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Magazine - Year 1960 - Version 2

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हमारे बाल्यावस्था के आचार्यजी

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(श्री परमात्मा स्वरूप शर्मा)

“होनहार बिरवान के चिकने चिकने पात” उर्दू की यह एक प्रसिद्ध कहावत है। इसका अभिप्राय यह है कि आगे जा कर जिन्हें महान बनना होता है, जिन के द्वारा बड़े कार्य सम्पन्न होने होते हैं, उनके लक्षण पहिले से ही दीखने आरम्भ हो जाते हैं। महापुरुषों के जीवन चरित्र अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि जिस प्रकार के असाधारण कार्य उन्होंने अपने जीवन में किए, उनकी झलक बचपन में ही दिखाई दे गई थी। उदाहरण के लिए स्वामी शंकराचार्य ने 16 वर्ष की छोटी सी आयु में भारतवर्ष के बड़े-बड़े पंडितों को शास्त्रार्थ में हरा दिया था। शिवाजी ने 13 वर्ष की आयु में नोदण का किला जीता था। सन्त ज्ञानेश्वर ने 12 वर्ष की आयु में भगवद्गीता पर मराठी में ‘ज्ञानेश्वरी’ टीका लिखी थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 14 वर्ष की आयु में शेक्सपियर के ‘मैक्बेथ’ नामक नाटक का बंगला अनुवाद किया था। सिकन्दर ने 16 वर्ष की आयु में शेरोनिया का युद्ध जीता था। श्रीमती सरोजिनी नायडू ने 13 वर्ष की आयु में 13 सौ पंक्तियों की एक अंग्रेजी कविता लिखी थी। बंगाली कवयित्री श्रीमती तारु दत्त की आयु केवल 18 वर्ष की थी जिस समय वह अंग्रेजी में कविताएँ लिखकर प्रसिद्ध हो गई थी। रानी अहिल्याबाई की आयु राज काज हाथ में लेते समय 12 वर्ष की थी। श्री हरीन्द्र चट्टोपाध्याय ने चौदह वर्ष की आयु में अपना प्रसिद्ध नाटक “अबू हसन” लिखा था।

परम आदरणीय श्री आचार्यजी के बाल्यकाल में कुछ ऐसे लक्षण उत्पन्न हो गए थे जो महानता की कसौटी पर खरे उतरते हैं। मुझे उनका बचपन का एक क्षुद्र साथी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, इसलिये उनके थोड़े से संस्मरण यहाँ व्यक्त करना चाहूँगा।

बहुत कम लोग जानते हैं कि श्री आचार्यजी कविता लिखना भी जानते हैं। यह उनके बाल्यावस्था का शौक है जो उन्होंने 12 वर्ष की आयु में शुरू कर दिया था। उस समय उनकी कविताएँ देहली और आगरा के दैनिक पत्रों में छपती रही थीं। ‘अखण्ड ज्योति’ में भी अनेकों अत्यन्त सुन्दर कविताएँ छपी हैं परन्तु वह उन्होंने अपने नाम से नहीं दी हैं। अखण्ड ज्योति आदि पत्रिकाओं में छपने के लिए आने वाली कविताएँ इस सुन्दर ढंग से ठीक कर देते थे कि कवि लोग आश्चर्य चकित रह जाते थे। वह यह समझते थे कि उन्होंने किसी कवि से यह दुरुस्ती करवा ली होगी। अनेकों तरुण कवियों को उनसे मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ है।

वास्तविक रुचि का विषय उनके लेख थे जो उन्होंने 13 वर्ष की आयु में लिखने आरम्भ कर दिये थे। घर में वह हर समय लिखते ही देखे जाते थे। उस समय के उनके लेखों में वह जीवन और शक्ति थी कि एक बार पढ़ने से पाठक के शरीर में एक बिजली सी दौड़ जाती थी। डायनेमो ही बिजली उत्पन्न कर सकता है। जिसके पास विचार, शक्ति और सामर्थ्य हो वही दूसरों में इनका संचार कर सकता है। उस समय के आपके लेखों को पढ़कर हजारों व्यक्ति भारत माता को अंग्रेजी पंजों से छुड़ाने के लिये युद्ध क्षेत्र में कूद पड़े थे। आपके हृदय में भी निरन्तर एक तड़पन रहा करती थी कि किस प्रकार से हमारा देश विदेशी शासन से मुक्त हो। एक बार तो वह घर वालों की नजर बचाकर अकेले आगरा की ओर चले थे। जिस बात का वह निश्चय कर लेते थे, उसे वह अवश्य करके ही छोड़ते थे चाहे उसमें उन्हें कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना क्यों न करना पड़े। उन दिनों कड़कती धूप थी। चूँकि घर से बिना किसी को सूचना दिये चले थे इसलिए न ही पैरों में जूते थे और न सर पर टोपी। जेब भी खाली और कहीं विश्राम करने के लिये बिस्तर भी न था। नीचे से बालू तप रही थी और ऊपर से सूर्य भगवान् अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे थे। शरीर की जो हालत हो सकती है, उसका तो सहज अनुमान किया जा सकता है। उनके पैरों में छाले पड़ गये थे। इन कष्टों को सहन करते हुए भी वह आगरा पहुँचे और विदेशी राज्य के विरुद्ध हो रहे प्रचार कार्य में भाग लिया। इसी सम्बन्ध में वह कई बार जेल जा चुके हैं। जहाँ वह सनातन धर्म के प्राण पं. मदनमोहन जी मालवीय के साथ रहे हैं जो उनके दीक्षा गुरु भी हैं।

