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Magazine - Year 1968 - Version 2

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उत्कृष्ट जीवन के चार चरण

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“वदनं प्रसाद सदनं, सदय हृदयं सुधा मुचो वाचः। करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः॥

-जिसका मुख प्रसन्नता का घर है, हृदय दयायुक्त है, वाणी अमृत-सी मधुर है तथा क्रिया परोपकारमयी है, वे किसके वन्दनीय नहीं होते। अर्थात् सबके वन्दनीय होते हैं।

इस नीति पद में चार ऐसे गुणों को बतलाया गया है जिनके आधार पर मनुष्य सबका वंदनीय, वाँछनीय और प्रिय बन जाता है। वे गुण है- प्रसन्नता, दयालुता, मधुर भाषण और परोपकार परायणता। इन गुणों पर गहराई से विचार करने पर पता चल जायेगा कि यह केवल नीति सूक्ति ही नहीं है, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक तथ्य एवं सत्य है।

‘वदनं प्रसाद सदनं’- आशय है- मुख मंडल पर हर समय प्रसन्नता विराजमान रहनी चाहिए। खिले हुए फूलों, उदय होते चन्द्रमा और चमकते तारों को सभी ने देखा होगा। जो भी उन्हें देखता है उसका मन प्रसन्नता से भर जाता है। यह सारी सुन्दर वस्तुएँ बड़ी प्यारी और श्लाघ्य अनुभव होती हैं। मनुष्य का इनके प्रति सहज आकर्षण पैदा हो जाता है। इस श्लाघ्यता अथवा आकर्षण का क्या कारण है? चन्द्रमा, फूल और तारे अपनी पुनीत प्रसन्नता से नैसर्गिक रूप से वाँछनीय बन जाते हैं। यह उनका प्रकाश, प्रसाद और प्रसन्नता का गुण ही है जो मनुष्य को आकर्षित कर लेता है।

उसी प्रकार जिस मनुष्य का मुख मंडल प्रसन्नता से दमकता चमकता रहता है। स्मित अथवा हास की छटा बिखरती दिखती है वह सबको स्वभावतः प्यारा लगने लगता है। प्रसन्नता में बड़ा प्रभावशाली सौंदर्य होता है। इसके विपरीत जिनके मुख पर क्रोध, क्षोभ, विषाद अथवा संताप की मलीन छायी रहती है उनको उसी प्रकार पसन्द नहीं करते जिस प्रकार मुरझाए, फूल, अस्त होते चन्द्रमा और प्रभात के धुँधले तारों को पसन्द नहीं करते। तीनों चीजों वही हैं जिनको कुछ समय पूर्व देखकर सुख होता था, किन्तु अब अच्छा नहीं लगता, क्यों? बात यह होती है कि उन्होंने अपनी प्रसन्नता की विशेषता खोदी होती है।

हँसते-खेलते बच्चे के साथ बूढ़े तक घंटों खेलते रहते हैं। जो भी देखता है गोद में ले लेता है और बच्चे की तरफ ही प्रसन्न होकर उसे खिलाने और खेलने लगता है। बच्चा वही है किन्तु जब रोने लगता है तो कोई एक मिनट भी उसे गोद में रखने को तैयार नहीं होता। और यदि रखता भी है तो उसे लुभाने, बहलाने की व्यस्तता का अनुभव करने लगता है। बच्चे की अप्रसन्नता दूसरों को भी अप्रसन्न बना देती है।

और तो और लोग खेलते और प्रसन्न होते पशु-पक्षियों को देखने के लिए राह चलते रुक जाते हैं। जड़ और चेतन प्रकृति की प्रसन्नता का अवलोकन करने के लिए लोग भ्रमण और सैर-सपाटे के कार्यक्रम बनाते हैं। अधिकाधिक प्रसन्न प्रकृति को देखने के लिए लोग दुरूह स्थानों तक जाने में संकोच नहीं करते। प्रसन्न बछड़ों, मेमनों और कुत्तों तक से आदमी अपनी स्थिति भूल कर खेलने लगता है। प्रसन्नता में एक दैवी आनन्द होता है। बल्कि यों कहना चाहिए कि प्रसन्नता स्वयं ही एक दैवी आनन्द होती है। यह जिससे भी प्राप्त होता है मनुष्य उसकी ओर आकर्षित हो उठता है। मनोरंजन, विलास, प्रसायन, कला, कौशल, साहित्य और सृजन की सारी प्रक्रिया एक प्रसन्नता पाने के लिए ही होती है।

लोग खेल-तमाशों को क्यों पसन्द करते हैं? इसलिए कि उनसे प्रसन्नता प्राप्त होती है। प्रसन्नता से प्रसन्नता और विषाद से विषाद की प्रतिक्रिया होती है इसीलिये लोग प्रसन्न वदन व्यक्तियों को पसन्द करते हैं और विषादों लोगों को नापसन्द। उक्त नीति वाक्य में इसीलिये प्रसन्नता का उन गुणों में स्थान दिया गया है जिनसे मनुष्य सबका वन्दनीय अर्थात् आदरणीय, श्लाघ्य, अथवा प्रिय बन जाता है।

