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Magazine - Year 1960 - Version 2

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सत्य की साधना और सिद्धि

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First 5 7 Last
(सत्पथ का एक विनम्र यात्री)

धर्म शास्त्रों में ईश्वर को ‘सत्य’ रूप में उल्लेख किया गया है। वृहदारण्यक उपनिषद् 5।4 में कहा गया है—”सत्यह्येव ब्रह्म” अर्थ—सत्य ही ब्रह्म है। छाँदोग्य 6।2।1 में आया है “तत् सत्यम्” अर्थात्—सत्य ही वह—परमात्मा है। ऋग्वेद 1।164।46 में श्रुति है” एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अर्थात्—उस एक ही सत्य रूप परमेश्वर को विद्वान अनेक प्रकार से कहते हैं। तैत्तरीय उपनिषद् 2।1।1 में लिखा है—’सत्यं ज्ञान मनन्तं ब्रह्म’ अर्थात्—ब्रह्म-सत्य रूप ज्ञान रूप और अनन्त है। अथर्ववेद 12।1।1 का वचन है—सत्यं ऋतं वृहत् अर्थात्—सत्य स्वरूप परमेश्वर से ही यह विश्व ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ है। छाँदोग्य 6।8।7 में उल्लेख है—’सदेव सोम्यद मग्र आसीदेक मेव द्वितीयम् अर्थात्—’ऋषि से पूर्व वह एकमेवा द्वितीय ‘सत्’ ही था।

सत्य की महिमा वर्णन करते हुए शास्त्रकारों ने उसे सर्वोपरि धर्म बताया है और कहा है ईश्वर को उसकी कृपा को प्राप्त करने का सर्व श्रेष्ठ साधन सत्य की उपासना ही है। महाभारत में सत्य की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में अनेकों अभिवचन आते हैं—

नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।

श्रुतिर्हि सत्यं धर्मस्य तस्मात्सत्यं न लोपयेत्॥

शान्ति पर्व 162।24

सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं। असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं। सत्य ही धर्म का आधार है। अतएव सत्य का परित्याग कभी भी नहीं करना चाहिए।

सत्यं ब्रह्म तपः सत्यं, सत्यं विसृते प्रजाः।

सत्येन धार्यते लोकःर्स्वगं सत्येन गच्छति॥

शान्ति पर्व 190।1

सत्य ही ब्रह्म है। सत्य ही तप है। सत्य से ही सृष्टि उत्पन्न होती है। सत्य ही इस धरती को धारण किये हुए है। सत्य से ही स्वर्ग प्राप्त होता है।

अश्वमेघ सहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।

अश्वमेघ सहस्रद्धि सत्यमेव विशिष्यते॥

शान्ति 162।26

सहस्र अश्वमेधों का पुण्य एक ओर, और सत्य को एक ओर तराजू में रखकर तोला गया तो सत्य ही भारी निकला।

सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव।

उद्योग 33।47

जैसी नाव के द्वारा समुद्र पार किया जाता है उसी प्रकार स्वर्ग पहुँचने का आधार सत्य है।

अनृतं तमसो रुपं तमसा नीयतेह्यधः

तमोग्रस्ता न पश्यन्ति प्रकाशं तमसावृताः॥

शान्ति. 190।2

असत्य अन्धकार रूप है। इस अन्धकार में भटकने वाला मनुष्य प्रकाश से वंचित रहता है और पतन के गर्त में गिरता है।

यत्सत्यं स धर्मो, यो धर्मः स प्रकाशो यः प्रकाशः तत्सुखमिति।

—शान्ति. 190।5

जो सत्य है वही धर्म है। जो धर्म है वही प्रकाश है। जहाँ प्रकाश है वहीं सुख है।

मार्कण्डेय पुराण में भी ऐसे ही अनेक वचन मिलते हैं—

सत्येनार्वः प्रतपति, सत्यं तिष्ठति मेदिनी।

सत्यं चोक्तं परोधर्मः र्स्वगः सत्ये प्रतिष्ठितः॥

मार्क. पु. 8।41

सत्य से ही सूर्य तपता है। सत्य पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। सत्य को ही परम धर्म कहते हैं। सत्य के ऊपर ही स्वर्ग ठहरा हुआ है।

