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Magazine - Year 1959 - Version 2

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हमारी अनेक समस्याओं का एक समाधान

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मनुष्य का जीवन आज जितना उलझन भरा है, उतना संसार के इतिहास में पहले नहीं रहा। ऐसे अवसर आते रहे हैं जिनमें दुर्भिक्ष एवं राजनैतिक आक्रमणों से जनता में खलबली मची हो पर वह सब कुछ ही दिनों के लिए रहा है और उसका प्रभाव भी शारीरिक कष्टों तक ही सीमित रहा है। मनुष्य का मन निरन्तर उलझन ग्रस्त रहे, चिन्ता और परेशानियों से उसके मनः क्षेत्र में निरन्तर अशान्ति की ज्वाला जलती रहे तथा जीवन का आनन्द रस सूखकर उसके स्थान पर उद्वेगों की भरमार रहे ऐसी व्यापक मानसिक स्थिति का वातावरण अब से पहले कभी नहीं रहा है।

यह परेशानियाँ साधारण शारीरिक कष्टों या अभावों से अधिक त्रासदायक एवं दुष्परिणाम उत्पन्न करने वाली हैं। धन के अभाव में मनुष्य को गरीबी का जीवन व्यतीत करना पड़ता है, पर देखा गया है कि यदि अन्य सद्गुण पास में हों तो वह गरीबी का जीवन कष्टकारक नहीं वरन् सुविधाजनक और शान्तिदायक हो जाता है। ऋषि-मुनि और सन्त महात्मा अपरिग्रही, त्यागमय और कम से कम वस्तुओं से चल सकने वाला जीवन क्रम अपनाते हैं और इससे उन्हें कष्ट होना तो दूर उलटे सुविधा अनुभव होती है। उनके उपदेशों में सादा जीवन उच्च विचार की प्रेरणा रहती है। मितव्ययिता और सादगी पर वे पूरा जोर देते हैं क्योंकि अन्तःकरण के विकास एवं मनः क्षेत्र के परिष्कार का इस सादगी से घनिष्ठ सम्बन्ध है।

इसी प्रकार कुछ अत्यन्त तीव्र वेदना वाले शारीरिक कष्टों को छोड़कर अन्य सामान्य श्रेणी की अस्वस्थता एवं बेचैनी भी उतनी असह्य नहीं होती जितनी कि मानसिक पीड़ा दुःख देती है। भौतिक जगत में दो ही दुःख हैं—दरिद्रता और शारीरिक कष्ट। यह दोनों ही सह्य हैं और यदि सह्य न भी हों तो इनके दुष्परिणाम इस वर्तमान स्थूल शरीर तक ही सीमित हैं। परन्तु मानसिक चिन्ता परेशानी एवं उलझनों के सम्बन्ध में यह बात नहीं है, उनका कष्ट भी अधिक होता है और परिणाम भी दूरवर्ती होते हैं। गोदी सूनी करके नन्हें-मुन्ने हँसते-खेलते बालक के मर जाने पर माता को कितना शोक होता है, किसी कारण समाज में अपमानित हो जाने, प्रतिष्ठा घट जाने से कितनी पीड़ा होती है। शत्रुता बढ़ जाने पर द्वेष की आग कितनी दाहक होती है। निर्धारित कार्यक्रम में असफलता मिलने पर कितनी निराशा होती है, उसका अनुमान भुक्त भोगी ही लगा सकते हैं। अपमान, असफलता, शोक, द्वेष, भय, ईर्ष्या, वियोग, बिछोह, निराशा, चिन्ता आदि मानसिक आघातों का मनुष्य को इतना तीव्र कष्ट होता है कि वह आत्म हत्या तक करने को तैयार हो जाता है। गरीबी या बीमारी के कारण कोई व्यक्ति न तो उतना अशान्त होता है और न आत्म-हत्या करने की स्थिति आने जितना दुखी होता है। तात्पर्य यह है कि मानसिक कष्टों का त्रास ही गहरी अशान्ति का कारण है। आज इसी आपत्ति की अत्यधिक वृद्धि हुई है और जन साधारण का जीवन नरक तुल्य बना जा रहा है।

