• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • जीवन की महत्ता समझें और उसका सदुपयोग करें
    • परमेश्वर के साथ अनन्य एकता का राजमार्ग
    • Quotation
    • उपासना- अन्तःकरण की गहराई से
    • Quotation
    • आत्म-ज्ञान बिना कल्याण नहीं
    • Quotation
    • समस्त शक्तियों का भंडार- हमारा मन
    • उल्लेखनीय सफलता
    • उत्कृष्ट जीवन के चार चरण
    • Quotation
    • कहीं से भी आनन्द खोज निकालने की कला
    • सेवा स्वीकार करें
    • अनुपयुक्त आकाँक्षाएँ और उनका असन्तोष
    • सन्त-रैदास की परिश्रमशीलता
    • हमें संकटों का भी सामना करना होगा
    • Quotation
    • सबकी उन्नति में अपनी उन्नति
    • मिस शारलोट
    • सद्-गृहस्थ और असद्-गृहस्थ का अन्तर
    • Quotation
    • भारतीय वेषभूषा और वस्त्र धारण
    • सधन्यवाद वापस
    • सौंदर्य की स्वाभाविकता और उसका आधार
    • आत्मा से आवाज फूटी
    • अपनों से अपनी बात-
    • VigyapanSuchana
    • नवनिर्माण का प्रेरणाप्रद साहित्य
    • ऐसी बात नहीं
    • ऐसी बात नहीं (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • जीवन की महत्ता समझें और उसका सदुपयोग करें
    • परमेश्वर के साथ अनन्य एकता का राजमार्ग
    • Quotation
    • उपासना- अन्तःकरण की गहराई से
    • Quotation
    • आत्म-ज्ञान बिना कल्याण नहीं
    • Quotation
    • समस्त शक्तियों का भंडार- हमारा मन
    • उल्लेखनीय सफलता
    • उत्कृष्ट जीवन के चार चरण
    • Quotation
    • कहीं से भी आनन्द खोज निकालने की कला
    • सेवा स्वीकार करें
    • अनुपयुक्त आकाँक्षाएँ और उनका असन्तोष
    • सन्त-रैदास की परिश्रमशीलता
    • हमें संकटों का भी सामना करना होगा
    • Quotation
    • सबकी उन्नति में अपनी उन्नति
    • मिस शारलोट
    • सद्-गृहस्थ और असद्-गृहस्थ का अन्तर
    • Quotation
    • भारतीय वेषभूषा और वस्त्र धारण
    • सधन्यवाद वापस
    • सौंदर्य की स्वाभाविकता और उसका आधार
    • आत्मा से आवाज फूटी
    • अपनों से अपनी बात-
    • VigyapanSuchana
    • नवनिर्माण का प्रेरणाप्रद साहित्य
    • ऐसी बात नहीं
    • ऐसी बात नहीं (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1968 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


सद्-गृहस्थ और असद्-गृहस्थ का अन्तर

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 19 21 Last
अधिकाँश लोग गृहस्थ होते हैं। साधु, संन्यासी तथा त्यागी-विरागी तो विरले ही हो पाते हैं। गृहस्थ होना जहाँ अपने लिये एक सुख-सुविधा की बात है वहाँ सृष्टि का यह चक्र भी गृहस्थ जीवन पर चलता है। समाज की रचना और सभ्यताओं का उदय भी गृहस्थ जीवन पर निर्भर है। भारतीय संस्कृति में जिन चार आश्रमों की व्यवस्था की गई है उनमें गृहस्थ जीवन को न केवल सर्वोपरि बतलाया है बल्कि अन्य तीन आश्रमों का आधार भी घोषित किया गया है। सदाचारी गृहस्थ को तपस्वी के समान आदरणीय माना जाता रहा है।

इसका कारण भी कोई बड़ा रहस्य नहीं हैं। सीधी-सी बात है कि गृही व्यक्ति परिवार बसाता है। विवाह करता और सन्तानों की सृष्टि कर प्रजा की वृद्धि करता, और साथ ही उनके विकास तथा भरण-पोषण के लिये कठोर श्रम रूपी तपस्या किया करता है। सच्चा गृही, कर्तव्य निष्ठा से एक नारी को शिरोधार्य करता उसे फलवती बनाता और जीवन यात्रा में सहयोग करता है। यदि कोई बुद्धिमान गृहस्थ इस दायित्व की निस्पृह भाव से ग्रहण कर ईश्वरीय आज्ञा की तरह पालन करता है तो निश्चय ही वह गृहवासी होते हुए भी संन्यासी और भोगी होते हुये भी योगी है। गृही और गृहस्थाश्रम की बड़ी महिमा है।