सत्यमत्यन्त मुदितं धर्म शास्त्रेषु धीयताम्।

तारणाय अनृतं तद्वत् पातनाया कृतात्यनाम्॥

8—20

तारने का सर्वश्रेष्ठ साधन सत्य है और पतन का सबसे प्रधान हेतु असत्य है।

अग्निहोत्रमधीतं वा दानाद्याश्चाखिलाः क्रियाः।

भजन्ते तस्य वैफल्यं यत्य वाक्यमकारणम्॥

8—1/9

असत्य बोलने वाले के अग्निहोत्र अध्ययन, दान आदि सभी शुभ काम निष्फल हो जाते हैं।

मनस्येक वचस्येकं कर्मण्येक महात्मनाम्।

मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कार्येन्यद् दुरात्मनाम्॥

श्मशानवद् वर्जनीयो हि नरः सत्य बहिष्कृतः।

8।17

मन, वचन और कर्म में एकता रखने वाले मनुष्य महात्मा हैं। जिनके मन में कुछ और, वाणी में कुछ और तथा कर्म में कुछ और रहता है उन्हें दुरात्मा जानना चाहिए। असत्यवादी मनुष्य को तो श्मशान के तुल्य त्याज्य मानना चाहिए।

अन्य उपनिषदों में भी इसी प्रकार के अनेकों अभिवचन मिलते हैं। देखिए—

तेषामसौ विरजो ब्रह्मलोको न येषु जिह्मम नृतं न माया चेति।

—प्रश्नोपनिषद् 1।15

विशुद्ध ब्रह्मलोक उन्हें प्राप्त होता है जिनके अन्तःकरण में असत्य, छल, कपट और कुटिलता नहीं है।

सत्येन लभ्यस्तप सात्ह्येव आत्मा।

मुंडकोपनिषद् 3।1।5

यह आत्मा तप एवं सत्य के द्वारा ही प्राप्त होता है।

सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्थाविततो देवयानः।

येनाक्रमन्त्यृषयोह्याप्त कामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्।

मुण्डक 3।1।6

सत्य ही जीतता है असत्य नहीं। सत्य से ही देव यात्रा प्रशस्त होती हैं। सत्य से ही ऋषि गण अपनी कामनाओं को जीतते हैं। सत्य रूप परमात्मा को प्राप्त करते हैं।

यो वै सधर्मः सत्यं वैतत् तस्मात्सत्यं वदन्त माहुःधर्म वदतीति धर्मवा वदन्त œ सत्यं वदतीत्येतद्धयै वै तदुभयभवन्ति॥

वृहदारण्यक 1।4।14

जो धर्म है वही सत्य है। इसी कारण सत्यवक्ता को धर्मवादी और धर्मात्मा को सत्यवादी कहते हैं। निश्चय ही सत्य और धर्म दोनों एक ही हैं।

मनुस्मृति का वचन है—

सत्यानुसारिणी लक्ष्मीः कीर्तिस्त्यागानुसारिणी।

अभ्यासानुसारिणी विद्या बुद्धिः कर्मानुसारिणी॥

अर्थात्—लक्ष्मी सत्य के पीछे पीछे चलती है। जहाँ त्याग होता है वहाँ कीर्ति होती है। अभ्यास से विद्या प्राप्त होती है। और कर्मों के अनुसार बुद्धि का विकास होता है।

श्रीमद्भागवत् में लिखा है—

आत्मार्थेवा परार्थे जा पुत्रार्थे वापि मानवाः।

अमृतं ये न भाषन्ते ते बुधाः स्वर्ग गामिनः॥

अपने लिए पुत्रादि कुटुम्बियों के लिए अथवा दूसरे किसी के लिए भी जो झूठ नहीं बोलते वे ही स्वर्ग जाते हैं। बौद्ध धर्म में भी सत्य की ऐसी ही प्रतिष्ठा है—

