Magazine - Year 1966 - Version 2
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Language: HINDI
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भारत संसार का भावनात्मक नेतृत्व करे
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संसार का प्राचीनतम देश भारत जो कि कभी जगद्गुरु कहा जाता था आज जिस दुर्दशा में पहुँचता जा रहा है उसे देखकर किसी भी देशभक्त का हृदय भर उठता है। यह वही तो आर्य देश भारत है जो अपनी महान संस्कृति, विशाल सभ्यता, और अपने अध्यात्म ज्ञान के लिये पूजनीय रहा है। जहाँ के अनन्त ऐश्वर्य, पावन धर्म और उदात्त आदर्शों की हर उस यात्री ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है जो प्राचीन काल में समय-समय पर इसके दर्शन करने के लिये आते रहे थे।
यह वही भारत है जिसका सत्य, जिसका शौर्य, जिसका तप और जिसका त्याग संसार के लिये आश्चर्य का विषय बना है। श्रद्धा, प्रेम तथा सहानुभूति तो भारतीय राष्ट्र का विशेष गुण था। आध्यात्मिक चिन्तन और ईश्वर में अखण्ड विश्वास यहाँ का जीवन प्राण बना हुआ था। सच्चरित्रता तथा सादा जीवन तो इसके अणु-अणु में परिव्याप्त था। छल-कपट, जारी, मक्कारी, स्वार्थ आदि की कुत्सित भावनाओं का भारत वासियों से स्वप्न का भी सम्बंध नहीं था। सरलता, शिष्टता तथा शालीनता भारतीय चरित्र की शोभा थी।
भारतवर्ष की इस उन्नतशील अवस्था का आधार था धर्म-धारण, सच्ची एवं निष्काम धर्म धारणा। तब भारतवासियों का धर्म प्रदर्शन का नहीं आचरण का विषय था। वर्णाश्रम के अनुसार भारतवासी बचपन से ही अपने जीवन में धर्म को ढालना प्रारम्भ कर देते थे। वे तप एवं साधना का कठोर व्रत लेकर धार्मिक जीवन की सिद्धि करते थे और तब ही अपने को उस समय के उन्नत समाज का सदस्य होने योग्य समझते थे।
आस्तिक भाव, धर्माचरण तथा आध्यात्मिक विचारधारा मनुष्य के सारे लौकिक एवं पारलौकिक अभ्युदय का अमोध उपाय है। यही गुण मनुष्य को सच्चे एवं सुखी जीवन की ओर अग्रसर करने वाले हैं। या तो मनुष्य धर्माचरण द्वारा सुखी जीवन का अधिकारी बन सकता है अथवा अधार्मिक जीवन पद्धति अपनाकर दुखी एवं दरिद्री? बीच का ऐसा कोई मध्य मार्ग नहीं है जिससे मनुष्य न धर्म करके सुखी ही हो और न अधर्म करके दुखी। मनुष्य जीवन की दो ही गतियाँ हैं सुख अथवा दुःख। बीच की तटस्थ स्थिति का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है।
मानव जीवन का सर्वोपरि उद्देश्य है उन्नत स्थिति के साथ शाश्वत सुख की प्राप्ति करना। मनुष्य के इस उद्देश्य की पूर्ति केवल धर्माचरण के आधार पर ही हो सकती है। मानव अपने जीवन लक्ष्य ‘सुख’ को प्राप्त करने के लिये आज पहले से भी अधिक प्रयत्नशील दिखाई देता है। सुख शाँति के लिये आज जितनी दौड़-धूप, आपाधापी तथा हलचल दिखाई दे रही है उतनी शायद पूर्वकाल के किसी भी खण्ड में न हुई होगी। आज विज्ञान के बल पर मनुष्य ने मनुष्य के लिये सुख-सुविधाओं के भंडार उड़ेल दिये हैं। पंच तत्वों की शक्ति को अपने कार्य वाहन के लिये हस्तगत कर लिया है। तब भी आज जैसा मनुष्य कभी भी दीन दुखी न रहा होगा।
प्रयत्नों की इस विफलता एवं विपरीत-गामिता का कारण एकमात्र धर्माचरण का अभाव ही है। अधिकाँश लोग तो आज-ईश्वर तथा धर्म को अपनी लौकिक उन्नति में बाधक मानने लगे हैं और पारलौकिक उन्नति से कोई सरोकार नहीं रखते। किन्तु जो कुछ लोग धर्म कर्म करने वाले देखे जाते हैं, वे भी सही अर्थों में धार्मिक नहीं हैं। उनमें भी प्रदर्शन, बाह्याडम्बर की भावनाएँ पाई जाती हैं। अधिक तो क्या केवल एक सच्चा व्यक्ति धार्मिक समाज को बदलकर रख देता है, गिरे हुओं को उठा देता है, अधार्मिकों को धार्मिक तथा नास्तिकों को आस्तिक बना देता है। एक गौतम बुद्ध ने अहिंसा धर्म की स्थापना कर दी। एक सच्चे धार्मिक ईसा ने योरोप को सभ्य कर दिया और एक धर्म धारी महात्मा गाँधी ने भारत का भाग्य ही बदल डाला। यह होती है सच्ची ईश्वर भक्ति और सत्य धर्माचरण की अपरिमेय शक्ति।
लोग ईश्वर भक्ति तथा धर्म कर्म करते देखे जाते हैं, किन्तु धर्म का मूल उद्देश्य जीवन उद्दात्त एवं आदर्श बनाने की भावना का उनमें नितान्त अभाव ही रहता है। वे धर्म द्वारा धर्म की सिद्धि रूप शाश्वत सुख शाँति की इच्छा नहीं करते। धर्म सिद्धि के रूप के उनकी कामना रहती है- धन दौलत, भोग विलास, पूजा प्रतिष्ठा तथा पुत्र कलत्र आदि प्राप्त करने की। वे यह नहीं सोच पाते कि निःस्वार्थ धर्माचारी को तो यह भौतिक उपलब्धियाँ स्वयं ही बिना कामना किए ही प्राप्त हो जाती हैं तब धर्म के मूल उद्देश्य भगवत् भक्ति अथवा अहैतुक सुख शाँति को पाने में इन नश्वर कामनाओं की बाड़ क्यों लगाई जाये?
