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Magazine - Year 1965 - Version 2

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स्वास्थ्य के लिये स्नान और जल की उपयोगिता

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मनुष्य जीवन के निर्माणकारी तत्वों में जल का प्रमुख स्थान है। शारीरिक स्वास्थ्य, बाह्य और भीतरी अंगों की सफाई, शारीरिक शुद्धि और पवित्रता के लिये जल का उपयोग आदि-काल से किया जाता रहा है। कटे हुये स्थानों में गीले कपड़े की पट्टी बाँधने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है।

इंग्लैंड में सर जॉनसन क्लेयर ने सत्रहवीं शताब्दी में स्नान को स्वास्थ्य और दीर्घायु जीवन का महत्वपूर्ण साधन बताया था। “फेब्रिकुगम मेगनम” के विद्वान लेखक जानहेन काक ने चेचक और ज्वर में ठंडे पानी पीने को बहुत लाभकारी बताया है। मुसलिम देशों में गैलन के महत्वपूर्ण सिद्धान्त को आज भी मानते हैं और अनेकों बीमारियों में शीतल जल प्रयोग करने को अत्यन्त लाभदायक मानते हैं।

शरीर में खून की सफाई, मलों की सफाई और काँति प्रदान करने वाली वस्तु जल है। जल जब आँतों में पहुँचता है तो इसका एक अंश पाचन क्रिया में भाग लेता है। आहार को रसयुक्त बनाकर पाचन क्रिया में मदद देता है और मल को गीला बनाकर मल-द्वार की ओर धकेल देता है।

इस बीच जल-चूषक कोशिकायें अपना कार्य प्रारम्भ करती हैं और जल से ऑक्सीजन प्राप्त कर सारे शरीर को कान्तिवान, रक्त को शुद्ध और शिराओं को प्रवाहमान बनाती हैं। इसलिये संतुलित आहार में आधा भाग पेट आहार और चौथाई भाग जल से भरने की उपयोगिता बताई जाती है। आहार के बाद एक-एक घंटे में कई बार थोड़ा-थोड़ा पानी पीना स्वास्थ्य के लिये बड़ा हितकर होता है। प्रातःकाल उषापान, अर्थात् चारपाई से उठते ही एक गिलास शीतल जल का प्रयोग स्वास्थ्य के लिये अमृत तुल्य माना जाता है। इससे आँखों की ज्योति बढ़ती है और मस्तिष्क की ताजगी दिनभर बनी रहती है।

ठंडा पानी जब आँतों में पहुँचता है या जब किसी विशेष स्थान में शीतल जल या बर्फ का प्रयोग करते हैं तो दूसरे अंगों का रक्त उस स्थान की ओर खिंच जाता है, जिससे वह स्थान मजबूत बनता है और उस स्थान का विष या रोग वर्द्धक शक्ति समाप्त हो जाती है। आमाशय की यह क्रिया आँतों को मजबूत करती है और पाचन-क्रिया को सशक्त बनाती है। उपवास काल में जल के अधिकाधिक प्रयोग से संचित मल गीला होकर बाहर निकल जाता है।

जल से स्वास्थ्य बनाये रखने के साथ-साथ उसका प्रयोग अनेकों बीमारियाँ दूर करने में भी होता हैं। फिलाडेल्फिया के प्रसिद्ध चिकित्सक बेंजामिन रश ने ठंडे पानी के प्रयोग से पीले ज्वर, गठिया, चेचक तथा शीतला माता का सफल इलाज किया है। बर्फ से भरी हुई थैली का प्रयोग रश के सिद्धान्त के अनुसार ही सन् 1794 में प्रचलित हुआ, जो अब डाक्टरी चिकित्सा का एक अंग माना जाता है। गीली पट्टी बनाकर घाव या चोट में रखना भी ऐसी ही पद्धति है। इससे उस स्थान में रक्त की रोग-निरोधक ऊष्मा बढ़ती है, जिससे तात्कालिक लाभ मिलता हैं। इन प्रयोगों से जल के महत्व पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

शरीर में जल का उपयोग मुख्यतया दो प्रकार से होता है। आहार की तरह जल पीने से और स्नान के द्वारा शरीर जल के सूक्ष्म और स्थूल प्रभाव ग्रहण करता है। यह दोनों ही साधन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। स्वास्थ्य के लिये इन दोनों का विकास आवश्यक है।