एकं धर्म मतीतस्य मिथ्या वादिनो जन्तुनः।

वितृष्ठा पर लोकस्य नास्ति पाप मकरणीयम्॥

धम्मपद् 13।10

सत्य ही एकमात्र धर्म है। जो उसका उल्लंघन कर असत्य बोलता है वह परलोक को भूला हुआ मनुष्य संसार के समस्त पाप कर सकता है। सब पापों की जड़ असत्य ही है।

सत्य का चिन्ह “मन कर्म और वचन की एकता।” वां मनर्स्कमणाँ याथार्थं सत्यम्। जो बात मन से हो वही वचन से प्रकट की जाए और जो वचन कहा जाए वही कार्य रूप में भी हो। इस प्रकार की त्रिविध एकता ही सत्य का लक्षण है। पातञ्जलि योग दर्शन सूत्र 2।37 के भाष्यकार व्यास ने इसे और भी अधिक स्पष्ट किया है।

सत्यं यथार्थे वां मन से यथा दृष्टं यथाऽनुमितं तथा वां मनश्चेति, परत्र स्वबोध संक्रान्तये वागुप्ता सा यदि न वञ्जिता, भ्रान्ता वा, प्रतिपत्ति वन्ध्या वा भवेत्।

अर्थात्—वाणी के साथ-साथ मन का भी सच्चा होना चाहिए। जैसा देखा हो या जैसा अनुमान हो वैसा ही भाव प्रकट करने का निश्चय रखते हुए बात कहना ‘सत्य’ कहा जाएगा। उसमें छल न हो। दूसरों को भ्रम में डालने वाला या वस्तु स्थिति से भिन्न ज्ञान देने का प्रयत्न न किया जाए।

शास्त्रकारों ने, ऋषि महर्षियों ने एक स्वर से सत्य की महत्ता का प्रतिपादन किया है। इसका कारण यह है कि सत्य में आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप और तेज का प्राकट्य होता है। असत्य एक प्रकार का आवरण है जिससे हमारी अन्तःज्योति मलीन और कलुषित होती है। आत्मा के विकास को सीधा उठते चलते, उर्ध्वगामी होने में सबसे बड़ी बाधा असत्य की ही है। छल, कपट, दुराव, छिपाव के कारण अंतर्मन में अनेक प्रकार के असमंजस पैदा होते हैं, आगा पीछा सोचना पड़ता है। झूठ खुलने का भय उत्पन्न होता है, असत्यभाषी कपटी ठहराये जाने पर जो निन्दा घृणा और अप्रतिष्ठा प्राप्त होती है उसके भय से अन्तःकरण निरन्तर संत्रस्त रहता है। इन विकृतियों के रहते हुए आध्यात्मिक विकास में बाधा पड़ती है। जिस पौधे का जन्म किसी भारी पत्थर के नीचे हुआ हो उसे ऊपर उठने में बहुत असुविधा होती है, टेढ़ा तिरछा होकर वह मुश्किल से ही उस पत्थर के नीचे से बाहर निकल पाता है। निकल कर भी धीरे धीरे बढ़ता है और फिर भी टेढ़ा कुबड़ा कुरूप ही रहता है। जीव के विकास मार्ग में भी प्रधान बाधा यही है। यदि उसका अन्तःकरण स्वच्छ रहे। सीधे सीधे, सरल भोले और निश्छल व्यवहार का अवसर मिले। अपनी मनोगत बात को बिना लाग लपेट के प्रकट करते रहने की स्थिति हो तो निस्संदेह जीवात्मा बड़ी आसानी से अपना लक्ष्य पूर्ण करते हुए परमात्मा से मिल सकता है।

