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Magazine - Year 1968 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अनुपयुक्त आकाँक्षाएँ और उनका असन्तोष

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असन्तोष जहाँ मानसिक दरिद्रता का चिह्न है वहाँ एक मानसिक सन्ताप भी है जो मनुष्य को निरन्तर गीली लकड़ी की तरह कष्ट के साथ जलाया करता है। असन्तोष की उत्पत्ति अभाव भावना से होती है। जो अभाव अनुभव किया करता है वह स्वाभाविक है कि अपने आपको गरीब समझे। उसे न होते हुये भी दूसरों के पास अपने से अधिक सम्पत्ति तथा सुख-साधन दीखते हैं। जिसके फलस्वरूप उसे ईर्ष्या तथा दीनता का भी भागी बनना पड़ता है। इस विकृति से मनुष्य का मानसिक पतन हो जाता है।

असन्तोष एक मानसिक सन्ताप तो है ही। असन्तुष्ट व्यक्ति कभी प्रसन्न नहीं रह पाता। खिन्न रहना उसका स्वभाव बन जाया करता है। वह हर समय अपने अन्दर रोष, क्षोभ तथा तनाव का अनुभव किया करता है। खिन्नता हर प्रकार के शोक-सन्तापों की जड़ है। इसको आश्रय देते ही सम्पूर्ण जीवन दुःखों का भण्डार बन जाता है। खिन्नता असन्तुष्ट मन की ही अभिव्यक्ति है। असन्तोष रखने से कुढ़न, कुण्ठा एवं विषाद के सिवाय कुछ भी तो हाथ नहीं लगता। मनुष्य का हित इसी में है कि वह असन्तोष को पास न फटकने दे। यह आशा, उत्साह तथा जीवन-तत्व का प्रबल शत्रु है। मन ही मन कुढ़ते-जलते और असन्तुष्ट रहने से काम करने की दक्षता तथा क्षमता दोनों नष्ट हो जाती हैं। किसी काम करने को जो नहीं चाहता और यदि कोई काम किया भी जाता है या करना पड़ता है तो उसकी बेगार ही टलती है। वह कुशलता नहीं आ पाती जो किसी काम को शोभा एवं सफलता कही जाती है। जीवन को सफल एवं शुभ बनाने के लिये असन्तोष का परित्याग बहुत आवश्यक है।

आज के इस संघर्ष पूर्ण जीवन में असन्तोष के बहुत से कारण बढ़ गये हैं। किन्तु मुख्य कारण प्रतियोगिता की प्रवृत्ति है। यों तो प्रतियोगिता की भावना बुरी चीज नहीं है। प्रतियोगिता अथवा प्रतिस्पर्धा मनुष्य को आगे बढ़ने में सहायक होती है, प्रेरणा देती है। मनुष्य यह सोचकर, कि मैं किसी से पीछे न रह जाऊँ, आगे बढ़ने, उन्नति और विकास करने के लिये जी-जान से जुट जाता है। वह किसी से पीछे न रहने के लिये हर सम्भव उपाय करता है।

किन्तु यही प्रेरणाप्रद गुण तब दोष बन जाता है जब अनावश्यक प्रतियोगिता की स्पर्धता पाल ली जाती है। उन वस्तुओं का पाने अथवा वह जीवन पद्धति अपनाने की हिर्स जिनकी न तो आवश्यकता और न अपने अनुकूल ही ऐसी स्पर्धा है, जिससे असन्तोष एवं अशान्ति के सिवाय कुछ लाभ नहीं होता। आज अधिकतर लोग इसी प्रकार फैशन, प्रदर्शन, विलास वस्तुओं तथा खर्चीले जीवन की स्पर्धा में ही लग गये हैं। इस माने में सुख-सुविधा संबंधी आज के वैज्ञानिक आविष्कार चपल बुद्धि वाले लोगों के लिये काफी अहितकर सिद्ध होते हैं।

यदि यही स्पर्धा, मितव्यय तथा सादी जिन्दगी अपनाने, अनावश्यकताओं को पास न आने देने जैसे गुणों के संबंध में रखी जायें तो, जहाँ जीवन में सुख, सन्तोष अथवा शान्ति का अभाव ही अभाव दिखलाई देता है, वहाँ फिर इनकी कमी न रहे। महापुरुषों ने सादा जीवन उच्च विचार का दर्शन जनता के सामने कुछ यों ही नहीं रख दिया है। इसमें कुछ हितकर तत्व भी सन्निहित हैं। और वह तत्व यही तो है कि इस जीवन दर्शन को अपनाने वाला कभी अभाव अथवा असन्तोष की भावना से पीड़ित नहीं होता।

