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Magazine - Year 1960 - Version 2

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गायत्री उपासना विधि पूर्वक ही की जाए

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(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)

गायत्री के 24 अक्षरों में भगवान् से सद्बुद्धि की प्रार्थना और याचना की गई है। सद्बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा-वह तत्व है जिसे प्राप्त कर लेने पर और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। कमल का फूल जब खिलता है तो उसकी सौंदर्य और गन्ध से आकर्षित होकर कौए, मधुमक्खियाँ और तितलियाँ दूर-दूर से अनायास ही दौड़ते चले आते हैं। उसी प्रकार जिस अन्तःकरण में गायत्री द्वारा आराधित सद्बुद्धि की आभा विकसित होती है—वहाँ लौकिक और पारलौकिक अनेकों सुख-साधन स्वयमेव आकर्षित होते हुये दौड़े चले आते हैं।

रामायण में कहा गया है—

जहाँ सुमति तहँ संपत्ति नाना।

जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना॥

जहाँ सुमति का, सद्बुद्धि का प्रकाश होगा वहाँ नाना प्रकार की सम्पत्तियों के भण्डार जमा हो जाएंगे और जहाँ सुमति का अभाव होगा उसकी प्रतिपक्षी शक्ति कुमति निवास करेगी वहाँ अनेकों विपत्तियों की घटनाएँ छाई रहेंगी। सद्विवेक की आवश्यक मात्रा मस्तिष्क में हो तो मनुष्य ऐसा श्रेष्ठ आचरण करता है जिससे उसका जीवन बड़ी शान्ति और सरलता पूर्वक व्यतीत होता है। सदाचारी व्यक्ति को किसी का भय नहीं रहता। वह किसी का अनिष्ट नहीं करता तो दूसरे भी अकारण उसे हानि नहीं पहुँचाते। उसका व्यवहार सबसे मधुरता और उदारता का होता है तो दूसरे भी बदले में वैसा आनंद दायक व्यवहार करते हैं। संयमशील, उचित आहार विहार का जिनका जीवन है उन्हें अस्वस्थता और अल्पायु का भी दुःख नहीं होता। ऐसे विवेकशील लोग शरीर और मन में सदा सुखी एवं सन्तुष्ट रहते हैं।

प्रार्थना रूप गायत्री की उपासना में कोई नियम बन्धन नहीं है। जैसे साधारण कथा में भगवान् से प्रार्थना की जाती है। उसी प्रकार गायत्री के द्वारा भी भगवान से सद्बुद्धि माँगी जा सकती है। किंतु यदि आध्यात्म विज्ञान सम्मत प्रक्रिया द्वारा इस ऋतम्भरा तत्व को सूक्ष्म प्रकृति के अन्तराल में से आकर्षित करके अपने लिए समुचित मात्रा में प्राप्त करना हो तो गायत्री का उपयोग मन्त्र रूप में करना पड़ेगा। मन्त्र में विशेष शक्ति सम्मिलित रहती है पर साथ ही इससे शास्त्रीय नियम विधानों का बन्धन भी है। बिना विधान और प्रक्रिया का समुचित पालन किए मन्त्र तत्व जागृत नहीं होता और उसका वह फल नहीं मिलता जो उस महाशक्ति के द्वारा प्राप्त होना चाहिये।

प्रार्थना में भावना की प्रधानता

यों गायत्री को अगणित मनुष्य जानते हैं, उसका उच्चारण और स्मरण भी करते हैं उसका उतना ही सीमित लाभ भी होता है जितना कि समय समय पर ईश्वर से की जाने वाली प्रार्थना का होता है। प्रार्थना में भावना प्रधान होती है जितनी तीव्र गहरी भावना से प्रार्थना की जाएगी उतना ही उसका परिणाम भी होगा। ग्राह के मुख में फँसे हुए गज ने जब अपने अन्तस्तल की पूरी गहराई और प्रबल भावना के साथ भगवान् को पुकारा तो वे अपने वाहन गरुड़ की मन्दगति अपर्याप्त समझ कर अधिक जल्दी भक्त की रक्षा करने के लिए नंगे ही पैरों दौड़े आये। किन्तु कितने ही लोग ऐसे भी हैं जो देर तक प्रार्थना करते रहते हैं फिर भी उसका कुछ परिणाम नहीं होता। कारण एक ही है कि उनकी प्रार्थना में शब्द और विचार तो होते हैं। पर भावों की गंभीरता नहीं होती। उसके अन्तस्तल से निकली हुई प्रार्थना का प्रभाव तो होता है पर बहुत ही कम। गायत्री मन्त्र का उपयोग बिना किसी विधान के प्रार्थना रूप में किया जा सकता है। पर उसका न्यूनाधिक परिणाम प्रार्थना करने वाले की भावना के अनुरूप ही होगा।

