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Magazine - Year 1960 - Version 2

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कष्ट साध्य तपश्चर्या व्यर्थ है।

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(श्री स्वामी सच्चिदानन्दजी महाराज)

इस संसार में परोपकार को पुण्य माना जाता है। जिसने दूसरों के लिए जितना अधिक दान, त्याग, श्रम या प्रयत्न किया हो उसे उतना ही बड़ा पुण्यात्मा कहते हैं। इसी तथ्य को हृदयंगम कर धर्म प्रेमी सज्जन अपने जीवन में निजी कार्यों से समय और निजी आवश्यकताओं से धन बचाकर उसे परमार्थ के कामों में लगाते हैं।

परदेश में पहुँचने पर अनजान जगह में किसी व्यक्ति को ठहरने की असुविधा होना स्वाभाविक है क्योंकि एक तो प्रत्येक गृहस्थ के पास सीमित जगह होती है फिर अनजान आदमी का विश्वास कौन करे? ऐसी दशा में दूर प्रदेश में जाकर ठहरने की समस्या किसी भी परदेशी के लिए सचमुच ही बहुत उलझन भरी होती है। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए अनेकों धनी मानी लोग जहाँ तहाँ धर्मशालायें बनवाते हैं जिनमें यात्री आनन्द पूर्वक ठहर सकें। यह अवश्य ही पुण्य है। कई व्यक्ति कुएँ बनवा देते हैं जहाँ जल की आवश्यकता वाले लोग जल प्राप्त कर सकें। कई सज्जन प्याऊ लगवाते हैं ताकि लोटा डोर न होने पर भी बिना श्रम किये ही तुरन्त ठंडा जल पीकर पथिक अपनी प्यास बुझा सकें। कई सज्जन तालाब खुदवाते हैं जहाँ मनुष्य ही नहीं पशु पक्षी भी जल प्राप्त कर सकें लोगों को स्नान की, वस्त्र धोने की, घर के लिए पानी ले जाने की तथा खेती सिंचाई की आवश्यकता भी पूर्ण हो सके। बाग-बगीचे लगवाने वालों के भी ऐसे ही उद्देश्य होते हैं। उन वृक्षों की छाया में लोग शीतलता प्राप्त करें, पशु पक्षी भी उनका लाभ उठावें, पुष्प और फलों से लोग प्रसन्नता तथा तृप्ति अनुभव करें। लंगड़ी लूली वृद्ध गौओं की कसाई से रक्षा करने के लिए गौशालाएँ स्थापित करते हैं इनकी भी प्रशंसा ही की जानी चाहिए।

कितने ही पुण्यात्मा लोग भूखों को भोजन देते हैं। सदावर्त लगाते हैं। सन्तों ब्राह्मणों एवं समाज सेवियों का भोजन वस्त्र से सत्कार करते हैं। प्राचीन काल के सभी ब्राह्मण और साधु समाज सेवी होते थे इसलिए उनके भोजन आदि की आवश्यकताएँ पूरी करना एक प्रकार से समाज सेवा के अनेक स्रोतों को संचालित करना ही था। इसी से ब्रह्म भोज का पुण्य माना गया था। आज भी यदि सच्चे समाज सेवी साधु ब्राह्मण मिल सकें तो उनकी भोजन आदि की आवश्यकताएँ पूर्ण करना ब्रह्म भोज ही होगा और उसका शास्त्रोक्त पुण्य भी मिलेगा। कितने ही दयालु सज्जन अन्धे, अपाहिजों को दीन हीनों को शीत से बचाने के कम्बल, रजाई, धोती, कपड़े आदि बाँटते हैं यह भी पुण्य ही है। कितने ही सत्पुरुषों ने अपने धन का सदुपयोग करने के लिए औषधालय, अस्पताल,प्रसूति गृह खुलवाये हुए हैं जहाँ पीड़ित लोग जाकर अपने कष्टों एवं रोगों से मुक्ति के लिए आवश्यक सुविधाएँ प्राप्त करते हैं। कितने ही विद्यालय एवं पाठशालाएँ धनी-मानियों के धन या जनता के चन्दे से चलते हैं। इनसे ज्ञान वृद्धि होती है। पुस्तकालय एवं वाचनालय भी इसी श्रेणी में आते हैं। यह सब परमार्थ ही है। इनके संयोजकों के सत्प्रयत्न निश्चय ही सराहनीय हैं।