अन्य शेष संसार तो सदा से ही भौतिक एवं भोगवादी रहा ही है,उसकी जीवन पद्धति का विकास ही इस विकृति के आधार पर हुआ है। इसके लिये उन पर अधिक आरोप नहीं किया जा सकता। किन्तु भारत जैसे आध्यात्मिक एवं धर्म प्राण देश को इस अंध भोगवाद के लिये आक्षेप से मुक्त नहीं किया जा सकता । दैवी संपदं के अनुयायी भारत को अपना सुधार करना और विश्व में सच्चे मानव धर्म की स्थापना का अपना ईश्वरीय कर्तव्य पूरा करना ही चाहिये।
किन्तु खेद है कि भारत भी अपने इस गम्भीर दायित्व को नहीं समझ रहा है। वह दिन-दिन अपने सत्य स्वरूप को खोता हुआ विपरीत दिशा में भागा चला जा रहा है। आज देश में जिधर भी दृष्टि जाती है दुःख, अशाँति, असफलता, असत्यता, भ्रष्टाचार, ईर्ष्या-द्वेष, क्लेश कलह, बेकारी और बीमारी की ज्वाला जलती दिखाई दे रही है। दिन रात भर खप कर लोग सुख शाँति पाने का प्रयत्न कर रहे हैं, किन्तु उनका उद्देश्य उनसे दूर ही भागता जा रहा है।
यदि भारत को सच्चे मानों में निराशा, निरुत्साह, पतन, अशाँति तथा अवहेलना के आसुरी आघातों से मुक्त होना है तो उसे अपने जीवन में प्राचीन पुनीत धर्म की प्रतिस्थापना करनी ही होगी। अपने चरित्र को निष्कलंक एवं निःस्वार्थ बनाना ही होगा। भोगवाद से योग वाद तथा नास्तिकता से आस्तिकता की ओर आना ही होगा।
लौकिक उन्नति में धर्म को बाधक मानने वाले भारतीयों को विश्वास करना ही होगा कि सुख स्वार्थपरता से नहीं निःस्वार्थ धर्म भावना से ओत प्रोत सदाचार से ही मिल सकता है। जिस दिन भारतीय अपने जीवन में पुनः अपने पावन धर्म की अवतारणा कर लेंगे और पूर्ववत् उसका संदेश संसार को देने का अपना कर्तव्य पालन करने लगेंगे भारत ही नहीं सारे संसार से असुख एवं अशाँति का वातावरण दूर हो जायेगा। आज की व्यस्त जनता रोग शोक से मुक्त होकर अपनी-अपनी धारणा के अनुसार रामराज्य का आनन्द पाने लगेगी।
सामाजिक भावना का तिरोधान हो जाने का एक मात्र कारण यही है कि समाज से सच्ची धर्म भावना निकल गई। आज भोगवाद के वातावरण में धर्म भावना डूब गई है। भगवान के प्रति लोगों की भक्ति तथा भय नष्ट हो गया है। कोई नैतिक अंकुश न रहने से पूरा समाज गलत दिशा में दौड़ा चला जा रहा है। उसे अपने कार्यों में कर्तव्य-अकर्तव्य का ध्यान ही नहीं आता।
भौतिकता की परिस्थिति भोगवाद में होना स्वाभाविक है, सो वह हो भी रही है। आज धर्म भावना एवं धर्म कर्म की आधुनिकता के रंग में रंगे युवक पुरानी बातें तथा कार्य निरर्थक मानने लगे हैं। सबेरे से शाम तक भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त करने अथवा उसके विषय में बात करने में ही उनका सारा समय चला जा रहा है।
नास्तिकता एवं अधार्मिकता के कारण देश निराधार एवं निरंकुश होकर बुरी तरह अविवेकता की ओर झुक गया है। समाज के इस अयुक्त झुकाव को तत्काल रोकने की आवश्यकता है। इसके रोकने का एक ही उपाय है लोगों की प्रसुप्त धर्म भावना को उत्तेजित किया जाय। उन्हें व्यक्तिगत तथा सामूहिक धर्म योजनाओं को कार्यान्वित करने की प्रेरणा दी जानी चाहिये। धार्मिक प्रवृत्ति के लोग धर्म के सच्चे स्वरूप को समझें, उसे ही धारण करें और अपने उदाहरण तथा प्रेरणा से अपने पास पड़ोस तथा परिचितों में धर्म भावना जागृत करने का प्रयत्न करें।