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Magazine - Year 1966 - Version 2

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परिवार को सुसंस्कृत बनायें

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जिस प्रकार वृक्ष की सफलता उसकी जड़ पर निर्भर है उसी प्रकार मनुष्य की सफलता एवं सुख-शाँति परिवार पर निर्भर है। यदि वृक्ष की जड़ कमजोर, अव्यवस्थित, शुष्क अथवा अनुपयुक्त हो तो वृक्ष किसी भी दशा में विकसित होकर फल फूल नहीं सकता। परिवार के व्यवस्थित , सुसंस्कृत तथा उपयुक्त होने पर ही व्यक्ति जीवन में वाँछित उन्नति की ओर बढ़ सकता है। मनुष्य के जीवन विकास में परिवार का महत्वपूर्ण योगदान भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

गृहस्थ-जीवन को पृथ्वी पर स्वर्ग कहा गया है। मनुष्य का युग-युग का अनुभव बतलाता है कि जो सुख पारिवारिक जीवन जीने में है वह किसी अन्य प्रकार की जीवन पद्धति में नहीं है। आश्रम व्यवस्था का प्रचलन करने वाले ऋषि मुनियों ने गृहस्थ आश्रम को सबसे पुनीत एवं उपयोगी बताया है। जीवन की सारी व्यवस्था परिवार पर निर्भर रहती है। शेष तीन आश्रम भी गृहस्थ आश्रम पर निर्भर रहते आये हैं।

पारिवारिक जीवन एक प्रकार की सुन्दर स्वस्थ सहकारी जीवन पद्धति है। परिवार के प्रत्येक सदस्य का सुख-दुख प्रत्येक से जुड़ा रहता है। सभी एक दूसरे की सुख-सुविधा में सहायक होते हैं। गृहपति यदि परिवार चलाने के लिये श्रम करता है तो गृह-स्वामिनी उसके लिये समय पर भोजन तथा आराम की व्यवस्था किया करती है। पति जो कुछ कमा कर लाता है पत्नी उसे संजोती तथा उसका इस प्रकार से अधिक से अधिक सदुपयोग करती है जिससे कि घर की व्यवस्था रोचक, मनोरम एवं सम्पन्नता पूर्ण बनी रहे। माता-पिता बच्चों का पालन पोषण करने में श्रम करते हैं तो बच्चे भी उन्हें अपनी किलकारियों तथा आज्ञानु वर्तन से आनन्दित करते रहते हैं। बूढ़े हो जाने पर अपने माता-पिता के हाथ पाँव बनकर उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देते। सम्मिलित परिवारों में अनेकों की कमाई एक साथ घर आती और एक साथ भोजन व्यवस्था होने से घरबार भरापूरा बना रहता है। एक सदस्य के बीमार अथवा अलील हो जाने पर सारे सदस्य उसकी चिन्ता एवं सेवा सुश्रूषा करते हैं जिससे रोगी बड़ा ही आश्वस्त अनुभव करता और शीघ्र अच्छा हो जाता है। सदस्यों के मिलजुल कर रहने से परिवार की प्रतिष्ठा एवं शक्ति बढ़ती है जिससे कोई दुष्ट अनायास उसे हानि पहुँचाने की हिम्मत नहीं कर पाता। इस प्रकार यदि परिवार संगठित, सुव्यवस्थित तथा सुमति पूर्ण है तो उसकी तुलना में स्वर्ग का सुख भी तुच्छ आँका जायेगा।

पारिवारिक जीवन में न केवल भौतिक सुख-सुविधा के लाभ हैं अपितु आध्यात्मिक लाभ भी कुछ कम नहीं है। पारिवारिक जीवन में हर मनुष्य अपनी व्यक्तिगत स्वार्थपरता त्यागकर दूसरों की सुख-सुविधा का ध्यान रखने का अभ्यास सिद्ध करता है। अतिथि सेवा, परोपकार, दान पुण्य का जितना अवसर गृहस्थ जीवन में मिलता है उतना अन्य जीवन में नहीं। गृहस्थ लोग निहंगों की अपेक्षा कहीं अधिक सहिष्णु, सदाचारी तथा सौहार्द पूर्ण हो जाया करते हैं। प्रेम का प्रकाश जितना गृहस्थ के भाग्य में होता है उतना गृहस्थ हीन व्यक्ति के भाग्य में नहीं। गृहस्थी में माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन, चाचा, ताऊ आदि सारे सदस्य एक दूसरे को स्नेह तथा प्रेम किया करते हैं। जितना बड़ा परिवार होता है सदस्यों के प्रेम का दायरा उतना ही बड़ा होता है। जिस गृहस्थ के बेटा-बेटी, नाती-पोते हैं तो वह उनको प्रेम करने के स्वभाव के कारण दूसरे के बच्चों को भी प्रेम करता है। माँ, बहन, बेटी, बहू वाला सद्गृहस्थ उसी दृष्टि से दूसरे की बहू बेटियों को देखता है। परिवार निःसन्देह मनुष्य के नैतिक प्रशिक्षण का एक सुन्दर केन्द्र है।