प्रार्थना में भावना की प्रधानता का प्रतिपादन करते हुए शास्त्रों में कहा गया है—

भावेन लभते सर्वं भावेन देव दर्शनम्।

भावेन परमं ज्ञानं तस्याद भावावलम्बनम्॥

—रुद्र मल

भाव से ही सब कुछ प्राप्त होता है। भावना की दृढ़ता से ही देव दर्शन होते हैं। भावना से ही ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिये भाव का ही अवलम्बन करना चाहिये।

यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवनि तादृशी।

जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसी ही सिद्धि मिलती है।

ऐसी भावमयी प्रार्थना के लिए नियमोपनियमों या साधना विधानों का कोई बन्धन नहीं है।

अशुचिर्वाशुचिर्वापि गच्छन् तिष्ठन् यथा तथा।

अपवित्र हो अथवा पवित्र हो, चलता हो अथवा बैठा हो, जिस भी स्थिति में हो, बुद्धिमान मनुष्य गायत्री का जप करता रहे। इस जप के द्वारा पापों से छुटकारा होता है।

—गायत्री तन्त्र

मानसिक जप को प्रार्थना संज्ञा में माना गया है इसलिये उसमें नियम बन्धनों का प्रतिबन्ध नहीं है।

अशुचिर्वा शुचिर्वापि गच्छाँस्तिष्ठन् स्वपन्नपि।

मंत्रैक शरणो विद्वान् मनसैव सदाभ्यसेत्॥

न दोषो मानसे जाप्ये सर्व देशेऽपि सर्वदा।

पवित्र हो अथवा अपवित्र, चलते-फिरते, बैठते-उठते, सोते-जागते एक ही मन्त्र की शरण लेकर उसका सदा मानसिक जप करता रहे। मानसिक जप में किसी समय या स्थान का दोष नहीं होता।

प्रार्थना तभी सुनी जाती है जब उसमें अनन्यता एवं तन्मयता हो। विषयी, लोभी, कामी पुरुषों को अपने विषय में जैसी लगन होती है, वैसी ही यदि ईश्वर में निष्ठा और भक्ति हो तथा गज के समान गहन अन्तस्तल में प्रार्थना की जाए तो उसका प्रभाव भी वैसा ही होता है जैसा कि हुमायूँ की बीमारी के समय उसके पिता बाबर ने खुदा से इबादत की कि मेरा बेटा जी जाए और मैं उसके बदले में मर जाऊँ। उसी प्रार्थना सुनली गई। बाबर मर गया और हुमायूँ कठिन बीमारी में अच्छा हो गया।

प्रार्थना की सफलता का रहस्य भक्त की इन भावनाओं पर आधारित रहता है।

या प्रीतिरविवेकानाँ विषयेष्वन पापिनी।

त्वामनुस्यरतः सा में हृदयान्याय सर्पतु॥

—विष्णु पुराण

जिस प्रकार अविवेकी मनुष्यों की प्रीति विषयों में होती है, वैसी ही मेरी प्रीति सदा तुम में बनी रहे।

मन्त्र विद्या में विधि-विधान की आवश्यकता

मन्त्र विद्या का तत्त्व ज्ञान इससे भिन्न है। उसमें विधि-विधान, कर्मकाण्ड और मर्यादा की प्रधानता है। मन्त्र में प्रचण्ड शक्ति सन्निहित है। मन्त्र शास्त्र एक प्रत्यक्ष विज्ञान है। जिस प्रकार भौतिक विज्ञान के नियमों के आधार पर काम करने वाले यन्त्र विधिवत् चलाये जावें तो अपना कार्य नियमित रूप से करते हैं उसी प्रकार मंत्र भी यदि निर्धारित कर्मकाण्ड एवं विधान के आधार पर प्रयुक्त किये जाए तो उनके द्वारा वही लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं जो शास्त्रकारों एवं ऋषियों ने बताये हैं।