सरलता ही साधुता का चिन्ह है। जो जितना सीधा भोला भाला है जिसमें जितनी है निश्छलता, और सद्भावना है वह उतना ही बड़ा सन्त कहा जा सकता है। धर्म कर्तव्यों में सत्य की गणना सर्व प्रथम सर्वोपरि तत्वों में की गई है। इसलिए श्रेयार्थी को ईश्वर की ही भाँति सत्य का भी उपासक बनना पड़ता है। कोई व्यक्ति उपासना को प्रेम पूर्वक करता है किन्तु उसका मन असत्याचरण में अभिप्रेत है तो उसकी साधना अपूर्ण एवं अधूरी ही मानी जाएगी। उसे बहुत श्रम करने पर भी वह लाभ न मिल सकेगा जो सत्य निष्ठ-शुद्ध आचरण और सद्विचारों वाला व्यक्ति थोड़ी सी ही साधना से प्राप्त कर सकता है।

साँसारिक परिस्थितियाँ प्रायः ऐसी जटिल होती हैं कि पूर्ण सत्य का निर्वाह कठिन हो जाता है। दूषित वातावरण में रहने के कारण लोगों के स्वभाव ऐसे निम्नस्तर के हो जाते हैं कि उन्हें चटपटी लच्छेदार बातों और भड़कीले प्रदर्शनों के द्वारा ही प्रभावित करना सम्भव होता है। सीधी-सीधी बात उनके गले उतरती ही नहीं। सत्यवादी को मूर्ख माना जाता है और उसकी सरलता से नाना विधि अनुचित लाभ उठाने के लिए लोग तैयार बैठे रहते हैं। सचाई सदा सीधी, सरल और स्वाभाविक होती है। वह लोगों को रुचती नहीं। उनसे दुनियादार लोग उसी तरह प्रभावित नहीं होते जैसे निरन्तर चटपटी वस्तुएँ खाते रहने वाले की जीभ को सात्विक भोजन नहीं रुचता। इन परिस्थितियों में सत्यवादी को अपने व्रत का निर्वाह करना बड़ा कठिन हो जाता है। उसे दुनिया अटपटी लगती है और दुनिया को वह अजीब मूर्ख लगता है। ऐसी दशा में कितने ही सत्य की उपासना करने वाले खिन्न होकर विरक्त बन जाते हैं और ऐसे निर्जन स्थानों में रहने लगते हैं जहाँ लोक व्यवहार की न तो आवश्यकता रहे और न असत्य अपनाना पड़े।

पर यह पलायनवादी मनोवृत्ति ठीक नहीं। विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए सच्चे सत्य प्रेमी को उन कष्टों को सहने के लिए तैयार रहना चाहिए जो इस मार्ग के पथिक की परीक्षा करने के लिए आती हैं। यदि साधक डरे नहीं, असुविधाओं और विरोधों से घबराये नहीं, अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं को सीमित रखे, कष्ट सहिष्णुता का विपत्ति में हँसते रहने का और विरोधी के प्रति सद्भाव रखने का स्वभाव बना ले तो उसकी सत्यनिष्ठा आसानी से निभ सकती है। जो लोग सत्य पालन के महान लाभों से लाभान्वित होना चाहते हैं उन्हें उसके लिए अपने स्वभाव में इन आवश्यक गुणों को भी उत्पन्न करना ही पड़ेगा। सत्य सेवी का श्रेय तो प्राप्त हो जाए पर विरोध, हानि, अपमान, असुविधा एवं आपत्ति का सामना न करना पड़े ऐसा नहीं हो सकता।

