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Magazine - Year 1968 - Version 2

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परमेश्वर के साथ अनन्य एकता का राजमार्ग

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मनुष्य उस परम चेतना परमेश्वर का अंश है। जिस प्रकार जल के प्रपात में पानी के अनेक छींटे उत्पन्न और विलय होते हैं उसी प्रकार विभिन्न प्राणी परमात्मा में से उत्पन्न होकर उसी में लय होते रहते हैं। यह उत्पत्ति एवं लय की लीला इसलिये रची गई है कि इस विश्व में जो प्रेम का अमृत भरा हुआ है उसका जीव रसास्वादन करे और उस आनन्द से परितृप्त होकर अपने को धन्य माने।

किन्तु इस संसार में ऐसे बुद्धिमान कितने हैं जो इस ईश्वरीय उद्देश्य को चरितार्थ कर पाते हैं। अधिकाँश में लोग दुर्भाग्य, कष्ट, अभाव, क्लेश एवं उद्वेग की जिन्दगी जीते देखे जाते हैं। इस मानव-जीवन के अनुपम अवसर का सदुपयोग कर लौकिक एवं पारलौकिक भविष्य को उज्ज्वल बनाने की बात विरला ही कोई सोचते देखा जाता है। जो सोचते हैं वे भी यथार्थ रूप से वैसा कर सकने में असमर्थ ही दिख पड़ते हैं। सब ओर अशान्ति, क्षोभ तथा असन्तोष ही फैला दीखता है। यह सुर-दुर्लभ मानव-शरीर मनुष्य की भार स्वरूप बना हुआ है।

ईश्वरीय मन्तव्य से विपरीत मनुष्य की जीवन गति पर विचार करने से यही बात समझ में आती है कि कहीं पर कोई बड़ी भूल हो रही है। नहीं तो शुद्ध, बुद्ध और आनन्द रूप परमात्मा के अंश मनुष्य के पास शोक-संतापों का क्या काम? उसे तो अपने अंशी की तरह शान्त और प्रसन्न होना चाहिये।

मनुष्य की इस दुःख पूर्ण स्थिति की कारणभूत भूल पर विचार करने से यही पता चलता है कि मनुष्य अपने स्वरूप को भूला हुआ है और यही अज्ञान उसको शोक-संतापों के कुश कंटकों में घसीट रहा है। जीवन का मंतव्य, महत्व, मूल्य तथा उपयोग विस्मरण कर देने से उसका मार्ग गलत हो गया है। जिसको यह ही पता न रहे कि मैं क्या हूँ, मेरा कर्त्तव्य और लक्ष्य क्या है, उसका जीवन-पथ ठीक भी कैसे हो सकता है। उसका भटक जाना, पथ-भ्रान्त हो जाना स्वाभाविक ही है। मूल्य एवं महत्व न जानने वाले के पास यदि रत्नों की पोटली रख दी जाये तो वह उसको मिट्टी मोल ही बरबाद कर देगा।

यों ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि मनुष्यों ने बहुत प्रगति की है। वैज्ञानिक विकास और सुख-सुविधा के प्रचुर साधन तथा वैभव पूर्ण रहन-सहन देखकर सहसा विश्वास नहीं होता कि मनुष्य इतना दुःखी और विक्षुब्ध होगा कि उसे जीवन एक असह्य भार-सा अनुभव हो। निःसन्देह भौतिक प्रगति की दृष्टि से यह अभूत पूर्व युग है। किन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि इसने वैयक्तिक एवं सामाजिक सुख-शान्ति को बढ़ाया नहीं घटाया ही है। यह बाह्य जीवन के साथ-साथ आन्तरिक जीवन का विकास न करने का ही परिणाम है। यह विकास एकाँगी एवं अपूर्ण है। अपूर्णता दुःखों की मूल मानी गई है। दो पहियों पर चलने वाली गाड़ी को यदि एक पहिये पर घसीटा जाये तो असुविधा और तकलीफें बढ़ेंगी ही। मनुष्य का जीवन बाह्य एवं आन्तरिक दो भागों से मिलकर बना है। यदि दोनों समानान्तर गति पर न रहेंगे तो वाँछित सुख-शान्ति के लिए निरास ही रहना होगा। विषमता स्पष्ट है। बाह्य, भौतिक अथवा वैज्ञानिक विकास क्षितिज के छोर छूता हुआ आगे बढ़ रहा है और आन्तरिक, आत्मिक अथवा आध्यात्मिक प्रगति पाताल की ओर गिरती जा रही है। अपेक्षित सुख-शान्ति के लिये इन दोनों गतियों में सन्तुलन एवं सामंजस्य स्थापित करना होगा। उसका उपाय यह हैं कि भौतिक प्रगति के साथ हमें, हम सब मनुष्यों को अपना सत्य स्वरूप, जीवन का उद्देश्य तथा उसका मूल्य महत्व फिर समझना होगा और उसकी गरिमा के अनुसार अपनी गतिविधि का निर्धारण करना होगा।