असन्तोष उत्पन्न करने में अनावश्यक, अनुचित अथवा अयोग्य आकाँक्षाओं का बहुत हाथ रहता है। यदि मनुष्य इससे पीछा छुड़ा सके तो असन्तोष स्वयं ही उसे छोड़ कर चला जाये और जीवन में सर्वत्र सुख-शान्ति ही दिखलाई देने लगे। किन्तु खेद है कि मनुष्य इनके माया जाल में पड़ कर पथ भ्रष्ट हो जाता है और वह ही सबकुछ करता रहता है जो नहीं करना चाहिये और जो करना चाहिये उसी ओर ध्यान नहीं देता। सुख-सन्तोष के लिये करना तो यह मुनासिब है कि अयोग्य अथवा अनावश्यक आकांक्षाओं को खोज-खोज कर निकाल फेंके; किन्तु करता वह है कि उनकी तुष्टि के लिये मरता-खपता हुआ उन्हें डडडड बढ़ता रहता है।

आकाँक्षाओं के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। उनका जीवन में होना जरूरी है और कल्पनाशील डडडड से स्वाभाविक भी है। यदि मनुष्य के हृदय में आकाँक्षाओं का उदय होना सर्वथा स्थगित हो जाये तो जल्दी डडडड संसार की गतिशीलता, उन्नति एवं विकासशीलता डडडड भाव की ही अस्त हो जाये। आज संसार का जो विकसित एवं अग्रसर स्वरूप दिखाई देता है, वह बहुत डडडड व्यक्तियों की आकाँक्षा का ही तो परिणाम है। वैज्ञानिक, कवि, कलाकार, शिल्पी आदि जो भी संसार के आराधक माने जाते हैं, इनकी आकाँक्षा के फलस्वरूप ही डडडड यह सारा, साहित्य, संधान, सृजन एवं सौंदर्य दिखलाई डडडड है, जो इस बात की गवाही देता है कि मनुष्य जाति डडडड दिन अधिकाधिक उज्ज्वल भविष्य की ओर बढ़ती जा रही है। किसी वैज्ञानिक के मस्तिष्क में जब यह प्रश्न उठता है कि यह क्या है, कैसा है और कैसे जल रहा डडडड तब उसे जानने, उसकी खोज करने के लिये उसके डडडड में एक अभिलाषा जाग उठती है, जिसकी प्रेरणा से डडडड जीवन को कर्तव्यों में नियोजित कर संसार की सेवा डडडड रहस्यों तथा आश्चर्यों के द्वार खोल देता है।

इसी प्रकार कवि के हृदय में जब भावनाओं का डडडड होता है तब उन्हें व्यक्त करने के लिये वह आकाँक्षा डडडड हो उठता है जिसका परिपाक काव्य एवं साहित्य डडडड में समाज के सम्मुख आता है। विज्ञान, साहित्य डडडड अर्थ, सृजन, दर्शन, धर्म अथवा राजनीति, किसी डडडड क्षेत्र में जो कुछ अस्तित्व दृष्टि-गोचर होता है वह डडडड मनुष्यों की आकाँक्षाओं का ही परिणाम, उनकी डडडड की ही अभिव्यक्ति है, उसी का मूर्तिमान स्वरूप डडडड डडडड के अभाव में सृजन असम्भव है।

जो आकाँक्षा मनुष्य को महान सृजेता बना देती है डडडड उसे अशान्ति एवं असन्तोष में भी जलने के लिये डडडड देती है। एक ही प्रेरणा के इन विपरीत परिणामों डडडड कारण है- डडडड है आकांक्षाओं का स्वरूप। महत् आकाँक्षायें जहाँ मनुष्य को महान बना कर सुख-सन्तोष के स्वर्ग का स्वामी बना देती हैं, वहां निकृष्ट एवं विकृत आकांक्षायें उसे दुख दारिद्रय, अशाँति एवं असंतोष के नरक में ढकेल देती हैं।

भोग, विलास, शान शौकत, प्रदर्शन-प्रमाद, हिर्स तथा हविस आदि की अयोग्यता से दूषित आकाँक्षायें विकृत तथा निकृष्ट मानी गई हैं, और जिनमें संसार का हित, उच्च कर्तव्य, शिव-संकल्प तथा निस्वार्थ-भावना की प्रेरणा रहती है उनको महत् तथा महनीय कहा गया है।