गरीबी एवं बीमारी का महत्व कम नहीं है—उनके कारण भी असुविधा होती है और प्रगति रुकती है पर मानसिक कष्टों का दुख एवं प्रतिरोध निश्चय ही अत्यधिक है। गरीबी से प्रगति उतनी नहीं रुकती जितनी चिन्ता एवं अंतर्व्यथा से रुकती है। इन मानसिक कष्टों का प्रभाव मनुष्य की सूक्ष्म चेतना पर पड़ता है जिसके कारण उसके उच्चकोटि के सद्गुण नष्ट होते हैं। साहस, शौर्य, धैर्य, उत्साह, पुरुषार्थ, उदारता, आशावादिता, क्षमा, सन्तोष, सद्भाव, आत्मीयता, दया, करुणा, सेवा, आस्तिकता, आत्म विश्वास आदि अनेकों सत्प्रवृत्तियाँ मानसिक अशान्ति के कारण सूखने लगती हैं और तेजी से समाप्त हो जाती हैं। इन विशेषताओं के अभाव में मनुष्य नर पशु बनता चला जाता है। उसके महापुरुष होने की, कोई आदर्श स्थापित करने की संभावना नहीं रहती।

मानसिक अशान्ति से जीवन रस सूखता है। जैसे उदर की ऊष्मा शरीर के रक्त माँस को सुखा कर उसे अस्थि-पिंजर मात्र बना देती है, उसी प्रकार आन्तरिक असन्तोष एवं उद्वेग के ज्वर में सद्गुण, मस्तिष्क की मौलिकता एवं उर्वरा शक्ति भी नष्ट होती है। उलझनों में उलझे हुए मस्तिष्क दिन-दिन विकृत होते जाते हैं, अर्ध विक्षिप्त दशा उनकी रहती है। क्रोधी, तुनक मिज़ाज, सनकी, दुराग्रही, अड़ियल, अविश्वासी, अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग पकाने वाले, क्रूर, कुकर्मी, उद्दण्ड प्रकृति के लोग प्रायः अर्ध विक्षिप्त होते हैं। यह स्थिति थोड़ी और बढ़े तो उनके पागल होने में सन्देह नहीं रहता। मन की शान्ति और कोमलता को यह उलझनें ही नष्ट करती हैं और इन उलझनों का कारण मानवता की मर्यादाओं का उल्लंघन ही है।

लोग यह सोचते हैं कि मानवता, नैतिकता, आस्तिकता, धार्मिकता के बंधनों में अपने आपको बाँधने से हमारी स्वच्छन्दता में अड़चन पड़ती है। अनीतिपूर्वक अधिक धन कमाने और दूसरों को पतन की पीड़ा में धकेलने में हिचक किये बिना मनमाने विलास एवं ऐश्वर्य का उपभोग नहीं हो सकता, इसलिए हम इन धर्म बन्धनों में अपने आप को नहीं बाँधते, आज धर्म की ओर सर्वत्र नाक भौं सकोड़ी जा रही है। इसे मूर्खता माना जाता है। बुद्धिमानी उसी नीति को समझा जाता है जिस पर चलकर मनुष्य अधिक ऐश्वर्य का उपयोग कर सके। जीवन दर्शन में ऐसी आस्था जम जाने से आत्म नियन्त्रण के बन्धन टूट जाने में मनुष्य सत् और असत् का, नीति और अनीति का, कर्म और कुकर्म का भेद भूल जाता है। फलस्वरूप उसके अधिकाँश विचार और कार्य ऐसे होते हैं जो आत्मा के मूलभूत स्वभाव के विपरीत होते हैं। समाज व्यवस्था में बाधक होने के कारण लोक निंदित होते हैं। जिन्हें अपने कार्यों से हानि पहुँचती है उनके अभिशाप आक्रमणकारी आघात के रूप में अपने ऊपर चोट करते हैं। राजदंड, समाज दण्ड एवं उस पीड़ित के प्रतिशोध का भय करता है। वह अनीति उपार्जित धन अनेकों प्रकार से कुमार्ग पर चलने की प्रेरणा करता है। यह कुचक्र तेजी से घूमता है। इस मार्ग में प्राप्त हुई सफलताएँ निरन्तर अधिक कुकर्म करते चलने की प्रेरणा देती हैं। इस सत्यानाश की सड़क पर दौड़ता हुआ मनुष्य अन्य दंडों से छुटकारा पाने का कोई मार्ग न पाकर मानसिक उलझनों में निरन्तर घिरा रहता है। शराब आदि नशे पीकर वह उस अन्तर्द्वन्द्व से छुटकारा पाना चाहता है, पर नशा उतरते ही वह उद्वेग इसे फिर ज्यों का त्यों का त्यों आ घेरता है।