कितने ही व्यक्ति श्रम संभव प्रयत्नों के द्वारा लोक सेवा का पुण्य परमार्थ करते हैं। श्रम दान भी धन दान के समान ही—वरन् उससे भी कुछ बढ़कर पुण्य माना गया है। उत्साही सेवाभावी लोग मिलजुलकर सेवा समिति जैसे संगठन बनाते हैं और मेले-ठेलों में जहाँ जनता को विशेषकर स्त्री बच्चों के खोने आदि की कुशंका रहती है यह स्वयं सेवक उनकी बड़ी सहायता करते हैं। प्यासों को पानी पिलाते हैं, खोये हुओं को ढूंढ़कर यथा स्थान पहुँचाते हैं, चोर बदमाशों से रखवाली करते हैं, नदी स्नान आदि के अवसरों पर डूबते हुओं को बचाते हैं इस प्रकार की निस्वार्थ सेवा बुद्धि को परमार्थ ही कहा जाएगा। आजकल विकास योजनाओं के अंतर्गत श्रम दान से सड़कें, नहरें, पुल आदि बनाने का, घाट तालाबों की सफाई का काम जहाँ तहाँ उत्साहपूर्वक होता देखा जाता है। महामारी एवं बीमारी फैलने के दिनों में लोग घर घर जाकर रोगियों की चिकित्सा, परिचर्या, मृत-संस्कार आदि के जोखिम भरे काम करते हैं इन प्रयत्नों की कौन प्रशंसा न करेगा।

कुछ लोग ऐसी ही लगन और सेवा भावना से जनता की बौद्धिक एवं संगठनात्मक सेवाएँ करते हैं। प्रवचनकर्ता, व्याख्यान दाता, लेखक, ग्रन्थकार, पत्रकार, गायक लोगों में ज्ञान और सद्भाव बढ़ाने के लिए अपनी विद्या, वाणी, लेखनी का उपयोग करते हैं। इससे आवश्यक ज्ञान एवं कर्तव्य परायणता के लिए उत्साह प्राप्त होता है। किसी समय यह कार्य साधु ब्राह्मण समाज ने पूरी जिम्मेदारी से अपने कन्धे पर उठाया हुआ था और उसे लाखों वर्षों तक निबाहा भी भली प्रकार। आज इस काम को सार्वजनिक संस्थाओं के अंतर्गत रहकर तथा स्वतन्त्र रूप में अनेक विचारक विद्वान और लोक सेवी अपने अपने ढंग से कर रहे हैं और जानकारी, राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक चेतना को बढ़ाने में लगे हुए हैं। यह भी पुण्य ही है। कितनी संस्थाएँ विभिन्न वर्गों के संगठन बनाती और बढ़ाती हैं ताकि लोगों में एकता और प्रेम बढ़े एवं उनके अधिकारों की रक्षा हो। देश की स्वाधीनता के लिए हजारों लाखों मनुष्यों ने जो कष्ट सहे, त्याग किये और प्राण दिये उसमें भी जनहित की ही पुण्य भावना प्रधान रूप से काम करती थी। वैज्ञानिक शोधों में लगे हुए तथा आध्यात्म, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों में सदुद्देश्य के साथ प्राण पण से जुटे हुए लोगों को पुण्यात्मा ही कहा जाएगा! क्योंकि उनका उद्देश्य परहित—परमार्थ है। परमार्थ को ही पुण्य का प्रधान चिन्ह माना गया है।

किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता सज्जनता एवं महानता की परख उसके पुण्य परमार्थ भरे कार्यों को देखकर की जाती है। की भी क्यों न जावे? जो अपने प्रयत्न पुरुषार्थ श्रम और त्याग से दूसरों को लाभ पहुँचाता है, अपनी जिन समय, श्रम, धन, बुद्धि आदि शक्तियों का उपयोग अपने लिए करके वह और भी अधिक सुख साधन सामग्री एकत्रित कर सकता था, उसे उसने दूसरों की भलाई के लिए निस्वार्थ भाव से त्याग किया तो उसकी इस उदारता की सराहना की ही जानी चाहिए। लोक में कीर्ति के साथ ऐसे लोगों को परलोक में भी सद्गति मिलनी ही चाहिए। शास्त्रों में पुण्य फल के बदले स्वर्ग आदि सुखों के प्राप्त होने की जो बात लिखी है उसमें प्रकट है कि पुण्य परमार्थ की महत्ता मनुष्यों की भाँति परमात्मा भी स्वीकार करते हैं। उसे धर्म मानते हैं और उनके संयोजक धर्मात्मा को सद्गति एवं सुख शान्ति प्रदान करते हैं।

इस पुण्य परमार्थ की कसौटी पर जब हम उन व्यक्तियों को कसते हैं जो कष्ट साध्य एकान्त साधनाओं में लगे हुए हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह लोग केवल अपनी ही भलाई के लिए प्रवृत्त हैं। इन्हें पुण्य परमार्थ से कोई सरोकार नहीं। इस दृष्टि में उन्हें स्वार्थी भी कहा जा सकता है और उन लोगों की अपेक्षा अनुदार एवं संकीर्ण माना जा सकता है जो अपने समय और श्रम का एक बड़ा भाग जनता की भलाई करते हुये पुण्य परमार्थ में लगाते हैं।

यह प्रश्न सचमुच ही विचारणीय है क्योंकि साधारण रीति से यह तपस्वी लोग स्वार्थी मालूम पड़ते हैं जो अपने ही लिये ऋद्धि-सिद्धि, स्वर्ग-मुक्ति प्राप्त करने में एक साधारण स्वार्थी की भाँति लगे हुए हैं। पर दूसरी ओर कई बातों पर विचार करने से उसके दूसरे पहलू भी सामने आते हैं जो असमञ्जस में डाल देते हैं। सोचने की बात है कि साँसारिक जीवन में रहते हुए अपनी कमाई से खूब आनन्द के दिन काटते हुए थोड़ा सा धन या समय देकर अन्य पुण्यात्माओं की तरह पुण्य और यश लिया जा सकता था जो इतना कष्ट साध्य मार्ग इन्होंने क्यों अपनाया? घर गृहस्थी को क्यों छोड़ा? एकान्त प्रदेशों में जहाँ जीवनोपयोगी वस्तुओं का घोर अभाव और अनेक प्रकार के कष्ट ही कष्ट हैं। वहाँ जाने का निश्चय क्यों किया? खून को जमा देने वाली ठंड और तीव्र ग्रीष्म एवं प्रचण्ड वर्षा में यह नंगे उघाड़े क्यों पड़े रहते हैं। इतनी कठोर तितिक्षा एवं कष्ट सहिष्णु बनने की मूर्खता इन्होंने क्यों की जबकि थोड़ा सा दान करने पर ही पुण्य फल मिल सकता था। थोड़ी सी पूजा उपासना घर गृहस्थी में रहते हुए भी कर लेने पर जब यह माना जाता है कि भगवान् थोड़े ही जप तप से पूजा-पाठ से प्रसन्न हो जाते हैं और स्वर्ग मुक्ति प्रदान कर देते हैं तो इतना कष्ट उठाने का इन्हें क्या प्रयोजन था? और लोगों की तरह यह भी क्यों नहीं दोनों हाथों में लड्डू रखे रहे? जिससे संसार का आनन्द भी मिलता रहता और पुण्य परलोक भी सधता रहता।

लगता है शायद यह लोग कम पढ़े या अल्पबुद्धि होंगे। किसी ने बहका कर इन्हें इस मार्ग पर लगा दिया होगा पर यह बात भी सही नहीं है। इन तपस्वियों में कितने ही अत्यन्त उच्च कोटि के विद्वान एवं भूतकाल के प्रमुख चतुर, क्रियाकुशल, सफल, प्रभावशाली, प्रतिष्ठित, धनी, सत्ता सम्पन्न एवं ऐसे लोग हैं जिन्हें कोई बहका नहीं सकता। जिनके बहकाने पर हजारों लोग इधर से उधर होते थे, उंगलियों के इशारे पर नाचते थे। उन्हें कोई यों ही बहका देगा और वह भी ऐसे कष्ट साध्य जीवन यापन में शेष सारे जीवन प्रवृत्त रहने के लिए बहका देगा यह बात भी समझ में आने योग्य नहीं है।