महत् आकाँक्षाओं की प्रेरणा पर चलने वाले व्यक्ति अपनी जीवन पद्धति में उन चीजों को स्थान नहीं देते जो उनको अपने से बाँधकर रख सकतीं हैं। उसका सारा समय, सारा श्रम तथा जीवन तत्व अपना माँगलिक उद्देश्य पूरा करने में ही लगा रहता है। उनको यह अवकाश कहाँ रहता है कि वे अपने लिये, अपनी इन्द्रियों के लिये भोग-विलास की सामग्री इकट्ठी करते फिरें। उन्हें इतनी छूट कहाँ होती है कि वे जिस शरीर, जिस बुद्धि और जिस शक्ति के बलबूते पर महानता के उन्नत शिखर पर चढ़ने का संकल्प कर चुके हैं उसे प्रमाद की उपासना में नष्ट कर डालें। शारीरिक उपादानों के साथ जो जीवन मनुष्य को मिला है उसको चाहे निःसार मार्गों से नष्ट कर डालिये चाहे तो उसका समुचित दिशा में सदुपयोग करके परमार्थ के शिलाधार पर अपना स्थायित्व स्थापित कर जाये- इस द्विविध गति से सर्वथा परिचित होते हैं। उन्हें जरा भी यह दुर्बुद्धि नहीं होती कि जिस मानवजीवन से लोक एवं परलोक दोनों पर विजय प्राप्त की जा सकती है उसे नारकीय स्थिति में अथवा स्वयं नरक बना कर नष्ट कर डाला जाये इस प्रकार के उच्च-विचार तथा उच्च उद्देश्य रखने वाले महापुरुषों का अशान्ति अथवा असन्तोष सता सकता है- यह सम्भव नहीं। जो संसार से आवश्यकता भर लेकर एवं उसका भंडार भर देने की भावना रखते हों ऐसे उदार एवं उच्चमना व्यक्तियों के समीप दुःख, दारिद्रय अथवा लोभ, लिप्सा की छाया भी तो आने का साहस नहीं करेगी।

जिसके पास इन्द्रियों और अहं की तृप्ति के सिवाय कोई अभिलाषा ही नहीं है, स्वार्थ एवं सुख लिप्सा के डडडड कोई विचार ही नहीं है उसका सुखी तथा सन्तुष्ट डडडड किस प्रकार सम्भव हो सकता है? स्वार्थ पूर्ण एक डडडड की पूर्ति चार नई आकाँक्षाओं को जन्म दे देती डडडड जब तक उनमें से एक-दो पूर्ति का जोड़-तोड़ किया डडडड है कि तब तक अनेक और खड़ी हो जाती हैं। भोग डडडड इच्छाओं का न कभी अन्त होता है और न उनकी डडडड तृप्ति ही। ऐसा कदापि सम्भव नहीं कि आज यदि डडडड देखने अथवा किसी वस्तु के उपयोग की इच्छा डडडड कर दी गई तो वह अब भविष्य में फिर नहीं उठेगी। डडडड का तो यह स्वभाव ही होता है कि ज्यों-ज्यों डडडड पूर्ति की जाती है त्यों-त्यों वे अधिक जल्दी और डडडड उठकर खड़ी होने लगती हैं। इस प्रकार डडडड में फंसा हुआ व्यक्ति कभी भी सुखी अथवा डडडड नहीं हो पाता। इच्छाओं की तृष्णा एवं बाहुल्य डडडड में साधन की सर्वदा कमी ही रहती है।

डडडड एकबार यह भी कल्पना करली जाये कि किसी डडडड पास संसार के सारे साधन, सारी संपत्तियां और डडडड उपभोग, उपकरण आ जाते हैं और उसकी कितनी डडडड भी इच्छाओं की पूर्ति के लिये पर्याप्त होते हैं, तब भी तो भोगों की अधिकता के कारण या तो वह स्वयं शिथिल हो जायेगा अथवा उसे जीवन तथा संसार से इस अतिशयता के कारण अरुचि हो जायेगी। उसके लिये न तो कोई नवीनता रहेगी और न आकर्षण। तब इस प्रकार का निस्सार, निर्जीव तथा निरुद्देश्य जीवन उसके लिये कितनी असह्य बन जायेगा, इसका अनुमान लगा सकना सम्भव नहीं।

आकाँक्षायें, स्वाभाविक हैं- ठीक हैं- तथापि जीवन में सुख-सन्तोष की रक्षा के लिये उन्हीं आकाँक्षाओं को प्रश्रय देना चाहिये जो महान एवं उपकारी हों। स्वार्थपूर्ण निकृष्ट आकांक्षाएं, सुख-सन्तोष की प्रबल शत्रु हैं। यदि परिस्थिति अथवा क्षमताएँ किन्हीं महत्वकाँक्षाओं के योग्य नहीं है, तब भी तो अयोग्य एवं अनावश्यक आकाँक्षाओं से पीछा छुड़ाकर सुख शान्ति पूर्वक सादा एवं सरल जीवनयापन किया जा सकता है। यदि महत्वकाँक्षाओं को धारण नहीं किया जा सकता तो ऐसी आकाँक्षाओं को छोड़ा तो जा ही सकता है जिनकी तुष्टि सम्भव नहीं हो सकती।

सन्त रैदास का जीवन बड़े अभाव में व्यतीत हो रहा था। एक दिन एक धनी व्यक्ति उनके पास आये और आर्थिक सहायता लेने का आग्रह करने लगे।

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