अन्तर्द्वन्द्व के उद्वेगों का स्वास्थ्य पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। इस घुटन से जीवन के मूलभूत सूक्ष्म रसों की समाप्ति होती है। फलस्वरूप ऐसा व्यक्ति भीतर ही भीतर खोखला होता जाता है। बाहर से उसका रंग रूप सुन्दर लगे यह बात दूसरी है पर वह जीवन तत्व जो रोगों में रक्षा कराने, उन्हें मिटाने में प्रधान काम करता है, घट जाने से आये दिन बीमारियाँ घेरे रहती हैं। उसका मूलकारण अन्तःप्रदेश में रहता है इसलिए दवादारु से भी कुछ काम नहीं चलता। देखा गया है कि छोटे-छोटे मर्ज भी कीमती दवाएँ बहुत समय तक सेवन करने पर भी, अच्छे नहीं होते। इसका कारण दवाओं की गुणहीनता नहीं, वरन् व्यक्ति के सूक्ष्म-शरीर में उद्वेगों के कारण उत्पन्न हुई दुर्बलता है। उसी कारण जो रोग उत्पन्न होते हैं वे मूल कारण को दूर किये बिना साधारण दवा दारु से अच्छे नहीं हो सकते। आज रोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। चिकित्सकों और चिकित्सालयों की भारी वृद्धि हो रही है पर इससे जन साधारण के स्वास्थ्य में कुछ भी सुधार होता दिखाई नहीं पड़ता। जन-साधारण का स्वास्थ्य आज जिस बुरी तरह गिर रहा है उतना अतीत काल में आज तक कभी नहीं गिरा। इस गिरावट का कारण गरीबी या खाद्य पदार्थों का अभाव नहीं है। इस सम्बन्ध में तो हम अपनी गत पीढ़ी के पूर्वजों की अपेक्षा कहीं अधिक सुविधाजनक स्थिति में हैं। मूलकारण आन्तरिक उलझनें हैं जिसने स्वास्थ्य की अन्तः भूमिका को ही चौपट कर दिया है।

पीढ़ी दर पीढ़ी हम स्वास्थ्य की दृष्टि से बुरी तरह गिरावट की ओर चल रहे हैं। बच्चे जन्म से ही दुर्बलता और अस्वस्थता साथ लेकर आते हैं। यह उन्हें पैतृक विरासत प्राप्त हुई है। वंशानुक्रम विज्ञान के ज्ञाता जानते हैं कि बालक अपने पिता, पितामह आदि पूर्वजों की शारीरिक ही नहीं मानसिक विरासतें भी अपने साथ लेकर आते हैं। जो त्रुटियाँ और दुर्बलताएँ पूर्वजों ने जीवन भर के कुकर्मों के फलस्वरूप पाईं थीं, वे इन बालकों को जन्म से अनायास ही उपलब्ध रहती हैं। आज बालकों की बहुत बड़ी संख्या शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता में ग्रस्त है। आये दिन लड़कों की उद्दंडता के समाचार हमारी चर्चा का विषय होते हैं। उनके अशिष्ट व्यवहारों एवं अदूरदर्शितापूर्ण कार्यों से सारा परिवार असंतुष्ट रहता है। इस अव्यवस्थिता में बेचारा बालक स्वतः उतना दोषी नहीं है। उसके रक्त के साथ जो कुसंस्कार आये हैं वे अपनी प्रतिक्रिया इस रूप में प्रकट करते हैं। पिता अत्यधिक कंजूस रहा हो तो यह आवश्यक नहीं कि उसका लड़का कंजूस ही हो। वैज्ञानिकों के मतानुसार उसका लड़का कैन्सर या ग्रन्थि रोगों का रोगी हो सकता है। चिन्तातुर या कलह में जलती रहने वाली माता का बालक यदि श्वाँस, प्लूरिसी, अन्त्रदाह रोग पीड़ित हो तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं। इसी प्रकार पूर्वजों के अन्य मानसिक विकार कोई अन्य रूप धारण करके बालकों में प्रकट हो सकते हैं। बालकों में जो आज उद्दंडता, अवज्ञा, चोरी, फिजूलखर्ची, विलासिता, कायरता आदि दुर्गुणों का बाहुल्य दीख पड़ता है, वस्तुतः उनके पूर्वजों की किन्हीं नैतिक त्रुटियों के प्रतिफल ही होते हैं।