मनुष्य की वर्तमान दीन दशा का उत्तरदायी न तो दुर्दैव है, न युग अथवा काल का प्रभाव और न कोई अन्य परिस्थितियाँ, इसका उत्तरदायी स्वयं मनुष्य ही है। मनुष्य का अपना दृष्टिकोण विकृत हो जाने से जीवन की गतिविधि में अव्यवस्था आ जाना स्वाभाविक ही है। गुण, कर्म, स्वभाव में पतन पूर्ण स्थिति का समावेश हो जाये और परिस्थितियाँ अनुकूल बनी रहें यह सम्भव नहीं। पात्रता के अनुरूप ही प्राप्ति होती है, यह सृष्टि का शाश्वत नियम है। पात्र को पुरस्कार और कुपात्र को दण्ड मिलता ही है। इस संसार में सुख-शान्ति, सन्तोष, प्रेम तथा पवित्रता की सारी दैवी विभूतियाँ सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं किन्तु उनका अधिकारी वह मनुष्य ही हो सकता हैं जो अपने को उनके योग्य बना सकता है।

यों मनुष्य मूल रूप से तो पात्र ही है, अपात्र अथवा कुपात्र नहीं। अपने स्वरूप का विस्मरण कर देने से ही उसमें अपात्रता का आरोप हो गया है। जिस दिन वह अपने इस सत्य स्वरूप की प्रतीति कर लेगा कि वह सच्चिदानंद परमात्मा का अंश है, उसी दिन उसके हृदय के बन्द कपाट खुल जायेंगे, विस्मृति का अंधकार दूर हो जायेगा। उसके जीवन में दिव्य प्रकाश की किरणों विकीर्ण होने लगेंगी उसके गुण, कर्म, स्वभाव, पात्रता की दिशा में विकसित होने लगेंगे, जितनी-जितनी आत्म-स्वरूप की अनुभूति बढ़ती जायेगी, परमात्म-तत्त्व के साथ ऐक्य की भावना बढ़ती जायेगी।

मनुष्य की यह प्रतीति कि मैं उस अनन्त चैतन्य-सत्ता का एक अंश हूँ जो प्राणी मात्र में पायी जाती है उसकी, अन्य प्राणियों से आत्मीयता स्थापित कर देगी। उसका विरोध, द्वेष तथा स्वार्थ की सारी भावनायें नष्ट हो जायेंगी जिनका परिणाम अनंत प्रेम के रूप में हृदय में भर जायेगा। हृदय की परिपूर्णता सारे सुखों की मूल है। परमात्मा के प्रति एकता का ज्ञान हो जाने से, जीवन में एक दिव्यता आ जाती है और शरीराभिमान छूट जाता है।