फिर यह गुत्थी ज्यों की त्यों रह जाती है कि कुँआ बनवाने, तालाब खुदवाने, ब्रह्मभोज कराने, विद्यालय पुस्तकालय श्रमदान या संगठनात्मक एवं प्रचारात्मक सार्वजनिक कार्य करने की अपेक्षा इन सुविज्ञ और सुसंस्कृत व्यक्तियों ने यह तपश्चर्या का मार्ग क्यों चुना? उनने इन्द्रियों के सारे विषय त्याग दिये, धन सम्पत्ति को तिनके की तरह ठोकर मार दी, शरीर की सामान्य सुविधाओं की भी परवा न करी शीत, उष्णता, अन्धकार की विषमता, वस्त्र और भोजन का अभाव मकान में रहने की अपेक्षा वृक्षों की छाया या गुफाओं में रहने का दुस्साहस किया, जन शून्यता का, एकाकीपन में रहने का दुस्साहस किया, जन शून्यता का एकाकीपन कितना अखरता है इसे मानव स्वभाव का जानकार कोई भी व्यक्ति भली प्रकार समझ सकता है। बाल बच्चों का, मान प्रतिष्ठा का, धन ऐश्वर्य का, इन्द्रिय सुखों का मोह त्याग करना, साँप, बिच्छू, सिंह व्याघ्र आदि के बाहुल्य से जीवन को हर घड़ी संकट में डाले हुए, रोगी हो जाने पर जहाँ न कोई चिकित्सा की व्यवस्था है न परिचर्या की, ऐसे स्थान पर पड़े हुए लोगों का त्याग भी साधारण नहीं है। इतने विचार शील और इतने त्यागी व्यक्ति यदि सार्वजनिक सेवा से पुण्य परमार्थ अर्जन करने में लगे तो वे उतने त्याग के कारण बहुत यश और पुण्य कम सकते हैं साथ ही इतने कष्ट साध्य जीवनयापन की कठिनाई से बच सकते हैं। फिर क्यों नहीं यह लोग समाज सेवा में लगते? अपने जीवन को एक तरह से बरबाद क्यों कर रहे हैं? यह प्रश्न सहज ही हर तर्कशील मस्तिष्क में उठता है और उसका समाधान चाहता है।

इन तपस्वियों की तपश्चर्या को यदि साँसारिक क्षेत्र में प्रवृत्ति मार्गी सब विचार शील लोग मूर्खता या स्वार्थपरता मानते तो भी सन्तोष होता कि भ्रान्त यह तपस्वी ही हैं, इनका विचारशील लोग तो समर्थन नहीं करते। पर बात ऐसी भी नहीं है। संसार के श्रेष्ठ मस्तिष्क इन त्यागी तपस्वियों की प्रशंसा ही नहीं करते, उनकी आवश्यकता और उपयोगिता को भी जानते हैं। इतना ही नहीं वे उनसे प्रकाश और बल मार्ग दर्शन और आशीर्वाद प्राप्त करने को भी आतुर रहते हैं। ऐसी स्थिति में तपस्वियों की महत्ता का रहस्य साधारण बुद्धि के लोगों के लिए और भी गूढ़ होता जाता है।

महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी की विद्वत्ता, प्रतिभा और दूरदर्शिता को सारा देश जानता है। वे उच्चकोटि के वकील थे और भारत की राजनीति में उनने जो महत्वपूर्ण भाग लिया, स्वतन्त्रता संग्राम के संचालन में उनने जिस कौशल का परिचय दिया, उसका परिचय सर्व साधारण को नहीं वरन् उस समय की गोपनीय स्थितियों के जानकार उच्चकोटि के नेताओं को ही है। मालवीयजी ने हिन्दू संस्कृति की कितनी सेवा की अपना सारा ही जीवन सेवा कार्यों में लगाया हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव रखी तब उसका शिलान्यास कराने के लिए एक ऐसे ही तपस्वी की आवश्यकता पड़ी जो उतना ही महान हो, जितना विश्व विद्यालय की स्थापना का उद्देश्य महान् था। मालवीयजी ने इसके लिए तलाश की-आध्यात्म क्षेत्र के ऊँचे क्षेत्रों से उनका निजी परिचय था। उन्होंने वर्तमान काल का कोई सर्वोच्च ऋषि इस कार्य के लिए तलाश किया। “जिन खोजा तिन पाइयाँ” की उक्ति के अनुसार बहुत खोज के बाद उन्हें वह तपस्वी मिल ही गया। और किसी प्रकार बहुत अनुनय विनय के बाद रजामंद करके उस अवधूत योगी को वे अत्यन्त अवरुद्ध स्थान से खोजकर बनारस लाये और विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए भूमि पर सर्व प्रथम गायत्री का एक महापुरश्चरण करा के पवित्र किया, तत्पश्चात् उस अवधूत योगी के हाथों वास्तविक शिलान्यास कराया। पीछे अन्य रस्में और लोग करते रहे, पर उन अवधूत का आशीर्वाद मिलने पर ही मालवीयजी ने अपने प्रयत्न को सफल और भाग्य को धन्य माना।

काशी विश्वविद्यालय को स्थापित हुए बहुत काल बीत गया बात पुरानी पड़ गयी। जिन लोगों ने उन महात्मा के दर्शन किये थे उनमें से अधिकाँश दिव्यंगत हो गये। जनता वर्तमान की बातों को ध्यान रखती है और भूतकाल को, यदि वह विशेष प्रयत्न पूर्वक लिपिबद्ध या स्मारक रूप में आबद्ध न किया जाए तो उसे भूल जाती है। उस योगी अवधूत की उन दिनों भारतवर्ष के घर-घर चर्चा थी। मालवीयजी की खोज में सभी लोग बहुत प्रभावित थे और यह गर्व करते थे कि भारत भूमि अभी ऋषियों से रहित नहीं हुई है। पर आज तो वह बात एक अतीत की धुँधली रेखा की तरह विस्मृति के गर्त में चली गई है। उसका स्मरण संभवतः कुछ गिने चुने लोगों को ही होगा।

मालवीयजी जिस योगी को विश्वविद्यालय का शिलान्यास करने लाये थे वह एक नग्न अवधूत थे। शरीर पर एक चिन्दी वस्त्र भी धारण नहीं करते थे और बहुत लम्बे समय से मौन थे। कहते हैं कि चिरकाल पूर्व उनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ उपनिषदादि समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया, दंडधारी संन्यासी बने और उसके उपरान्त उन्होंने विहंग अवधूत अवस्था धारण कर ली, सारे वस्त्र त्याग दिये, मौन धारण कर लिया, भोजन के लिए प्रयत्न छोड़ दिया, एक दिन किसी गृहस्थ ने भिक्षा माँगने पर उनकी हथेली पर गरम दाल दी जिससे उन्हें कष्ट हुआ और उस दिन से माँगने के लिए हाथ पसारना छोड़ कर मुट्ठी बाँध ली। वह मुट्ठी फिर उन्होंने कभी नहीं खोली। उन्होंने अपनी उम्र तपस्या हिमालय की अत्यंत ऊँची हिमाच्छादित चोटियों पर खुले में रहकर उस स्थान में की जहाँ साधारण मनुष्यों का पहुँच सकना और जीवित रह सकना कठिन है।

उनकी आध्यात्मिक विशेषताओं को, तप से उत्पन्न आत्म बल को जो लोग जानते थे उनके दर्शनों के लिए लालायित रहते थे। पर उन दिनों वैसा योग किसी-किसी को कभी ही मिलता था। महामना मालवीयजी, गोस्वामी गणेशरनजी, बाबा काली कमली वाले आदि उच्च कोटि के धर्मसेवी उन्हें अपने गुरु रूप में मानते थे। उन्होंने इन महापुरुषों के आशीर्वाद को उपलब्ध करके ही वह बड़े-बड़े कार्य किए जो वे अपनी व्यक्तिगत क्षमता से शायद ही कर पाते। सर्व साधारण ने उस योगी के दर्शन विश्वविद्यालय की स्थापना के समय एक बार ही सर्वोच्च मंच पर किया था। तब से किसे पता है कि वे कहाँ गये? जीवित हैं या मर गये?