लोग अपने बच्चों के लिए बहुत धन, चलता हुआ व्यापार या मकान जायदाद छोड़ जाना चाहते हैं ताकि वे सुखपूर्वक अपना जीवनयापन कर सकें। पर वे यह भूल जाते हैं कि जो दुर्गुण हम उन्हें विरासत में दे रहे हैं वे इतने भयावह हैं कि उनकी अग्नि में वह धन सम्पत्ति कुछ ही दिनों में जलभुन कर भस्म हो जायगी। धन से कोई व्यक्ति तभी लाभ उठा सकता है जब उसे बढ़ाने, सुरक्षित रखने एवं सदुपयोग करने की कला से भली प्रकार विज्ञ हो। यदि ऐसा न हुआ तो वह अनायास प्राप्त धन स्वयं तो नष्ट होता ही है, साथ ही जिसके पास था उसे अनेकों अनाचार एवं उद्वेग भी उपहार में देगा। सचाई यह है कि सन्तान के लिए धन-जायदाद छोड़ने की अपेक्षा, उनके अन्तःप्रदेश में शान्त चित्त और स्वस्थ भावनाओं की स्थापना अधिक महत्वपूर्ण है। पर यह सब संभव तभी है जब माता-पिता आत्म नियन्त्रण स्वीकार करें, सद्विचार एवं सदाचार का अनुकरण करें। बालकों के लिए इस मानसिक सम्पत्ति को यदि कोई माता-पिता छोड़ सके तो यह उन्हें चिरस्थायी स्वास्थ्य, निरोगता, मानसिक सद्गुण, पुरुषार्थ, दूरदर्शिता, उदार हृदय आदि अनेकों दिव्य सम्पत्तियाँ देने का सत्परिणाम उत्पन्न कर सकता है। यह दौलत, साधारण मकान जायदाद छोड़ने की अपेक्षा अधिक मूल्यवान है।

अनैतिकता से उत्पन्न मानसिक उलझनें लोगों के बीच पारस्परिक सद्भावों को नष्ट करती हैं। एक दूसरे के प्रति अविश्वास करता है, सन्देह की दृष्टि से देखता है। सशंकित रहता है और यह भय करता है कि यह मेरे साथ कोई विश्वासघात करेगा! यह अविश्वास प्रधानतः अपनी आन्तरिक दुर्बलता के कारण ही होता है। चूँकि अन्य लोग भी उसी दुर्बलता से ग्रस्त हैं और वे भी ऐसी ही आशंका अपने प्रति करते हैं। कोई छोटी सी बात प्रमाण स्वरूप मिल जाने से एक दूसरे के प्रति और भी अधिक अविश्वास करते हैं। बात बढ़ते-बढ़ते छल, कपट और ईर्ष्या द्वेष तक जा पहुँचती है। एक दूसरे को अपना शत्रु मानने लगता है। शत्रुता का आरम्भ इसी कायरता से होता है। पीछे कोई निमित्त मिलते जाते हैं और आग में लकड़ी पड़ने से अधिक उग्रता से जलने वाली अग्नि की तरह उस शत्रुता का विस्तार होता जाता है।

घर-घर में आज ईर्ष्या द्वेष का, क्रोध कलह का, सन्देह अविश्वास का वातावरण फैला हुआ है। फलस्वरूप कोई अपना मित्र दिखाई नहीं पड़ता, सब शत्रु ही शत्रु, सब दुष्ट ही दुष्ट दिखाई पड़ते हैं। ऐसे वातावरण को ही नरक कहते हैं। आज सर्वत्र नरक के दृश्य उपस्थित हैं। जिस घर में देखिए, जिस ग्राम या समाज में देखिए दुर्भाव का बोलबाला है। राजनीति और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में इसी विभीषिका का नग्न नृत्य हो रहा है। एटमबम, गैस, सारी दुनिया को कुछ छटाँक मात्रा में ही मार डालने वाला विष इसी विभीषिका की उपज है। दुनिया को धीरे-धीरे सामूहिक आत्म-हत्या की ओर यह विभीषिका ही घसीटे लिये जा रही है।