गायत्री की यदि विधिवत् शास्त्रीय प्रक्रियाओं के आधार पर उपासना की जाए तो वह मंत्र रूप होकर चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करती है। जिस प्रकार प्रार्थना में भावना प्रधान है उसी प्रकार मंत्र में साधना विधान की प्रधानता है। भावना विहीन प्रार्थना निष्फल जाती है उसी प्रकार साधना विधान उपेक्षा करने पर मंत्र का समुचित परिणाम नहीं होता।

गायत्री जहाँ प्रार्थना है वहाँ वह महान रहस्यमयी मन्त्र शक्ति भी है। मन्त्र रूप में इस अनादि शक्ति की उपासना करने वाले साधक बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। गायत्री का महात्म्य बताते हुए साधना ग्रंथों में कहा गया है—

तदित्यृच समोनास्ति मन्त्रो वेद चतुष्टये। सर्वेवेदश्च यज्ञाश्च दानानि च तपाँस च। सम्मानि कलया प्राहुर्मुनयो न तदित्यृचः।

—विश्वामित्र

इस गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मन्त्र नहीं। समस्त वेद, यज्ञ, दान, तप भी गायत्री की एक कला के बराबर नहीं हो सकते, ऐसा ऋषियों ने कहा है।

सर्वेषाँजप सूक्तानामृचाञ्च यजुषान्त ता।

साम्नाँ चैकाक्षरादीनाँ गायत्री परमो जपः।

तस्याश्चैव तु ओंकारो ब्रह्मणा य उपासितः।

आभ्यान्तु परमं जप्यं त्रैलोक्येंऽपि न विद्यते॥

—बृहत् पाराशर संहिता

सम्पूर्ण वेदों, सूक्तों तथा प्रणव आदि मन्त्रों में सबसे श्रेष्ठ गायत्री जप ही है। जिस ओंकार की उपासना ब्रह्माजी द्वारा की गई वह भी गायत्री का ही अंग है। इनसे बढ़कर तीनों लोकों में और कोई जप संसार में नहीं है।

यतः साक्षात् सर्व देवतात्मनः सर्वात्म द्योतकः सर्वात्म प्रतिपादकोऽयं गायत्री मन्त्रः।

—संध्या भाष्य

यह गायत्री मन्त्र साक्षात् सर्व देवता स्वरूप, सर्व शक्तिमान्, सर्वत्र प्रकाश करने वाला तथा परमात्मा का प्रतिपादन करने वाला है।

दुर्लभा सर्व मंत्रेषु गायत्री प्रणवान्विता।

न गायत्र्याधिकं किंचित् त्रधीषु परिगीयते॥

अर्थात्—इस संसार में गायत्री के समान परम पवित्र और कोई दुर्लभ मंत्र नहीं है। श्रुति में गायत्री से अधिक और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है।

अष्टादशसु विद्यासु मीमाँसाति गरीयसी।

तपोपितर्क शास्त्राणि पुराणं तेभ्य एव च॥

ततोपि धर्म शास्त्राणि तेभ्योगुर्वो श्रुतिर्द्विज।

तपोप्पुपनिषच्छेष्टा गायत्री च ततोधिका॥

—वृ. संध्या भाष्य

अठारहों विद्याओं में मीमाँसा श्रेष्ठ है। उनसे भी न्याय शास्त्र श्रेष्ठ है। पुराणों की महत्ता उससे भी ऊँची है। धर्म शास्त्र उससे भी श्रेष्ठ हैं। उनसे ऊपर उपनिषदें हैं और उनसे भी श्रेष्ठ गायत्री है।

चारों वेदों में विश्व का समस्त ज्ञान विज्ञान भरा हुआ है। भौतिक और आध्यात्मिक-लौकिक और पारलौकिक सुख शान्ति के सारे भण्डार वेदों में छिपे हुए हैं। समस्त प्रकार की सिद्धियों और शक्तियों को प्राप्त करने के रहस्य वेदों में मौजूद हैं। गायत्री वेद माता है। उसमें वेदों में सन्निहित समस्त विद्याएँ बीज रूप से मौजूद हैं। वेद विद्या के विस्तृत क्षेत्र में जो कुछ मौजूद है, उसका सार गायत्री में समाया हुआ है। इसलिए गायत्री उपासना करने वाला वेद विद्या के समस्त लाभों को प्राप्त कर सकता है।