स्नान स्वास्थ्य से सम्बन्ध रखने वाली एक प्रमुख क्रिया है। सम्भवतः इसीलिये हमारे यहाँ इसे एक धार्मिक साँस्कृतिक और सामाजिक कर्तव्य माना जाता है और जो नियमित रूप से स्नान नहीं करता उसे स्पर्श करना भी बुरा माना जाता है। भले ही इस अवहेलना का कोई वैज्ञानिक आधार न हो, किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई भी इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया से वंचित न रहे, इस सिद्धाँत का प्रचलन कोई बुरा नहीं है। भारत उष्ण प्रकृति का देश है, इसलिये यहाँ प्रत्येक ऋतु में स्नान करना उपयोगी तो है ही आवश्यकता भी है।

अठारहवीं शताब्दी के उत्तरकाल में दो अंग्रेज चिकित्सक क्यूरी और जैक्सन ने भी यह साबित किया कि शीतल जल से स्नान करना स्वास्थ्य के लिये बड़ा लाभदायक होता है। उन्होंने लिखा है, “ठंडे पानी से स्नान करने से शरीर को विश्राम मिलता है और स्फूर्ति बढ़ती है। इस क्रिया से शरीर को शक्ति और सजीवता प्राप्त होती है।” इससे भी पूर्व सन् 1780 के लगभग डॉ0 क्राफोर्ड ने ठंडे पानी से स्नान के मनोवैज्ञानिक प्रभाव तथा प्राण वायु सम्बन्धी महत्व पर प्रकाश डाला था। शीतल जल से स्नान करने के पश्चात रक्तवाहिनी नाड़ियों में एक प्रकार की गति उत्पन्न होती है और रक्त के रंग में परिवर्तन होने लगता है।

सन् 1801 ई॰ में गर्म पानी के प्रयोग पर पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी के मेडिकल फैकल्टी (स्वास्थ्य-संगठन) के ट्रस्टियों के समक्ष थेसिम के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसमें विभिन्न प्रकार के प्रयोग सम्मिलित थे और कम से कम व अधिक से अधिक फारेनहाइट तापमान पर नाड़ियों की गति के आँकड़े प्रस्तुत किये गये थे और यह निश्चय किया गया था कि जब जल का तापमान धीरे-धीरे बढ़ाकर 110 डिग्री फारेनहाइट तक कर दिया जाता है, तो नाड़ी की गति 83 से लेकर 153 तक हो जाती है इससे रक्त संचालन में तीव्रता आने से मस्तिष्क में दर्द होने लगता है।

शीतल जल में स्नान करने से शरीर में हल्कापन आता है, रोमकूप साफ हो जाते हैं, शरीर की गन्दगी मिट जाती है और दिनभर काम करने से उत्पन्न थकान व रात्रि में सोने से उत्पन्न शिथिलता समाप्त हो जाती है। शरीर में ताजगी तथा नव-जीवन का संचार होने लगता है। प्रातःकाल का स्नान इस दृष्टि से अधिक उपयोगी माना जाता है। सायंकालीन स्नान से शरीर का पसीना, चिपचिपापन और सुस्ती दूर हो जाती है। इससे थकावट दूर होती है और भूख खुलकर लगती है। रात्रि में पूरी नींद लेने के लिये सायंकालीन स्नान लाभदायक होता है।

स्नान से शरीर की माँसपेशियों की शिथिलता दूर होती हैं और सारे शरीर में “विशिवा” नामक चैतन्य विद्युत का प्रवाह दौड़ जाता है, जिससे शरीर को स्फूर्ति मिलती है। रोम कूप खुल जाते हैं, जिससे रक्ताभिषरण में मदद मिलती है। स्नान से केवल त्वचा और बाहरी अंगों की ही सफाई होती हो, केवल त्वचा और बाहरी अंगों की शुद्धि होती हो, इतना ही नहीं, वरन् आन्तरिक चेतना भी प्रादुर्भूत होती है। इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है और पेट सम्बन्धी शिकायतें दूर होती हैं।

प्रातःकाल स्नान करने के बाद सूर्य की बाल-किरणों से शरीर को सेंकने से प्राकृतिक विटामिन प्राप्त होते हैं और शरीर में स्निग्धता आती है और त्वचा की कोमलता बढ़ती है। इसलिये स्नान के बाद कुछ देर तक शरीर को वस्त्र विहीन रखना चाहिये, ताकि वायु के द्वारा जो जल की आर्द्रता शरीर में शेष रह गई है, वह समाप्त हो जाय, अन्यथा, दाद, खुजली और चकत्ते पड़ने की शिकायतें उठ खड़ी होती हैं।