पर वे अभी जीवित हैं, मरे नहीं हैं। अज्ञात स्थान पर हैं तो भी ज्ञानी व्यक्तियों की तरह अपनी निज की तपश्चर्या ही नहीं कर रहे वरन् कई लोक सेवी व्यक्तियों को प्रेरणा देकर उतना लोक हित कर रहे हैं जो शायद अपने अकेले शरीर से वे कदापि न कर पाते।

गंगा के उद्गम स्थान के समीप यह महात्मा अभी भी रहते हैं। लम्बी अवधि से प्राण को धारण किए-किए अब शरीर भी जीर्ण हो गया है फिर भी आँखों में बड़ा तेज है, अंधेरे में भी वे चमकती हैं। शीत सहते-सहते चमड़ी स्याह काली, बहुत कड़ी और मोटी हो गई है। इन दिनों एक आठ फुट लम्बी, आठ फुट चौड़ी लकड़ी से बनी जिस कुटी में वे रहते हैं वह जाड़े के दिनों में बर्फ से ढक जाती है। कुटी में ठण्डी हवा प्रवेश न करने पावे इसलिए भीषण हिमपात आरम्भ होने पर कार्तिक से कुटी के सब छेद योग से बन्द कर दिए जाते हैं। बैसाख में जब बर्फ गलती है तभी वह स्थिति आती है कि कुटी से बाहर निकला और भली प्रकार घूमा फिरा जा सके। किसी आवश्यकता के समय लोहे के बेलने से बर्फ काट कर कुटी से बाहर निकल सकना जाड़ों में भी सम्भव तो हो सकता है पर ऐसा किया विशेष आवश्यकता के समय ही जाता है। साधारणतः शीत के छह महीने में कुटिया बन्द रहती है और उसी में उनकी जीवन-यात्रा चलती रहती है।

हमारे कुलपति परम पूज्य आचार्यजी के लिए कोई यह नहीं कह सकता कि उनमें सेवा भावना नहीं है, या सेवा के महत्व को नहीं जानते। उनका सारा जीवन ही सेवा और परमार्थ से ओत-प्रोत है। पर वे भी इन्हीं महात्माओं से प्रकाश प्राप्त करते हैं, समय समय पर उनके आदेशों को ग्रहण करते और उसी के आधार पर चलते हैं। यों हर कोई उनका प्रकाश प्राप्त नहीं कर सकता उसके लिए समुचित पात्रता भी कम है। आचार्य जी सदा यही कहते रहते हैं कि मैं एक तुच्छ व्यक्ति हूँ। मेरी सामर्थ्य तुच्छ है, मुझे जो प्रकाश एवं बल मिला है उसका स्रोत कोई दूसरा ही है। ‘कोई दूसरा’ कहने से उनका तात्पर्य ऐसे ही आत्मधन के धनी पुरुषों का होता है। इन दिनों भी आचार्यजी उनके प्रत्यक्ष सान्निध्य के लिए दौड़े गये हैं।

जिन एक महापुरुष का जिक्र उपरोक्त पंक्तियों में किया है, वे अकेले ही नहीं है, वरन् भारत भूमि में ऐसे और भी अनेक महापुरुष हैं उन्होंने तपस्या को ही सार्वजनिक शिक्षा माना है, यद्यपि यह बात लगती बड़ी अटपटी है कि कोई व्यक्ति जन-साधारण से दूर रहकर भी क्या कोई पुण्य परमार्थ कर सकता है?

भले ही हमें आश्चर्य जनक लगे, भले ही हमारे समझ में न आवे पर यह बात भी है सत्य ही कि मनुष्य एकान्त तपश्चर्या द्वारा आत्म कल्याण ही नहीं, भारी जन हित भी पुण्य परमार्थ भी कर सकता है। कैसे? इस प्रश्न पर अगले अंक में चर्चा करेंगे।

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