वेद माता गायत्री की महत्ता का प्रतिपादन ग्रंथों में इस प्रकार किया गया है—

गायत्र्येव परो विष्णु गायत्र्येव परः शिवः।

गायत्र्येव परो ब्रह्मा गायत्र्येव त्रयी ततः॥

अर्थात्—गायत्री में ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तीनों शक्तियाँ समाई हुई हैं, गायत्री में वेदत्रयी भी सन्निहित है।

गायत्री वेद जननी गायत्री पाप नाशिनी।

गायवीव्यास्तु परन्नस्ति दिविचेह च पावनम्॥

गायत्री वेदों की जननी है, गायत्री पापों का नाश करने वाली है, गायत्री से अधिक श्रेष्ठ पवित्र करने वाला और कोई मन्त्र इस पृथ्वी और स्वर्ग पर नहीं है।

इति वेद पवित्राण्यर्भिहितानि एम्यः सावित्री विशिष्यते।

—शंखस्मृति

यों तो सभी वेद मंत्र पवित्र हैं पर उन सबों में गायत्री मंत्र सर्वश्रेष्ठ है।

त्रिम्यएव तु वेदेभ्यः पादं पादमद्दुहत।

तदित्यचोऽस्या सावित्र्याः परमेष्ठी प्रजापतिः॥

—मनु. 2—77

अर्थात्—परमेष्ठी प्रजापति ने तीन वेदों का दोहन करके उससे गायत्री के तीन पाद बनाये।

ओंकार पूर्विकास्तिस्त्रों महाव्याहृतयो व्ययाः।

त्रिपदाचैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणो मुखम्॥

अर्थात्—ॐकार पूर्वक तीन महाव्याहृतियों समेत त्रिपदा गायत्री की वेद का मुख्य ही जानना चाहिये।

गायत्री उपासना से दुष्कृतों का शमन

गायत्री उपासना का प्रभाव सबसे प्रथम मनुष्य के मनः क्षेत्र पर पड़ता है। उसके कुविचार दूर होते हैं, दुष्कर्मों में घृणा उत्पन्न होती है, आत्म निरीक्षण में अभिरुचि होती है और अपने अन्दर जो जो दोष दुर्गुण हैं उसे उपासक ढूँढ़-2 कर तलाश करता है। उनकी हानियों को समझता है और उन्हें त्यागने को तत्पर हो जाता है। इस प्रक्रिया के कारण उसका वर्तमान जीवन पापमुक्त होता है और जैसे जैसे यह पवित्रता बढ़ती है उसी अनुमान से पूर्व जन्मों के दुष्कृत संस्कार भी घटने और नष्ट होने लगते हैं। इसीलिये गायत्री को पाप-नाशिनी, मोक्ष-दायिनी, कल्याण-कारिणी कहा गया है। देखिये :—

गायत्र्या परमं नास्ति देवि चेह न पावनम्।

हस्तत्राण प्रदा देवी पतताँ नरकार्णवे॥

-शंखस्मृति अ. 12-25

नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाली गायत्री के समान पवित्र करने वाली, वस्तु इस पृथ्वी पर तथा स्वर्ग में कोई नहीं है।

धर्मोन्नतिमधर्मस्य नाशनं जनहृछ्रु चिम्।

माँगल्ये जगतो माता गायत्री कुसनात्सदा॥

धर्म की उन्नति, अधर्म का नाश, भक्तों के हृदय की पवित्रता तथा संसार का कल्याण गायत्री माता करें।

गायत्री जाह्नवी चोमे सर्व पाप हरे स्मृतो।

गायत्रीच्छन्दसाँ माता माता लोकस्य जाह्नवी॥

—नारद पुराण

गायत्री और गंगा यह दोनों ही सब पापों का नाश करने वाली हैं। गायत्री को वेद माता और गंगा को लोकमाता कहते हैं।

गायत्रीयो जपेन्नित्यं स न पापेन लिप्यते।

—हरितास्मृति 3—42

जो गायत्री का नित्य नियमित जप करता है, वह पापों में लिप्त नहीं होता।

गायत्रीं पावनीं जप्त्वा ज्ञात्वा याति पराँ गतिम्।

न गायत्री विहीनस्य भद्रमत्र परत्र च॥

अर्थात्—परम पावनी गायत्री का श्रद्धापूर्वक जप करके साधक परम गति को प्राप्त करता है। गायत्री रहित का तो न इस लोक में कल्याण होता है न परलोक में।