मनुष्य जीवन में सब से मधुर यदि कोई वस्तु है तो वह है—स्नेह, सद्भाव, आत्मीयता। एक दूसरे के प्रति जहाँ इस प्रकार की भावना रखता है वहाँ स्वर्ग का साक्षात्कार होता है। गरीबी और अभावग्रस्त स्थिति में भी मनुष्य इन तत्वों के होने पर भारी सन्तोष और शान्ति अनुभव करता है। इस तत्व को सुरक्षित रखने के लिए ही आध्यात्मिकता, धार्मिकता एवं आस्तिकता का सारा विधान बना हुआ है। दूसरों के प्रति स्नेह-सद्भाव एवं आत्मीयता बनी रहे एवं बढ़ती रहे, इसके लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य दूसरों के शरीर में भी अपनी ही आत्मा को देखे। उनके सुख-दुख को भी अपना ही सुख-दुख माने। जिस प्रकार अपने बाल-बच्चे एवं परिजन “अपने” लगते हैं, वैसे ही और लोग भी अपने लगें तो उनसे सहज ही स्नेह उत्पन्न होगा। जिसके प्रति सच्चा स्नेह होता है, उसके साथ कुछ नेकी-भलाई-उदारता का परिचय देने की इच्छा स्वभावतः ही होती है।

नवजात शिशु के पेट में कोई गड़बड़ी उत्पन्न हो जाय इस भय से माता अपनी जिह्वा इन्द्री पर पूरा काबू रखकर अपना आहार चलाती है। अपने स्वाद की उपेक्षा करके वह बालक के स्वार्थ का ही ध्यान रखती है। यही मातृ बुद्धि जब सारे समाज के प्रति होने लगती है तो मनुष्य स्वभावतः संयमी और संतोषी हो जाता है। माता अपने भोजन, वस्त्र, सुविधा तथा साधनों में कमी करके भी जिस प्रकार अपने प्यारे बालकों के लिए खुशी-खुशी अधिकाधिक साधन सामग्री जुटाती है और उस प्रयत्न में उसे जो त्याग करना पड़ता है, अभाव भोगना पड़ता है उससे खिन्न होना तो दूर—उलटे अधिक प्रसन्नता अनुभव करती है। यह त्याग का-दान का-परमार्थ का-पुण्य का उदारता का-सेवा का सिद्धान्त है। आत्मभाव के विस्तार से ही संयम, त्याग, स्नेह तथा सेवा-भावना की वृद्धि होती है।

एक दूसरे को प्यार करे, एक दूसरे के साथ सद्भाव एवं सहृदयता का व्यवहार करे, न्यायोचित मार्ग से जितनी साधना सामग्री जुट सके, इसी में सन्तोष करे तो उसके लिए इस संसार में मानसिक उलझनों जैसी कोई समस्या शेष नहीं रह जाती। यदि मन प्रसन्न रहे, उद्वेगों से छुटकारा प्राप्त कर सके तो जीवनयापन बहुत ही सरल, सुविधाजनक एवं शान्तिपूर्ण हो सकता है।

आज लोगों के सामने अनेक समस्याएँ मौजूद हैं। उनको सुलझाने के लिए अनेक प्रकार के प्रयत्न किये जाते हैं पर गुत्थी और उलटी उलझती जाती है। स्वास्थ्य की समस्या सामने है। दिन-दिन तन्दुरुस्ती गिरने और बीमारियाँ बढ़ने का प्रश्न सामने है। उसे सुलझाने के लिए चिकित्सक, चिकित्सालय तथा औषधि निर्माण बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है पर मूलकारण असंयम पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। आर्थिक अभाव और तंगी सब लोग अनुभव करते हैं, इसके लिए उद्योगों के विकास का प्रयत्न किया जा रहा है, नौकरियाँ बढ़ाई जा रही हैं पर तंगी दूर नहीं होती। कारण विलासपूर्ण अपव्यय रोकने और उपलब्ध साधनों का श्रेष्ठ सदुपयोग करने की कला की जानकारी नहीं होती।