परमाणु यंत्रों पर काम करने वाले वैज्ञानिक, अपने शरीर पर विशेष प्रकार का सुरक्षा आवरण पहनकर तब कार्य करते हैं। वे जानते हैं कि अणु प्रक्रियायें ऐसी जबरदस्त होती हैं कि यदि उनका थोड़ा भी विघटन हो जाए तो कष्टकर परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं इसलिए अणु कार्य आरम्भ करने से पहले वे अपनी सुरक्षा का आवरण सही कर लेते हैं। सत्य की उपासना करने वाले को भी अणु वैज्ञानिक की भाँति अपने स्वभाव में उन गुणों को लाना पड़ेगा जिससे परिस्थितियों से पली हुई दुनिया—अन्धे गाँव में आने पर ऊँट के पीछे जिस प्रकार लोग हाथ धो कर पड़ते हैं उसी प्रकार इसके पीछे भी पड़े तो वह अपनी सज्जनता, सहनशीलता, धैर्य और स्वल्प आवश्यकता वाले स्वभाव के कारण उस प्रतिरोध को सहन कर सके। बिजली घर का मिस्त्री जिस प्रकार खराब तारों को संभालते समय लकड़ी पर खड़ा होता है, रबड़ के दस्ताने हाथों में पहनता है और औजारों की मूँठ काठ की बनाता है उसी प्रकार सत्यसेवी को अपने अन्दर साधुता के अन्य गुण उत्पन्न करने पड़ते हैं। इसके बिना वह थोड़े ही दिनों में दुनिया के व्यवहार से इतना परेशान हो जाता है कि उसे अपना व्रत तोड़ने में ही कुशल दीखती है।

सत्य का सज्जनता से अनन्य सम्बन्ध है। सत्यनिष्ठा उसी की निभेगी जो सज्जन होगा। इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि सत्यनिष्ठा से सज्जनता के सभी आवश्यक गुण उत्पन्न हो जायेंगे। एक के बिना दूसरी बात निभ ही नहीं सकेगी। तामसी राजसी इच्छाओं और आवश्यकताओं वाला व्यक्ति सत्यनिष्ठ रह सके यह कठिन है। सत्य केवल सच बोलने तक ही सीमित नहीं है। वरन् वह एक सर्वांगीण सर्वतोमुखी जीवन साधना है। वैसी ही साधना जैसी अन्यान्य कष्ट साध्य योग साधनाएँ परमात्मा को प्राप्त करने के लिए की जाती हैं। सत्य पालन की साधना से भी जीवात्मा परमात्मा तक इसी प्रकार पहुँच सकती है जैसे अन्यान्य योगों के साधक तपस्वी लोग ब्रह्म सायुज्य की स्थिति तक पहुँचते हैं। जिस प्रकार सभी साधनाओं में कुछ कष्ट उठाने और कुछ त्याग करने के लिए तैयार होना पड़ता है उसी प्रकार सत्य साधना का भी मूल्य चुकाना पड़ता है।

सफलता क्षेत्र में सत्य का भी वही स्थान है जो ईश्वर का। जिस प्रकार शिव, विष्णु आदि की उपासना की जाती है उसी प्रकार ही सत्य की भी आराधना है। सिद्ध हुआ सत्य भी साधक को वैसे ही वरदान दे सकता है जैसे कोई अन्य देवता या साक्षात् परमात्मा प्रसन्न होने पर अपने आराधक को प्रदान करते हैं।

पातञ्जलि योगदर्शन साधन पाद के सूत्र 36 में कहा गया है—

सत्य प्रतिष्ठायाँ क्रिया फलाश्रित्वम्।

अर्थात्—सत्य में स्थिति दृढ़ हो जाने पर क्रिया फल का आश्रय बन जाती है।

इसका तात्पर्य यह हुआ कि सत्यनिष्ठ की वाणी के द्वारा जो क्रिया होती है अर्थात् जो कुछ वह कहता है सो फलीभूत सफल होता है। उसकी वाणी कभी असत्य नहीं होती। अनेकों पुण्य कार्य करने से जो फल अन्य लोगों को मिलते हैं वह फल सत्यनिष्ठ को अपनी वाणी साधना से ही मिल जाते हैं। यदि वह किसी को शाप या वरदान दे तो पूर्ण सफल होता है। किसी ने जो शुभ नहीं किया है उसका सत्परिणाम उपस्थित कर देने की शक्ति उसमें उत्पन्न हो जाती है। यह तो एक प्रत्यक्ष एवं प्रकट सिद्धि है। इसके अतिरिक्त भी सत्यनिष्ठ अनेक आध्यात्मिक सफलताओं से सम्पन्न हो जाता है।

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