गायत्री जाप्य निरतो मोक्षोपापं च विंदति

अर्थात्—गायत्री मन्त्र का जप करने वाला मोक्ष को प्राप्त करता है।

पराँसिद्धिमवाप्नोति गायत्री मुत्तमाँ पठेत्।

गायत्री का जप करने में परा सिद्धि प्राप्त होती है।

सुख सौभाग्य दायक महा मन्त्र

गायत्री महा मन्त्र की उपासना से उत्पन्न आध्यात्मिक शक्ति से मनुष्य के लौकिक जीवन पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है और उसकी अनेकों आपत्तियों तथा कठिनाइयों का समाधान होकर सुख, समृद्धि, सौभाग्य, सफलता एवं उन्नति के अवसर प्राप्त होते हैं। उपासकों के अनुभवों से भी यह प्रत्यक्ष है और शास्त्र वचनों से भी इसकी पुष्टि होती है।

एहिकामुष्यिकं सर्वं गायत्री जपतो भवेत्।

—अग्नि पुराण

अर्थात्—गायत्री जप से सभी साँसारिक कामनाएं पूर्ण होती हैं।

य एताँ वेद गायत्रीं पुण्या सर्व गुणान्विताम्।

तत्वेन भरतश्रेष्ठ सलोके न प्रणश्यति॥

—म. भा. भीष्म पर्व 14।16

जो इस पवित्र सर्वगुण सम्पन्न गायत्री के तत्व को जानता है, उसे इस लोक में कोई कष्ट नहीं होता।

यो हवा एववित् स ब्रह्मवित् पुण्याँ च कीर्तिं लभते। सुरभींश्च गन्धान् सोऽपहतपाम्या अनन्ताँश्चिययश्रुते य एवं वेद थश्चैव विद्वान् एवमेताँ वेदानाँ मातरमं सावित्रीं संपदमुपनिषदमुपास्ते।

—गोपथ ब्राह्मण

जो इस तत्व को जानता है वह पुण्य, कीर्ति, लक्ष्मी आदि को प्राप्त करता हुआ श्रेय प्राप्त करता है और वही वेदमाता गायत्री की वास्तविक उपासना करता है।

संकीर्णता यदा पश्येद्रोगाद्वा द्विषतोऽपिवा।

तदा जपेच्च गायत्री सर्व दोषापनुत्तमे॥

—बृहत्पाराशर स्मृति 8-60

रोना, शोक, द्वेष तथा अभाव की स्थिति में गायत्री जपने से इन कष्टों से छुटकारा मिल जाता है।

मन्त्र शक्ति का मर्म व रहस्य

उपरोक्त प्रकार के लाभों का प्राप्त होना गायत्री उपासक के लिए निश्चित रूप से सम्भव है पर यह सम्भावना तभी है जब मन्त्र की नियमित शास्त्रोक्त विधि में उसकी उपासना की जाए। गायत्री की मन्त्र संज्ञा तभी होती है जब उसमें विधिविधान की पूर्णता है। मन्त्र की शक्ति के बारे में कहा है कि :-

मननात्सर्वाभावानाँ त्राण्यात्संसर सागरात्।

मंत्र रूपाहि तच्छक्तिर्मनत्राण रूपिणी॥

जिसके मनन करने से सब अभाव दूर होते हैं, तथा जिसके द्वारा संसार सागर में त्राण मिलता है वह मनन शक्ति मंत्र रूप है।

मंत्राराधन के सम्बन्ध में साधना के नियमों पर जोर देते हुए कहा गया है कि :—

अर्थ ज्ञानं बिना कर्म न श्रेय साधनं यतः।

अर्थ ज्ञानं साधनीयं द्विजैः श्रेयोर्थिभिस्तन्॥

मंत्रार्थज्ञो जपन हूयन स्तथैबाह्यापयन द्विजः।

अधीत्य यत्किंचिदपि मंत्रार्थाधिगमेरतः॥

ब्रह्मलोक मवाप्नोति धर्मानुष्ठानतो द्विजः।

ज्ञात्वा ज्ञात्वा च कर्माणि जनोयोयोनुतिष्ठति॥

विदुष कर्मसिद्धिःस्यात्रषानाविदुषो भवेत्।

ज्ञानं कर्म च संयुक्तं भूर्त्यथं कथितं यथा॥

अधीतं श्रुत संयुक्तं तत्र श्रेष्ठं न केवलम्।

अर्थात्—मंत्र का अर्थ और विधान जानकर ही उपासना करने से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। मंत्र के अर्थ का अध्ययन भी करना चाहिये और उसके रहस्य को भी समझना चाहिये तभी मंत्र होता है। जो कर्म करना है उससे अधिकाधिक जानना चाहिये, पूरी जानकारी पर आधारित कर्म में ही सफलता मिलती है। ज्ञान और कर्म को मिलाकर अध्ययन और श्रवण के आधार पर जो किया जाता है वही उत्तम है।