बेटे बेटियों तथा नाती पोतों की ब्याह शादी होने पर गृहस्थ के स्नेह सम्बन्धों की परिधि और भी बढ़ जाती है। यदि वह बुद्धिमान इनमें स्वार्थ तथा संकीर्णता से दूषित अपनत्व न रक्खे और सारे संगों एवं सम्बन्धियों को विश्व विराट् का घटक मानकर निश्छल प्रेम करे और उनके लिये सहायता सहयोग के लिये निस्वार्थ भाव से तत्पर रहे तो उसकी यह आत्मीयता विश्वप्रेम में परिणत हो जाये और वह “वसुधैव कुटुम्बकम्” वाला एक आध्यात्मिक व्यक्ति बन जाये। त्याग भावना पारिवारिक जीवन का विशेष गुण है। यों तो मूल-मानव पशुओं की तरह स्वार्थी होता था उसे किसी दूसरे की सुख सुविधा का जरा भी ध्यान नहीं रहता था। किन्तु जब वह स्वार्थी मानव गृहस्थ जीवन में स्त्री-बच्चों तथा भाई बहनों के बीच बसता है तब अपेक्षाकृत अधिक निःस्वार्थी हो जाता है। अपने से पहले उसे अपने स्त्री-बच्चों तथा भाई-बहनों एवं माता-पिता की सुख-सुविधा का ध्यान रहता है और वह सुखपूर्वक उनके लिए कुछ भी त्याग करने के लिये तैयार रहता है। प्रेम अथवा ममतावश ही सही त्याग भावना का विकास होना हर प्रकार से कल्याणकारी है।

किन्तु यह सब सुख स्वर्ग मय भौतिक तथा आध्यात्मिक लाभ होते तभी हैं जब परिवार सुसंगठित, व्यवस्थित तथा सुसंस्कृत होता है। अन्यथा अव्यवस्थित एवं असभ्य परिवारों से बड़ा कोई नरक नहीं है। असफल गृहस्थी गले की फाँसी बन जाती है। अशिष्ट पत्नी, उच्छृंखल संतानें, स्वार्थी भाई और क्रूर माता-पिता किसी भी व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन स्वाहा कर देने के लिये विकट वैश्वानर के समान ही होते हैं। जब तक परिवारों में अपेक्षित अनुशासन, वाँछित व्यवस्था और आवश्यक शिक्षा दीक्षा के साथ शुभ संस्कारों की परम्परा बनी रही, पारिवारिक जीवन स्वर्ग सुख का सार बना रहा— और सद्गृहस्थ देवताओं जैसा सुख पाते हुये बड़े-बड़े महात्मा एवं लोकसेवी बनते रहे। किन्तु जब से परिवारों को प्रयास पूर्वक सुसंस्कृत बनाने के कर्तव्य की उपेक्षा की जाने लगी गृहस्थ-जीवन जीता जागता नरक कुँड बन गया है।

आज जिधर भी दृष्टि डालिए लोग पारिवारिक जीवन से ऊबे, शोक सन्ताप में डूबे अपने भाग्य को कोसते नजर आते हैं। बहुत ही कम परिवार ऐसे होंगे जिनमें स्नेह सौभाग्य की सुधा बहती दिखाई पड़े। अन्यथा घर-घर में कलह, कलेश, कहा सुनी, झगड़े, टंटे, मार पीट, रोया धोई, टूट फूट, बाँट बटवारा और रार, जिद फैली दीखती है। सास पतोहू, पिता-पुत्र, भाई-भाई, ननद भाभी, देवर-भौजाई यहाँ तक कि पति-पत्नी तथा बच्चों एवं बूढ़ों में टूट-फूट, लड़ाई-झगड़ा द्वैष वैमनस्य तथा मनोमालिन्य उठता और फैलता दिखाई देता है। आज का पारिवारिक जीवन जितना कलुषित, कुटिल, और कलहपूर्ण हो गया है कदाचित ऐसा निकृष्ट जीवन पहले कभी भी नहीं रहा होगा। स्वर्ग-सुख के प्रतिबिम्ब गृहस्थ जीवन की यह नारकीय दुर्दशा, आश्चर्य, खेद तथा चिन्ता का विषय है। हम गृहस्थों को इस अवाँछित गृहस्थ जीवन पर शर्म करनी चाहिये और आत्म कल्याण से लेकर राष्ट्रीय कल्याण की दृष्टि तक इसे शीघ्र से शीघ्र सुधार कर आदर्श गृहस्थ का रूप दे देना चाहिये।