‘सदय हृदय’- आशय है- मनुष्य को दयावान होना चाहिए। ‘दया धर्म का मूल’ -अर्थात् दया सारे धर्मों का आधार है। कितनी ही उपासना, साधना और तपस्या क्यों न की जाए यदि हृदय में प्राणिमात्र के लिये दया नहीं है तो उसका कोई लाभ न होगा। उन सारी क्रियाओं से धर्म का उद्देश्य पूरा न होगा। इसके अतिरिक्त यदि हृदय में दया का निवास है, संवेदना, सहानुभूति और पर पीड़ा का अनुभाव है तो वह मनुष्य कोई भी धार्मिक क्रिया न करता हुआ भी पूरा धर्मात्मा है। जो धर्मात्मा है संसार में उसकी पूजा कौन न करेगा?

जिसके हृदय में दया का निवास होगा, जो दयावान होगा, वह किसी का दुख नहीं देख सकता। किसी की दुख-तकलीफ में देखकर उसका हृदय नवनीत की तरह द्रवित हो उठेगा। वह दूसरे की पीड़ा अपनी आत्मा में अनुभव करने लगेगा। दयावान व्यक्ति किसी को कष्ट में देखकर रह ही नहीं सकता। वह अनायास ही उसकी सेवा, सहायता के लिये दौड़ पड़ेगा। अपनी सामर्थ्य भर उसी सेवा, सहायता करेगा नहीं तो सहानुभूति, संवेदना, आत्मीयता, आश्वासन अथवा मोतियों जैसे मूल्यवान आँसुओं से उसके दुख में भागीदार बन जाएगा। ऐसे देवता पुरुष को कौन प्यार न करेगा, कौन उसकी वंदना न करना चाहेगा?

दया में अमृत का वास रहता है। यह जिसे मिलती है अथवा जिसे दी जाती है उन दोनों की आत्मा में आनंद की लहर आन्दोलित कर देती है। दयावान व्यक्ति को संसार में सब अपने स्वजन और आत्मीयजन मालूम होते हैं। सार संसार उसे अपना परिवार जैसा अनुभव होता है। वह न तो किसी का अनिष्ट करता है और न सोचता है। वह जब सोचता है तो सारे संसार का मंगल ही सोचता है। उसका न कोई शत्रु होता है और न विरोधी। ऐसे मित्र और हितैषी पुरुष का आदर, सम्मान होना स्वाभाविक ही है।

“सुधामुचो वाचः” -अर्थात् जिसकी वाणी मीठी हो। वाणी में क्रिया से भी अधिक प्रभाव होता है। ‘वशीकरण एक मन्त्र है परिहरि’ वचन कठोर’ -मीठी वाणी को साक्षात् वशीकरण मन्त्र माना गया है। जो व्यक्ति सबसे मीठी वाणी बोलते हैं, शिष्ट शब्दों का व्यवहार करते हैं, विनम्र शैली अपनाते हैं वे सारे संसार को अपने वश में कर लेते हैं। कहा गया है-

“कोयल का को देत है, कागा का सों लेत। मीठे वचन सुनाय के, जग वश में करि लेत॥”

जिस प्रकार कौआ काला और कुरूप होता है उसी प्रकार कोयल भी काली और कुरूप होती है। किन्तु कर्कश और कठोर वाणी के कारण लोग कौवे को नापसन्द करते हैं। यदि वह मुड़ेर अथवा छज्जे पर आकर काँव-काँव करने लगता है तो उसे ढेला मार कर लोग उड़ा देते हैं। लेकिन कोयल की मीठी कू-कू कान लगा कर सुना करते हैं। बहुत बार तो लोग उसकी बोली से मस्त होकर स्वयं भी उसके स्वर में स्वर मिलाने लगते हैं और उसे देखने के लिये पेड़ों में ताक-झाँक करने लगते हैं। काली और कुरूप होने पर भी बहुत बार लोग उसकी मीठी वाणी के लालच में उसे पाल तक लेते हैं। वाणी की मिठास एक वरदान के समान फलवती होती है।

मधुर भाषण करने वाले लोग जहाँ भी जाते हैं आदर पाते हैं। लोग उन्हें रोककर उनकी बात सुनना चाहते हैं। किसी भी मधुर वाणी और सुन्दर शब्द सुनकर लोगों को बड़ा सुख मिलता है। मधुर वाणी द्वारा शत्रु को वश में किया जा सकता है। बीन का मीठा स्वर सर्प जैसे विषैले और घातक जन्तु को भी विनीत एवं विनम्र बना देता है। संगीत की मिठास द्वारा पागल जानवरों और पागल आदमियों को भी ठीक होते देखा गया है।

