Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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भावी पीढ़ी का निर्माण यों कीजिए
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‘भावी पीढ़ी का निर्माण करिये’ का अर्थ है, बच्चों को अच्छा बनाइये, क्योंकि बच्चे ही कुछ समय में सयाने होकर आप की जगह समाज और राष्ट्र का सारा भार अपने ऊपर लेंगे। लेंगे ही क्या, वह तो स्वभावतः उन पर आ ही जायेगा। किन्तु एक सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना से स्वभावतः आने वाला भार भी जब दायित्वपूर्ण ढंग से संभाला जाता है, तो उसका वहन सरलता और सुन्दरता से किया जा सकता है और आने वाला भार जब अनजाने ही ऊपर आ पड़ता है तो उसको सँभालने की ठीक ठीक तैयारी न होने से वह एक दुर्वह बोझ ही बन जाता है, जिसे वहन तो करना ही पड़ता है, किन्तु उसमें वह वाँछित सुख सुन्दरता नहीं रहती, जो होनी चाहिये।
आज हम अपने को ही देख लें कि हम में से कितने ऐसे हैं, जो समाज में बर्तते हुए भी अपना दृष्टिकोण सामाजिक रखते हैं। हम जब भी कोई विचार करते हैं, केवल अपने को आगे रखकर सोचते हैं। जो कुछ करते हैं, अपने लिये और जो कुछ चाहते हैं, अपने लिए ही। इस निजत्व की प्रधानता के कारण ही आज हम में सामाजिकता का नितान्त अभाव हो गया है। हर आदमी अपने चारों ओर स्वार्थ का कुँडल मारकर सर्प की भाँति स्थित हो गया है, और इसी संकीर्णता के कारण पारस्परिकता का सारा भाव उठता चला जा रहा है।
जिस समाज में पारस्परिकता का अभाव हो जाता है, वह ऊपर से एक जैसा दीखता हुआ भी अन्दर से विश्रृंखलित होता है और विशृंखल समाज अपनी अथवा अपने राष्ट्र की रक्षा में असमर्थ रहने के कारण सदा सशंकित रहा करता है। उसका प्रत्येक सदस्य अपने को हर प्रकार से असुरक्षित एवं असहाय अनुभव किया करता है।
समाज को सुरक्षित बनाने के लिए वर्तमान पीढ़ी को अपने तुरन्त बाद अपने वाली पीढ़ी को एक सुनिश्चित सामाजिक चेतना के साथ आगे बढ़ाना चाहिए-अर्थात् आने बच्चों का निर्माण इस प्रकार करना चाहिए कि वे अपने को अपने समाज का एक महत्वपूर्ण अंग समझें, वे जो कुछ सोचें, सामाजिक दृष्टिकोण से और जो कुछ करें समाज को ध्यान में रखते हुए ही करें।
समाज में बुराइयों का जन्म ही तब होता है, जब उसके सदस्यों में सामाजिक भावना का अभाव हो जाता है। हर व्यक्ति निरंकुश रूप से मनमाने ढंग से बर्ताव करने लगता है। उसको अपने बर्ताव से दूसरे को होने वाले कष्टों का ध्यान ही नहीं रहता, जिससे कदम-कदम पर संघर्ष होने लगता है और जीवन सुखमय बनने के स्थान पर दुःखमय बन जाता है।
आज भारतीय समाज दिन-दिन दुःखमय बनता चला जा रहा है। उन्नति और प्रगति के प्रचुर साधन होने पर भी इसकी उन्नति एवं प्रगति के सारे मार्ग अवरुद्ध-से दिखाई देते हैं। दिन-दिन इसमें बुराइयों की वृद्धि होने से संसार में इसकी साख घटती जा रही है। एक दिन संसार में सर्वोपरि कहा जाने वाला भारतीय समाज आज निम्नतर हो गया है। इसका क्या कारण है कि इसके सारे आदर्श, सारी संस्कृति और सारे साधन मौजूद हैं, फिर भी यह दिन-दिन गिरता जा रहा है? इसका एक मात्र कारण है इसकी सामाजिक भावना का ह्रास हो जाना।
