

तुम संसार में स्वस्थ और कर्मठ रहना चाहते हो। तुम अपने शरीर में निखिल जगत् में व्याप्त ईश्वर का अस्तित्व समझते हो। ईश्वरीय गुप्त बल तुम्हें चैतन्य शक्ति प्रदान करता है। तुम अपने आपको ईश्वर का पुत्र मानते हो, तुम उनके सच्चे प्रतिरूप हो, प्रतिनिधि हो। इसलिए पूर्ण हो।

तुम्हारा सबसे महत्वपूर्ण गुण यह है कि तुम कभी आत्म-भर्त्सना नहीं करते। अपने आपको नहीं कोसते, या धिक्कारते। तुम शरीर को घृणित नहीं समझते, मलमूत्र मवाद का दुर्गन्धिमय पिण्ड न समझकर ईश्वरीय दिव्य सम्पदाओं का तेज पुँज समझते हो। उसके द्वारा दैवी उद्देश्य की सिद्धि समझते हो। यह अनुभव करते हो कि इस देवदुर्लभ शरीर के द्वारा ईश्वरीय कार्य करते हैं। पिछड़े हुओं को आगे बढ़ाना है। निर्बलों को बलवान बनाना है। निर्धनों को समृद्धि की ओर अग्रसर करना है, लाँछित और तिरस्कृतों को गले लगाना है। तुम इस समाज को ईश्वरीय साम्राज्य मानते हो और उस साम्राज्य में अपना पार्ट अदा करते हो।

तुम अपने शरीर के हर अंग से कहते हो कि मेरे अंग प्रत्यंगों तुम पवित्र हो, सुन्दर हो। कल्याणमय हो। मेरे नेत्रों तुम सदा पवित्र दृश्य देखते हो। मेरे हाथों तुमसे कल्याणकारी कार्य ही होते हैं। मेरे मस्तिष्क तुम भव्य विचार ही रखते हो। मेरे पाँवों, तुम पवित्र देव स्थानों पर ही भ्रमण के लिए विचरण करते हो। मेरे मन, बुद्धि और इन्द्रियों! तुम्हारे द्वारा मैं परमात्मा की प्रेरणा और दिव्य विधान पूर्ण करता हूँ। तुम्हारे विचार, वाणी, और व्यवहार में परमात्मा तत्व ओत प्रोत है। तुम अहंभाव न रखकर अपना सब कुछ परमात्म-समर्पण करते हो।

तुम्हारे ये सब विचार भव्य हैं। मुझे खुशी इस बात की है कि तुम कोरा सोचते ही नहीं, अपने इन दिव्य विचारों को दैनिक जीवन में प्रयत्न और अभ्यास से उतार रहे हो। संसार में उपदेश देने वाले बहुत हैं, सुनने वालों की संख्या कम नहीं है, पर तुम जैसे कर्मठ व्यक्ति कम हैं जो ज्ञान और उपदेश को जीवन में उतार रहे हैं। तुम्हारी उन्नति अवश्यम्भावी है।

तुम्हारी भावी प्रगति का आकाँक्षी, मैं

इस प्रकार के पत्रों को लिखते जाइये और इनकी एक फाइल तैयार कर लीजिए। लिखने से आपके भव्य विचार गुप्त मन में गहराई से उतर जायेंगे। आप जिस निश्चित उद्देश्य को सामने रखकर जी रहे हैं, वह आपको समीप आता दिखाई देगा। फिर कभी-कभी इन सब पत्रों को पढ़ा कीजिए। आपके ये भव्य सशक्त विचार निरन्तर अभ्यास और चिन्तन द्वारा समस्त मानसिक केन्द्रों से शरीर भर में रक्त प्रवाह के साथ फैल जायेंगे। ये आपको उन्नति की नई प्रेरणा देंगे।

उद्यानं ते पुरुष नावयानम्।

—अथर्ववेद 8।1। 2

उन्नति करो। विचारों में अवनति न आने दो। गिराने वाले नहीं, उठाने वाले विचार और कार्य ही अपनाओ।

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