और भी ऐसे ही कितने अभिवचन हैं जिनमें गायत्री महामंत्र की महत्ता एवं लाभों का वर्णन करते हुए इस बात का भी संकेत किया है कि यह सब कुछ तभी संभव हो सकता है जबकि उस साधना को विधि विधान पूर्वक नियमित रूप से सम्पन्न किया जाए।

गायत्री यः सदा विप्रो जपेत्तु नियतः शुचिः।

प याति परमस्थानं वायु भूतः स्वमूर्तिमान्॥

-संवर्त संहिता 1—21

जो साधक गायत्री को ‘नित्य नियमित रूप से पवित्रता पूर्वक’ जपता है वह सूक्ष्म लोक के परम स्थान को ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त करता है।

गायत्र्या योग सिर्द्धथं जपं कुर्यात् समाहितः।

योग की सिद्धि के लिए साधक को सावधानी के साथ गायत्री जप करना चाहिए।

जपताँ जुह्वताँ चैव नित्यं च प्रयतात्मनाम्।

ऋषीणाँ परमं जप्यं गुह्यमेतन्नराधिप॥

—महा अनु.

अर्थात्—’नित्य जप करने के लिए, हवन करने के लिए’ ऋषियों का परम मन्त्र गायत्री ही है।

यथा कथं च जप्तैषा त्रिपदा परम पाविनी।

सर्व काम प्रदा प्रोक्ता विधिनाँकिं पुनतृय॥

—विष्णु धर्मोत्तर

हे राजन्—जैसे बने वैसे जप करने पर भी परम पावनी गायत्री कल्याण करती है, फिर ‘विधि पूर्वक उपासना करने के लाभ का तो कहना ही क्या है?’

जपताँ जुह्वताँ चैव विनियाते न विद्यते।

‘गायत्री जप और हवन करते रहने वाले का कभी पतन नहीं होता।’

न प्रमादोऽत्र कर्तव्यो विदुषमोक्षभिच्छता।

प्रमादेजृम्मते माया सूर्यापाये तमोयथा॥

—वेदान्त सिद्धान्तसार

कल्याण की इच्छा करने वाला ‘प्रमाद न करे।’ जैसे संध्या होते ही अन्धकार फैल जाता है वैसे ही प्रमाद आते ही माया दबोच लेती है।

देवो भूत्वा यजेद्देवं नादंवो देवमर्नयेत्।

‘अपने में देवता धारण करके’ ही देवता की पूजा करनी चाहिए। इसके बिना देवपूजन अवांछनीय है।

जप संख्यातु कर्तव्या नासंख्यातं जपेत् सुधीः।

‘जप संख्या गिनकर करना चाहिए।’ बुद्धिमान लोग बिना संख्या गिने जप न करें।

कितने ही मनुष्य शास्त्र विधि की साधना विधान को व्यर्थ मान कर मनमानी रीति से साधना करते हैं, अपनी मनमर्जी में चाहे जैसे नियम बना लेते हैं, चाहे जिस विधान को व्यर्थ कहने लगते हैं। ऐसी मनमानी करने वाले, शास्त्र विधि की अवज्ञा करने वाले एक प्रकार के बन्दर हैं, उनकी उछल-कूद का कितना परिणाम होगा, यह कह सकना अनिश्चित है।

शास्त्राणि यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति ये नरः।

मतयो यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति वानरः॥

जहाँ शास्त्र निर्देश करता है वहाँ जो जाते हैं वे मनुष्य हैं और जहाँ मन चाहता है वहाँ जाते हैं वे वानर हैं।

इसलिये गायत्री महामंत्र से समुचित लाभ उठाने के इच्छुकों के लिए यही उचित है कि शास्त्र विधि से बताये हुये विधि-विधान के साथ अपनी उपासना पूर्ण करें। आध्यात्म विज्ञान के महत्व पूर्ण सिद्धान्त के आधार पर नियमित साधना विधान की उपेक्षा न करे।

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