अपने पैरों खड़े होते ही पुत्र असमर्थ माता-पिता को छोड़कर अलग घर बसा लेता है। भाई-भाई की उन्नति एवं समृद्धि शत्रु की आँखों से देखता है। पत्नी पति को चैन नहीं लेने देती। बहू बेटियाँ फैशन प्रदर्शन सन्निपात से ग्रस्त हो रही हैं। छोटी संतानें, जिद्दी, अनुशासनहीन तथा मूढ़ बनती जा रही हैं। परिवारों के सदस्यों के व्यय तथा व्यसन बढ़ते जा रहे हैं। कुटुम्ब कबीले वाले कौटुम्बिक प्रतिष्ठा का कोई महत्व देते दृष्टिगोचर नहीं होते। निःसन्देह यह एक भयावह स्थिति है। परिवार टूटते, बिखरते जा रहे हैं। चिन्ताशील सद्गृहस्थ इस विष पूर्ण विषम स्थिति में शरीर एवं मन से चूर होते जा रहे हैं। गृहस्थ धर्म एक पाप बनकर उनके सामने खड़ा हो गया है। अनेक समाज हितैषी, लोकसेवी परोपकार की भावना रखने वाले सद्गृहस्थ इस असहनीय पारिवारिक परिस्थिति के कारण अपने जीवन लक्ष्य की और न बढ़ सकने के कारण अपने दुर्भाग्य को धिक्कार रहे हैं।

इस अपुनीत पारिवारिक परिस्थिति में यदि कोई यह आशा करता है कि वह सुख शाँति एवं प्रसन्नता पूर्ण गृहस्थ का सुख लेकर अवस्थानुसार कुछ आध्यात्मिक लाभ का प्रयत्न करेगा तो उसकी आशा को दुराशा ही कहना होगा। ऐसे नारकीय पारिवारिक जीवन में सुख शाँति की परिस्थितियाँ पा सकना, संतोष सौहार्द की उपलब्धि कर सकना सम्भव नहीं दीखता। इसके लिये सड़े-गले पारिवारिक ढर्रे को बदलना होगा, साहसपूर्वक उसे शिक्षित, प्रशिक्षित तथा सुसंस्कृत बनाना होगा। तभी कुछ निस्तार की सम्भावना सम्भव हो सकती है। सड़े गले पुराने ढर्रे पर अभ्यासपूर्वक चलते रहने से परिस्थिति का स्वयं सँभलना तो दूर दिन-दिन और बिगड़ती जायेगी? यदि आज हम घर से बाहर निकल कर समाज, राष्ट्र तथा विश्व की कोई सेवा नहीं कर सकते, उसकी सुधार संभाल नहीं कर सकते, तो कम से कम अपने परिवार, जिस पर कि हमारी सुख, समृद्धि तथा उन्नति विकास निर्भर है, की तो साज सँभाल करें ही। परिवार को सुधार कर सुव्यवस्थित तथा सुसंस्कृत बना लेने पर भी परोक्ष ही नहीं प्रत्यक्ष रूप से समाज-सेवकों की सूची में आ जायेंगे। क्योंकि परिवार समाज का ही एक अभिन्न अंग है।

पारिवारिक जीवन की इस पतन पूर्ण दयनीय दशा के कारण खोजने पर पता चलता है कि इसका दायित्व हम गृहस्थों पर ही है जिन्होंने परिवार परम्परा का मुख्य उद्देश्य विस्मरण कर दिया है और इसे एक टूटी-फूटी गाड़ी समझकर खींचते रहना ही अपना कर्तव्य समझ लिया है।