शरीराभिमान मिथ्या है। मनुष्य शरीर नहीं आत्मा है, जो अनन्त आनन्द के आगार परमात्मा का शुद्ध अंश है। आत्म-स्वरूप के अज्ञान तथा अपने को शरीर मात्र मानने से सब प्रकार के पापों, दोषों तथा अनुचित व्यवहारों की स्थिति बनती है, स्वार्थ उत्पन्न होता है। यह सारी भावनायें मानवीय स्वरूप के प्रतिकूल हैं, अस्वाभाविक एवं अप्राकृतिक हैं। अन्य प्राणियों के प्रति अनात्म अथवा विरोधी भावना रखना ईश्वरीय नियम का उल्लंघन करना है। साधारण साँसारिक तथा सामाजिक नियमों का अतिक्रमण करने से जब समाज की व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है, संकट तथा आपत्तियों के बादल घिरने लगते हैं, तब ईश्वरीय नियम का विरोध कितने बड़े संकट उपस्थित कर देगा इसका अनुमान कठिन है। क्रोध, द्वेष, निन्दा, कुत्सा आदि की बुराई प्रस्तुत करते रहने से चारों ओर बुराई का ही प्रसार होगा जिसका हानिकारक प्रभाव क्या व्यक्ति और क्या समाज, क्या मन और क्या शरीर सभी पर पड़ेगा। एक ओर से क्रोध होने पर दूसरी ओर से भी क्रोध ही होगा, एक ओर से तलवार उठने पर दूसरी ओर उसी प्रकार की अनुरूप प्रतिक्रिया न हो यह सम्भव नहीं। जो दूसरों के लिये गड्ढा खोदेगा उसके लिए कुँआ तैयार ही रहेगा। यह क्रिया प्रतिक्रियाओं का सहज नियम है जो बदला नहीं जा सकता।

द्वेष-दुर्भाव की यह अनुरूपता मनुष्य के वास्तविक स्वरूप के अनुरूप नहीं है। उसका स्वरूप तो शुद्ध-बुद्ध तथा निरामय है। वह तो अनन्त-सत्ता का साझीदार है, संसार में उसका प्रतिनिधि है, उसका कृपापात्र है और सृष्टि में भरे प्रेम रस का आस्वादन करने के लिये भेजा गया है। आनन्द तथा शान्ति का अधिकारी बनाया गया है। उसके लिये यही शोभनीय है कि वह अपने सत्य स्वरूप का स्मरण करे और उसी के अनुरूप स्थिति प्राप्त करे। इस प्रकार शोक-संतापों अथवा द्वेष-दुर्भावों के कल्मष में पड़ा रहना उसके लिये लज्जा की बात है।

स्वार्थ ही सारे पाप-संतापों की जड़ है। स्वार्थी को अपने अतिरिक्त कोई दूसरा दीखता ही नहीं। उसका लोभ, उसकी तृष्णा इतनी विकराल होती है कि संसार का सारा सुख, वैभव पाकर भी संतुष्ट नहीं होती। दूसरों की उन्नति और उपलब्धियाँ उससे देखी नहीं जाती। उसकी यही इच्छा और यही प्रयास रहता है कि संसार में जो कुछ है वह सब उसे ही मिल जाये, किसी दूसरे को उसका एक अंश भी न मिले। वह संसार के सारे प्राणियों के प्रति निर्दय तथा अनुदार हो जाता है। उसे सब ओर अपने लोभ के अतिरिक्त और कुछ दिखलाई ही नहीं देता।

मनुष्य अपने सत्य स्वरूप की प्रतीति करे और निश्चय करे कि परमात्म तत्व के साथ उसकी एकता है। वही परमात्म तत्व जिस प्रकार हमारे भीतर से होकर बह रहा है उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी के अन्दर से प्रवाहित है। उस अनन्त चैतन्य से ओत-प्रोत सारे चेतन सजातीय हैं, उनके मूल रूप में कोई भेद नहीं है। ऐसा निश्चय हो जाने पर उसका अन्य भेद मिट जायेगा। सबके प्रति बंधुत्व अनुभव होने लगेगा और तब वह दूसरों के लिये अपने स्वार्थ का त्याग करने में सुख मानेगा, और उनकी सेवा करना अपना कर्त्तव्य। दूसरों का सुख-दुख उसका अपना बन जायेगा। ऐसी दशा में वह किसी को कष्ट देकर स्वयं क्यों दुखी होना चाहेगा। स्वार्थ का नाश होते ही उसके जीवन से सूनापन, नीरसता, संकीर्णता आदि कष्टप्रद अनुभव दूर हो जायेंगे और वह अपनी आत्मा में सरसता, व्यापकता तथा एक अनिवर्चनीय आनन्द की अनुभूति पाने लगेगा। उसको संसार के समस्त प्राणियों से अक्षय प्रेम का सम्बन्ध स्थापित करना उचित तथा आवश्यक लगेगा।