परस्पर छीना-झपटी और असद्व्यवहार के कारण एक दूसरे को कष्ट देते हैं इसे रोकने के लिए कानून, पुलिस और न्यायालय खुल रहे हैं। पर यह पकड़ इतनी कमजोर है कि पहले तो अधिकाँश छोटे-मोटे अनैतिक कार्य अपराध ही नहीं माने जाते हैं, माने जाते हैं तो उसका दंड विधान इतना कम है कि उसमें अपराधी को कोई पश्चाताप नहीं होता। अपराध कर चुकने पर भी बहुत कम अपराधी पकड़े जाते हैं वे भी कानूनी दाँव-पेंच के कारण दंड से बच जाते हैं। यह कानूनी व्यवस्था अपराधों को नहीं रोक सकती। अपराध तो ईश्वर के भय और धर्म-अधर्म के भले बुरे परिणामों के प्रति निष्ठा रखने से ही बन्द हो सकते हैं। शासन यन्त्र अपराधियों को रोकने में अपनी सारी शक्ति लगा करके भी जो सफलता प्राप्त नहीं कर सकता, वह आस्तिकता एवं धार्मिकता के प्रसार से संभव हो सकती है। पाप और अपराधों को रोकने का यही एक मात्र मार्ग है।

सामाजिक कुरीतियों में समय की, शक्ति की, धन की भारी बर्बादी होती है। दहेज, मृत्यु-भोज, पर्दा, जेवर आदि अनेकों कुरीतियाँ ऐसी हैं जिनकी हानि से सभी परिचित हैं और उनकी निन्दा भी करते हैं। प्रस्ताव पास करके, लेक्चर देकर उनका उन्मूलन करने की बात सोची जाती है। पर जब तक विवेक और साहस को समुचित मात्रा में जागृत न किया जाय तो इस भेड़ियाधसान से ऊपर न उठ सकेंगे। दुःखी रहते हुए भी उसी लकीर को पीटते रहेंगे।

नशेबाजी, जुआ, चोरी आदि अनेकों बुरी आदतों में लोग ग्रसित हैं, अश्लीलता और मानसिक व्यभिचार को गन्दी पुस्तकों, गन्दे चित्रों और सिनेमाओं द्वारा व्यापक रूप में फैलाया जा रहा है। स्त्रियों की फैशनपरस्ती पुरुषों की कुदृष्टि को और भी भड़काती है। इन बुराइयों की निवृत्ति के लिए छुटपुट प्रयत्न भी होते रहते हैं पर जब तक जन मानस में व्यापक रूप में दृष्टिकोण के आधार पर जीवनयापन करने की आवश्यकता अनुभव न कराई जाय तब तक चेचक के रोगी का रक्त शोधक दवा न देकर फुन्सियों पर पट्टी बाँधने या मुरझाये हुए पेड़ की जड़ को सींचने की बजाय पत्तों पर पानी छिड़कने के समान सारे प्रयत्न व्यर्थ ही सिद्ध होंगे।

मानव-जीवन को भगवान ने समस्याओं, चिन्ताओं और उलझनों से मुक्त करके भेजा है। नर तनु धारण का उद्देश्य पूर्णता को प्राप्त करने की प्रक्रिया में सफलता प्राप्त करना है। पर हमारे सामने मानसिक उलझनें इतने विशाल रूप में उपस्थित हैं कि उनके कारण आन्तरिक एवं बाह्य जीवन में क्लेश और कलह का नारकीय दृश्य उपस्थित हो रहा है! मनुष्य के सुखी बनाने के लिए पत्ते सींचने की ओर अनेक प्रयत्न चल रहे हैं पर गुत्थी तब तक न सुलझेगी जब तक जड़ को सींचने की व्यवस्था न की जाय। सारी उलझनों का एक ही कारण है— आस्तिकता, मानवता, धार्मिकता एवं नैतिकता का अभाव। इस अभाव की जितने अंशों में पूर्ति की जायगी उतनी ही मात्रा में इस भूलोक में स्वर्गीय सुख-शान्ति अवतरित होने लगेगी।

मानव जाति के महान् कष्ट मानसिक क्लेश को घटाना—सत्पुरुषों का कर्तव्य है। विश्व-शान्ति की आधारशिला यही है। सबसे बड़ा पुण्य परमार्थ भी यही है। आस्तिकता एवं नैतिकता का प्रसार करके अखण्ड-ज्योति परिवार विश्व मानव की सर्वोत्कृष्ट सेवा कर रहा है।

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