स्नान के लिये तालाब का जल उतना अच्छा नहीं होता। तालाबों में गन्दगी सड़ती रहने से पानी खराब हो जाता है और छोटे-छोटे कीड़े पड़ जाते हैं। कुएं का जल या बहता हुआ जल स्नान के लिये अधिक उपयुक्त होता है। बहते हुये जल में चूँकि सल्फेट जैसे खनिज तत्व बहुतायत से मिले होते हैं, इसलिए उसका स्वास्थ्य पर हितकर प्रभाव पड़ता है। कुएं का जल तालाब की अपेक्षा अधिक शीतल रहता हैं, इससे कुएं के जल में अधिक शक्ति व स्फूर्ति होती है। इससे चमड़ी, दिमाग तथा आँखों को तरावट मिलती है। गर्म जल से स्नान करना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है। इससे शरीर में प्रतिकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और शरीर बल, नेत्र-ज्योति तथा मानसिक शक्ति घटती है।

स्नान करने का वैज्ञानिक तरीका यह है कि पहले खूब रगड़कर शुद्ध सरसों के तेल की मालिश करें, फिर थोड़ी देर विश्राम कर लें ताकि मालिश से उत्पन्न खून की गर्मी कम हो जाय। अब आप अपने पैरों से ऊपर हृदय की ओर के अंगों को खूब रगड़कर धोना प्रारम्भ करें। शरीर को खूब मल-मलकर धोना चाहिये और पानी की कमी का संकोच न करना चाहिए। साबुन का उपयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से उतना उपयोगी नहीं माना जाता। यह आवश्यकता मुल्तानी मिट्टी से पूरी कर सकते हैं, मिट्टी में विष खींचने की अपूर्व शक्ति होती है, पर साबुन में कुछ रासायनिक तत्त्व ऐसे होते हैं, जो शरीर पर बुरा प्रभाव डालते हैं। कास्टिक की अधिकता वाले साबुनों का प्रयोग तो बिलकुल भी नहीं करना चाहिये।

स्नान करने के उपरान्त किसी खद्दर या रोंयेदार मोटे तौलिये से शरीर के अंग-प्रत्यंग को इतना रगड़कर सुखाना चाहिये कि रक्त का उभार स्पष्ट दिखाई देने लगे। इससे शरीर में गर्मी दौड़ जाती है और थकावट दूर होकर शरीर में हलकापन आ जाता है।

तैरकर स्नान करने से स्वास्थ्य को दोहरा लाभ होता है। तैरना एक प्रकार का रोचक व्यायाम है इससे शरीर के सभी अंग-प्रत्यंगों का संचालन होता है और श्वास-प्रश्वास की क्रिया में गति उत्पन्न होती है। तैरने से छाती चौड़ी होती है और फेफड़े मजबूत होते है। तैरने से मनुष्य को दीर्घ जीवन प्राप्त होता है। मारकर्ड (दक्षिणी अफ्रीका) की दो जुड़वाँ बहनों ने जिनकी उम्र 90 से अधिक हो चुकी है, अपने जन्म दिवस पर उपस्थित अतिथियों को अपने दीर्घ जीवन के रहस्य पर प्रकाश डालते हुए बताया कि उन्होंने अपनी दिनचर्या में नियमित रूप से तैरने को भी प्रमुख स्थान दिया है। बावेरिया (बोन) के श्रम मन्त्री भी बाल्टर स्टाय ने अपने स्टाफ के लोगों को स्वास्थ्य सुधारने के लिये यह आदेश दिया कि वे काम के घंटों के बीच ही सप्ताह में एक दिन अनिवार्य रूप से तैर कर मनोरंजन प्राप्त किया करें।

जल के नीचे फव्वारों में बैठकर स्नान करना भी स्वास्थ्य के लिये अच्छा होता है। वर्षा में दो तीन जल-वृष्टि के बाद बरसते पानी से स्नान करना भी अच्छा होता है। छोटे बालकों को छोटे टब में स्वच्छ जल भर कर उछल-कूद करते हुए स्नान करने देना चाहिये। इससे मानसिक प्रसन्नता भी साथ-साथ बढ़ती है।

जल का स्वास्थ्य से बड़ा गहरा सम्बन्ध है। यों भी कह सकते हैं कि जल ही जीवन है। इसकी प्रामाणिकता कुछ दिन स्नान न करने या कम जल पीने से ही सिद्ध हो जाती है। अतः हमें अपने आहार के साथ जल भी पर्याप्त मात्रा में लेने का स्वभाव बनाना चाहिए। स्नान के द्वारा बाह्य और भीतरी अंगों की सफाई, शक्ति और सजीवता भी बनाये रखना चाहिये।

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