ज्यों-ज्यों मनुष्य इस सत्य का साक्षात्कार करता जायेगा कि जो परमात्मा-सत्ता विश्व का मूल है हम सब उसकी ही अंश कलायें हैं और प्रत्येक प्राणी के साथ सबकी एकता है, किसी में किसी प्रकार भेद नहीं है त्यों-त्यों उसका हृदय विश्व से परिपूर्ण होता जायेगा और उसके स्वार्थ की संकीर्ण सीमाएं खण्ड-खण्ड होती जायेंगी। मनुष्य के भीतर रहने वाला सब प्रकार का द्वेष और किसी के प्रति दूषित विचार दूर हो जायेंगे। उसका अन्तःकरण दर्पण की तरह निर्मल होकर प्रसन्न हो उठेगा। जो भी उसके सामने आयेगा उसमें वह अपनी आत्मा का ही दर्शन करेगा। उसे चारों ओर अपनत्व ही अपनत्व दिखाई देगा। ऐसी शुभ-स्थिति में फिर कष्ट, क्लेशों अथवा शोक-संतापों को कोई अवसर ही नहीं रह जाता।

संसार के शोक-संतापों से मुक्ति पाने के लिये मनुष्य को अपनी स्वार्थ तथा संकीर्ण सीमाओं को तोड़ कर अपने विशाल तथा विराट् स्वरूप की ओर अग्रसर होना ही चाहिये। हृदय में छिपे अनन्त प्रेम के भंडार को खोल देना चाहिये और अपने आत्म-भाव का प्रसार करना चाहिये। यह आत्म-भाव जितना-जितना विस्तृत होता जायेगा हम उतना-उतना ईश्वर के निकट पहुँचते जायेंगे और जितना-जितना ईश्वर के समीप बढ़ते जायेंगे आत्म-साक्षात्कार की अनुभूति होती जायेगी, प्रेम ही सारे सुखों का सार है। वही ईश्वर का सच्चा स्वरूप और आत्मा की भौतिक अनुभूति है। जैसे-जैसे हम अपने सत्य स्वरूप की प्रतीति करते जायेंगे वैसे-वैसे वह परमात्म स्वरूप प्रेम हमारे मन, बुद्धि, आत्मा तथा कर्मों में अधिकाधिक प्रकट होता जायेगा। हमारे अन्तःकरण को ओत-प्रोत कर जब वह अमृत संसार में चारों ओर बिखरने लगेगा, सब ओर सुख-शान्ति की परिस्थितियाँ निर्मित होने लगेंगी और यह संसार जो आज कुश-कंटकों से भरा मालूम होता है सुरक्षित वाटिका के समान सुखदायक हो जायेगा। और हमारा यह जीवन जो आज भार स्वरूप अनुभव होता है आनन्दों का केन्द्र बन जायेगा।

मनुष्य आनन्द स्वरूप है, कष्ट-क्लेशों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। दुःखों का मुख्य कारण आत्म विस्मरण ही है। अपने सत्य स्वरूप का बार-बार स्मरण करिये और इस सत्य का निरन्तर मनन करते रहिये- ‘‘अनन्त चैतन्य, निरामय, तत्व स्वरूप परमात्मा तथा मेरे जीवन में एकता है। वह परमात्मा ही मेरे जीवन का जीवन है। मैं उसी की तरह चैतन्य स्वरूप हूँ, मेरी प्रकृति दिव्य है, उसमें किसी विकार के लिये स्थान नहीं है। जो रोग-शोक तथा कष्ट, क्लेश अनुभव होते हैं वह सब देहाभिमान के कारण ही यह अभिमान किया है जिसे मैं त्याग रहा हूँ और अपने हृदय का द्वार उस अनन्त सत्ता की ओर खोलता हूँ जिससे उसकी प्रेमधारा मेरे जीवन में भरकर छलक उठे। सारे प्राणी, सारे जीव मेरे अपने बन्धु हैं। मेरा प्रेम उन सबको प्राप्त हो और सभी उसी प्रकार सुखी, निःस्वार्थी तथा निरामय बन जायें जिस प्रकार मैं बन रहा हूँ, -आपको आत्म-साक्षात्कार होगा, आपको अपना सत्य स्वरूप स्मरण होगा और तभी आप जीवन में क्षण-क्षण पर उस आनन्द का अनुभव करने लगेंगे जो वाँछनीय है और जीवन का परम लक्ष्य।

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