एक बार एक वृद्ध महिला किसी छूत के रोग से पीड़ित हो गई। वह जाति की भी छोटी थी। वैद्य लोग उसके शरीर को छूना भी पसन्द नहीं करते थे। आपको पता चला तो आपने उनकी परिचर्या करना आरम्भ की। वृद्धा ने कहा “बेटा! तुम ब्राह्मण हो। तुम्हें मुझे छूना उचित नहीं है। तुम्हारे घर वाले देख लेंगे तो मुझ पर बहुत नाराज होंगे कि मेरे लड़के से अपनी सेवा करवा रही है।” (स्मरण रहे श्री आचार्यजी के पिताजी आदि चार भाई हैं और उस समय गाँव के बड़े जमींदार थे। गाँव में उनका मकान बड़ी हवेली और किले की तरह है। मुख्य द्वार इतना बड़ा है कि जिसमें से हाथी आसानी से आ जा सकता है और वह इसी उद्देश्य से बनवाया भी गया था) आपने उत्तर दिया “मैं कोई बुरा कार्य नहीं कर रहा। उन्हें इस पवित्र कार्य को करते देखकर मुझसे प्रसन्न ही होना चाहिए। और फिर मेरा आपके प्रति मनुष्यता के नाते कर्तव्य है कि आपके दुख को अपना दुख समझूँ और तद्नुसार तुम्हारी सेवा करूं।” वीर! यह छूत का रोग है। यदि यह तुम्हें हो गया तो मैं कहीं की न रहूँगी “बुढ़िया ने गम्भीर स्वर में कहा। किसी की सेवा करते हुए यदि मुझे अपने शरीर की आहुति देनी पड़े तो, इसे मैं अपना सौभाग्य समझूँगा।”

बाल विवाह की प्रथा भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही है। श्री आचार्य जी का विवाह भी उनकी इच्छा के विरुद्ध छोटी आयु में कर दिया गया था। जिन महापुरुषों के सद्प्रयत्नों से हजारों और लाखों आत्माओं को मार्ग दर्शन प्राप्त होता हो, वह भला इन भौतिक बन्धनों में भला क्यों बँधा रहना पसन्द करेंगे? ऐसी महान आत्माओं में तो कुछ करने या मिटने के तूफान उठते रहते हैं। छोटी सी आयु में ही आपकी अन्तरात्मा में वैराग्य उत्पन्न हुआ। एक साथी को अपने विचारानुकूल बनाया और चल दिये घर से। जो कपड़े शरीर पर पहने हुए थे। उनके अतिरिक्त कोई वस्त्र उनके पास न था। केवल कुछ रुपये थे। देहली का टिकट ले लिया, दोनों मित्रों के घर वालों को पता चला तो चारों ओर ढूँढ़ने निकले। उनमें उनके एक रिश्तेदार उसी गाड़ी पर बैठ गये जिस पर वह दोनों बैठे थे। अगले स्टेशन पर देखभाल करने पर ढूँढ़ लिया। पूछा गया- कहाँ जा रहे हो। ‘हिमालय पर तप करने के लिये’ आचार्यजी का साफ उत्तर था। कोई धन के साधन तो तुम्हारे पास हैं नहीं खाओगे क्या? पुनः प्रश्न किया गया। “जो कुछ हमारे ऋषिगण खाया करते थे। महर्षि दुर्वासा दूव का सेवन करते थे। पिप्पलाद मुनि पीपल के फल पर ही शरीर का निर्वाह कर लेते थे। हमारे लिए भी गंगा का स्वच्छ जल और पेड़ों के पत्ते पर्याप्त हैं, उनसे पेट की अग्नि शान्त कर लिया करेंगे” छूटते ही कहा गया जैसे यह उनकी जबान पर ही रखा हो और पहिले से ही ऐसी योजना बना रखी हो। वहाँ जाने का तुम्हारा उद्देश्य क्या है? “तपोबल प्राप्त करना” “तपोबल प्राप्त करके क्या करोगे?” अज्ञानान्धकार में भटकती हुई आत्माओं को सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करूंगा, दुखियों के दुखों में सहायक बनूँगा, विश्व का कल्याण करूंगा।”

एक बार श्री आचार्यजी ने देखा कि एक बहेलिये ने कुछ कबूतरों को पकड़ा है। उनका कोमल हृदय दया से द्रवित हो गया। उन्होंने बहेलिए से प्रार्थना की कि वह उनको छोड़ दे। उसने कहा—”मुझे तो इनके मूल्य से मतलब है। यदि तुम इसका मूल्य दे दो तो मैं इन्हें छोड़ दूँगा।” वह घर गए और बहेलिया द्वारा माँगे हुए दाम लेकर कबूतरों को छुड़वा दिया। इसी प्रकार गाय का मूल्य देकर एक बार उन्होंने एक गाय को कसाई से बचाया था।

जब मैं उनके जीवन पर एक दृष्टि डालता हूँ, उनके खोजपूर्ण ग्रन्थों को पढ़ता हूँ, उनके व्यक्तिगत जीवन का गम्भीर अध्ययन करता हूँ, सेवा और परमार्थ के आश्चर्य चकित कार्यों को सुनता हूँ तो मेरे मन में सहसा यह बात आती है कि “होनहार विरवा के चिकने चिकने पात” महापुरुषों की महानता बचपन से ही प्रतीत होने लगती है।

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