लोग धर्म का अनुगमन करते हैं, संस्कृति एवं सभ्यता की बात करते हैं, किन्तु अलग-अलग केवल अपने तक सीमित होकर। बड़े-बड़े व्यापारी, बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ, प्रकाण्ड विद्वान और महान से महान व्यक्तित्व होने पर भी हमारा भारतीय समाज समग्र रूप से फिर भी कुछ नहीं दीखता। संसार में इसकी गणना पिछड़े हुये समाजों में ही की जाती है।
अस्तु, समाज को प्रगतिशील बनाने के लिए आगामी पीढ़ी का नया निर्माण करना बहुत आवश्यक है। समाज में सुधार लाने के लिए निरन्तर प्रयत्न हो रहे हैं, किन्तु उनका कोई महत्वपूर्ण प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। इसका कारण यह है कि जो पीढ़ी आज समाज को चला रही है, वह केवल अपने सुधार में लगी हुई है। जब कि आवश्यक यह है कि अपना सुधार करने के साथ-साथ बच्चों पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिये।
प्रौढ़ों की अपेक्षा बच्चों का निर्माण अधिक सरल होता है। उनका मानसिक धरातल इतना कोमल और निर्विकार कार होता है कि उसमें बोये हुए बीज आसानी से फल फूल सकते हैं। इसलिये सामाजिक कल्याण के लिए बच्चों का एक निश्चित रूप से निर्माण किया जाना चाहिये।
बच्चों के निर्माण के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उनके लिए कोई निर्माण करने वाली संस्थायें खोली जायें, या उन्हें समय-समय पर एक जगह इकट्ठा करके किसी सामान की तरह उनका निर्माण किया जाये। बच्चों के निर्माण की जो संस्थायें हैं, उनका लाभ तो उठाया ही जाना चाहिए, किन्तु उन पर सर्वथा निर्भर नहीं रहना चाहिये। बच्चों का सब से स्थायी और प्रभावपूर्ण-निर्माण घर पर अभिभावकों के द्वारा ही हो सकता है।
बच्चों को प्रारम्भ से ही एक ऐसे वातावरण में रखना चाहिए, जिससे उनमें उदार भावनाओं का विकास हो। उनको भाई-बहनों से समता का व्यवहार सिखाया जाना चाहिये। जिन घरों में अनेक बच्चे होते हैं, वहाँ बहुधा देखा जाता है कि कोई एक बच्चा माता-पिता का अधिक प्यारा होता हैं। उसको अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक विशेषता दी जाती है। यह व्यवहार उचित नहीं। इससे अन्य बच्चों में असमानता का भाव जागता है और वे आपस में एक दूसरे से असमानतापूर्ण व्यवहार करना सीख जाते है।
बहुत बार छोटे बच्चों को बड़े बच्चों का इतना मातहत बना दिया जाता है कि बड़ा बच्चा दूसरे छोटे भाई-बहनों को बिल्कुल अपना सेवक समझ लेता है और अपना हर काम उनमें लेने का प्रयत्न करने लगता है। इससे बड़े बच्चे में अनुचित अधिकार और परावलम्बन की भावना पनपने लगती हैं और दूसरी ओर छोटे बच्चे में एक हीन भावना घर करने लगती है।
अनेकों बार ऐसा होता हैं कि बच्चों की शिकायत सुनते समय अभिभावक किसी बच्चे का अनुचित पक्षपात कर बैठते हैं जिससे एक बच्चा ढीठ और दूसरा कायर हो जाता है। यदि इसी प्रकार के पक्षपात की पुनरावृत्ति बहुत बार होती हैं तो बच्चों में न्याय के प्रति अश्रद्धा का भाव पैदा हो जाता है।
अस्तु अनेक बच्चों के परिवार में बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिये जिससे उनमें समता, सत्यता, न्याय और पारस्परिकता का भाव जागे।
बच्चों को धीरे-धीरे क्रम से ऐसे काम लेने और सौंपने चाहिये, जिससे वे करते समय अपने अन्दर एक उत्तरदायित्व अनुभव करें। इन कामों में से एक काम घर का हिसाब रखना भी हो सकता है। किन्हीं मित्रों अथवा सम्बन्धियों को प्रीतिभोज अथवा खाने के समय उन्हें भोजन परोसने में मदद करना आदि। अधिकतर लोग करते यह हैं इस तरह के उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों और अवसरों पर बच्चों को अधिक से अधिक दूर रखते हैं, जब कि उत्तरदायी बनाने के लिये उन्हें यथा सम्भव इन कामों में शामिल करना चाहिए।