परिवार बसा लेना आसान है, लोग आये दिन बसाते ही रहते हैं। उसका पालन भी कोई विशेष कठिन नहीं, सभी उसका पालन करते हैं। किन्तु परिवार को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिये उसका निर्माण करना एक धर्म साध्य कर्तव्य है। अधिकतर लोग परिजनों के लिये अधिकाधिक सुख सुविधायें देने, उनके लिए अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र तथा आराम की चीजें जुटाना ही पारिवारिक जीवन का उद्देश्य मान बैठे हैं। उनका ध्यान परिवार की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए धनोपार्जन तक ही सीमित रहता है। वे यह कभी नहीं सोच पाते कि भोजन, वस्त्र तथा शिक्षा स्वास्थ्य के साथ परिवार की एक सर्वोपरि आवश्यकता भी है और वह है उसे सद्गुणी बनाना। असद्गुणी परिजन न तो परिवार की प्रतिष्ठा सुरक्षित रख पाते हैं और न उसमें सुख शाँति का ही आगमन होने देते हैं। खाने पीने, पहनने, ओढ़ने और मौज मजा के आदी परिजन कभी भी अनुशासित तथा संगठित नहीं रह सकते। अवश्य ही उनमें स्वार्थपरता बढ़ जायेगी और वे जरा-जरा सी बात पर एक दूसरे से कलह, क्लेश तथा ईर्ष्या डाह करेंगे। खाने-पीने , पहनने ओढ़ने तथा मौज मजा तक अपने दृष्टिकोण को केन्द्रित रखने वाला व्यक्ति कभी भी त्यागी, परोपकारी,स्नेही तथा उदार नहीं हो सकता! इन गुणों का अभाव किसी भी परिवार की सुख शाँति में आग लगा देने के लिए काफी है। अस्तु आवश्यक है कि जहाँ स्थिति के अनुसार परिजनों को अधिक से अधिक सुख-सुविधा पहुँचाई जाये वहाँ इससे यह अनिवार्य है कि उन्हें गुणी, व्यवस्थित, अनुशासित तथा मर्यादित बनाने का प्रयत्न किया जाये। परिवार का निर्माण परिवार पालन से शत सहस्र गुना महत्वपूर्ण है।

सद्गृहस्थ को चाहिए कि वह अपने परिवार को एक वाटिका तथा अपने को उसका उत्तरदायी माली समझे। जिस प्रकार एक माली अपने बाग को सींचता, उसमें खाद देता और एक-एक फूल-पत्ती की देखभाल एवं साज संभाल करता हुआ इस बात का भी ध्यान रखता है कि उसके पौधों में कोई कीड़ा तो नहीं लग रहा है, उसके बाग में निरर्थक झाड़ झंखाड़ तो नहीं उगे आ रहे हैं—और यदि वह इसके लक्षण देखता है तो तुरन्त ही सावधान होकर उनको दूर करने के उपाय करता है। इसी प्रकार सद्गृहस्थ को चाहिये कि वह अपने परिवार का पालन करे, उसे भोजन, वस्त्र दे, शिक्षा दीक्षा दिलवाये किन्तु इस पर भी पूरा ध्यान रखे कि उसके परिवार का कोई व्यक्ति व्यसनी, स्वार्थी अथवा संकीर्ण तो नहीं हो रहा है, उसके घर में कलह, कलेश तथा टूट-फूट के कारण तो नहीं उभर रहे हैं। यदि उसे ऐसे कोई संकेत मिलें तो तुरन्त सुधार में तत्पर हो जाये। स्नेह, सख्ती, शासन अनुशासन जिस उपाय से बने समाहित होती हुई विकृतियों को दूर करे! परिवार में पनपती हुई विकृतियों की उपेक्षा करना अथवा उन्हें दूर करने में प्रमाद करना परिवार को नरक बनाने की असावधानी होगी। किन्तु कोई भी सद्गृहस्थ अपने परिवार को सुख सौरभ पूर्ण हरी-भरी वाटिका का रूप देने में तभी सफल हो सकता है जब वह अपना जीवन आदर्श बनाकर परिजनों के सम्मुख उदाहरण के रूप में रक्खे। सदाचारी, सद्गृहस्थ का परिवार सुख-शाँति का घर बन जा सकता है। आज ही से सदाचारी, सद्गृहस्थ बन जाइये कल ही आपका परिवार नरक कुँड से बदल कर स्वर्ग सुख का आवास बन जायेगा।

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