वाणी देवी है। वह शारदा का रूप है। जब इसका ठीक-ठीक उपयोग किया जाता है तो हर ओर कल्याण ही कल्याण फैल जाता है। किन्तु अब असव्य, परुषता अथवा कर्कशता के दोष से इसका दुरुपयोग किया जाता है तो वही देवी रुष्ट होकर भयंकर बन जाती है जिससे विवादों, झगड़ों, संघर्षों, लड़ाइयों और अपराधों के रूप में डडडड खड़े होने लगते हैं। वाणी देवी है। जो इसे माधुर्य, शिष्टता और शालीनता द्वारा प्रसन्न कर लेता है उसमें चमत्कारी प्रभाव पैदा हो जाता है। उसको सब प्यार करने लगते हैं और उसके कथन का अनुसरण भी।

किन्तु वाणी का केवल मिष्ट और शिष्ट होना उसका अमृतत्व नहीं है। उसे सत्य, असंदिग्ध, उपयुक्त और सारपूर्ण भी होना चाहिए। मीठा तो ठग भी बोल लेते हैं और आडम्बरी, प्रपंची तथा विश्वासघाती भी। जिसमें सत्य और सार नहीं है वह शरद मिश्री की तरह मीठी और शहद की तरह शालीन होने पर भी अमृत नहीं है। विष ही है और अन्ततः विष का प्रभाव ही उत्पन्न करती है। जिसकी वाणी में सत्य, सौष्ठव और माधुर्य होगा उसकी वाणी ही भक्त के समान होगी और वह स्वयं देवोपम वाग्मी होगा। ऐसे पुरुष की कौन न वंदना करेगा और कौन न उसको पसन्द करेगा? धन्य हैं वे लोग जिनकी वाणी में अमृत होता है वे अपने इस गुण से स्वयं भी सुखी रहते हैं और दूसरों को भी सुखी बनाते हैं।

“करणं परोपकरणं” -जो कुछ किया जाय परोपकार भाव से किया जाए। कितनी सुन्दर नीति है। परोपकार भाव से संसार में व्यवहार करने वाला धरती का देवता ही होता है। पाप उसके निकट नहीं आता और पुण्य उसे छोड़कर जाता नहीं। पापों की प्राप्ति स्वार्थ के कारण होती है। जो सब कुछ अपने लिये ही चाहता है उसका लोभ बढ़ जाता है और तब उसकी तृप्ति करने में जघन्य से जघन्य कर्म करने में भी संकोच नहीं करता। लोभ पिशाच होता है, उसकी तृप्ति होती ही रक्त से है। लोभी व्यक्ति अपनी इस पिशाच वृत्ति को तृप्त करने के लिये न जाने कितने लोगों का शोषण करता है और बाद में भयंकर पतन को प्राप्त होता है।

परोपकार परायण व्यक्ति के जीवन में इस पिशाच को कोई स्थान नहीं होता। उसकी सारी उपलब्धियाँ अपने लिये नहीं दूसरों के लिये होती हैं। परोपकार के पुण्य में विश्वास रखने वाला अनुचित उपायों का प्रयोग कभी नहीं करता। जब उसमें न तो अहं होता है और न लोभ अथवा स्वार्थ, तो उसे क्या जरूरत होगी कि वह किन्हीं चीजों को पाने के लिये पाप पथ का अवलंबन ले?

परोपकारी व्यक्ति का तन-मन-धन दूसरों की सेवा, सहायता में ही नियत रहता है। वह किसी की सहायता करने का अवसर कभी नहीं खोता, उसके द्वार जो भी आता अथवा वह स्वयं किसी आवश्यकता में देखता है तो अपनी सेवाएँ तथा सहायताएँ आगे बढ़ा देता है। परोपकारी व्यक्ति किसी को भूखा देखकर स्वयं भोजन नहीं कर सकता, नंगा देखकर स्वयं वस्त्र नहीं पहन सकता और पीड़ित देखकर बैठा नहीं रह सकता। यदि उसके लिये सम्भव है तो भूखे को भोजन, नंगे को वस्त्र और पीड़ित को सेवा देने के बाद ही अपनी ओर ध्यान देगा। परोपकारी व्यक्ति न केवल साधनों में ही बल्कि अपनी प्रगति, प्रतिष्ठा, तपस्या, पुण्य और आत्मा तक में दूसरों को भागी बना लेता है। परोपकारी धरती के देवता होते हैं। ऐसे ही देव पुरुषों पर श्रद्धा के पुष्प चढ़ते हैं और ऐसे ही देवता समाज के आदरणीय होते हैं।

संसार में सफलता, उन्नति, मान-प्रतिष्ठा तथा सुख चाहने वालों की नीति में निर्देशित इन चार गुणों को सच्चे रूप में अपने में विकसित करने चाहिए। अवश्य ही वे अपने उद्देश्य में सफल होंगे।

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