उनको रहन-सहन, ओढ़ने-पहनने और उठने-बैठने का एक सलीका सिखाना चाहिए, जिससे उनमें अस्त-व्यस्तता अथवा लापरवाही का विकार पैदा न होने पावे। शिष्टाचार और मिलनसारियत सिखाने के लिये सम्बन्धियों और मित्रों के यहाँ जाते समय यथा सम्भव उन्हें साथ ले जाना चाहिये। इससे उनमें परिचय की जिज्ञासा का जन्म होगा और उनके परिचय का क्षेत्र बढ़ेगा।
यह ऐसी कुछ बाते हैं, जिनका सम्बन्ध घर के लोगों के बीच व्यवहार से है। बच्चों को बाहर व्यवहार में आने वाली कुछ छोटी-मोटी बातों का भी ध्यान रखना चाहियें। जैसे वह अपने साथियों के साथ कैसा व्यवहार करता है? बाहर अपने से बड़ी आयु वालों के साथ कैसे पेश आता है? वह कहाँ किन-किन बातों में दूसरों से दबता है और कहाँ किन-किन बातों में दूसरों को दबाने का प्रयत्न करता है? यदि बच्चों सम्बन्धी ऐसी बातों का पता लगे तो उनमें तत्काल आवश्यक सुधार किया जाना चाहिए। उसके बाह्य व्यवहारों में एक सन्तुलन पैदा किया जाना चाहिए।
बच्चों में सामाजिकता और पारस्परिक स्नेह भाव उत्पन्न करने के लिए कभी-कभी पर्व आदिकों पर उसे अवसर दिया जाना चाहिए कि वह अपने साथियों को अपने घर चाय पानी करने या भोजन करने के लिए आमंत्रित करे। इससे उनमें आपस में स्नेह और विश्वास बढ़ेगा और अभिभावकों को उसके साथियों को पहचानने का अवसर मिलेगा।
अधिकतर अभिभावक बच्चों पर चारों ओर से एक घेरा डाले रहते हैं, जिससे उनका व्यक्तित्व दबकर रह जाता है। उनकी अच्छी बुरी संगत पर ध्यान रखते हुये, उन्हें अपने अनुरूप समाज में घुलने-मिलने और एक-दूसरे को जानने समझने में बाधा न दी जानी चाहिये।
यह सब बातें अपने बच्चों के साथ बर्ताव में लाने की हैं। कुछ ऐसी आवश्यक बातें भी हैं, जो दूसरों के बच्चों के साथ व्यवहार में लाई जानी चाहिए। उनमें से सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात यह है कि हर बच्चे को बिल्कुल अपने बच्चे के समान समझना और उससे प्यार करना चाहिए। कोई भी बच्चा किसी अभिभावक के सामने आकर यह न अनुभव करे कि वह किसी गैर के सामने खड़ा है उसे ऐसा अनुभव होना चाहिए कि वह अपने माता-पिता अथवा सगे-सम्बन्धी के सामने हैं। किसी भी बच्चे को कोई गलती या बुरा काम करते देखें, तो उसे ठीक उसी प्रकार सुधारने की कोशिश की जानी चाहिए, जैसे अपने बच्चे को।
अधिकतर देखने में आता है कि आपस में दो मित्र एक दूसरे के अभिभावकों से या तो डरते हैं, या अजहद शरमाते हैं। यदि दो मित्र आपस में बैठे हैं और उनमें से किसी के अभिभावक आ जाते हैं तो वे दोनों एकदम सिटपिटा जाते हैं। एक दूसरे के घरों पर बैठे होने पर अभिभावकों के आने का समय होने पर खिसक चलते हैं। इसका मूल कारण यह है कि अभिभावक अपने बच्चों के मित्रों से परिचित नहीं होते और होते भी हैं तो उनसे ठीक अपने बच्चे जैसा व्यवहार नहीं करते।
इस प्रकार क्या अपना और क्या पराया, हर समय हर बच्चे का नव-निर्माण ध्यान में रखते हुये हर समय व्यवहार किया जाना चाहिये, जिससे कि बच्चों की आने वाली नागरिक पीढ़ी कुछ सुधर कर आ सके।