जीवन-यापन की विशेष पद्धति, जिसे सभ्यता, संस्कृति भी कह सकते हैं, कि आवश्यकता भी गृहस्थ को अधिक होती है। वह ही इसको स्थिर भी करता है और रक्षा भी। गृहस्थों की दशा से ही किसी देश अथवा समाज की दशा का अनुमान लगता है। यह अधिकतर गृहस्थ ही होते हैं जो व्यापार, व्यवसाय एवं उद्योग को प्रश्रय देकर समाज का आर्थिक ढाँचा तैयार करते हैं। गृहस्थ ही अपने तथा अपने परिवार के रहने के बहाने आवासीय व्यवस्था का विकास अग्रसर करते हैं। संसार का शिल्प, साहित्य, कला तथा कौशल आदि सारा वैभव गृहस्थ के कारण और अधिकतर उन्हीं के लिये होता है। समाज का विकास और संसार की शोभा गृहस्थ पर ही अवलंबित है। हम में से अधिकतर गृहस्थ हैं और उसकी गरिमा, गौरव के अधिकारी भी।

‘‘गृहस्थ्येव हि धर्माणांसर्वेषांमूलमुच्यते’’ तथा ‘‘धन्यों गृहस्थाश्रमः’’ -कह कर ऋषियों ने गृहस्थ जीवन की गरिमा स्थापित की है। किन्तु उन्होंने यह व्यवस्था दी उन्हीं गृहस्थों के लिये जो सदाचार पूर्वक इसे धर्म, कर्तव्य समझ कर पालन किया करते हैं। असद्गृहस्थों के लिये इस प्रकार व्यवस्था दी भी कैसे जा सकती है। असद्गृही तो समाज का शत्रु माना गया है। समाज में जो भी अशान्ति, असन्तोष तथा संघर्ष दिखाई देता है उसका मूल कारण असद्गृहस्थ ही हुआ करते हैं।

विवाह सद्गृहस्थ भी करता है और असद्गृहस्थ भी। अन्तर यह है कि जहाँ सद्गृहस्थ के दाम्पत्य सूत्र का उद्देश्य सृष्टि-संचालन तथा प्रजा-पालन होता है, वहाँ असद्गृहस्थ का उद्देश्य इन्द्रिय भोग रहता है। जहाँ सद्गृहस्थ अपने परिवार की सहायता से परमार्थरत होकर अर्थ, काम, मोक्ष के लिये प्रयत्नशील होता है वहाँ असद्गृहस्थ परिवार और बाल-बच्चों के बहाने स्वार्थरत होकर लोक-परलोक का पतन किया करता है। सद्गृहस्थ की सन्तानें स्वभावतः शिष्ट एवं शालीन होकर समाज में सुख-शान्ति की वृद्धि का कारण सिद्ध होती हैं। इसका कारण है। यह यों ही निसर्ग-भाव से नहीं हो जाता। सद्गृहस्थ संतानोत्पत्ति का प्रयोजन जानता है। वह नैतिक एवं आध्यात्मिक उद्देश्य से प्रेरित होकर समाज को एक सुन्दर तथा हितकारी सन्तान रूप में उपहार देने के विचार से गृहस्थ जीवन में प्रवृत्त होता है। विवाह उसके लिये काम-क्रीड़ा अथवा इन्द्रिय भोग का साधन न होकर एक धार्मिक कर्तव्य होता है। वह उसकी पवित्रता तथा गरिमा को काम-कौतुक की प्रणालियों में यों ही व्यर्थ नहीं बहा देता।

गृहस्थ जीवन का पुण्य उसकी महिमा तभी है जब सद्गृहस्थ बनकर अपने कर्तव्य का सर्वतोमुखी पालन किया जाये। अन्यथा गृहस्थ जीवन से अधिक कष्टदायक, लोक-परलोक को नष्ट करने वाली अन्य कोई स्थिति नहीं होती है। सद्-गृहस्थ ही वास्तव में गृहस्थ और समाज का हितैषी होता है, बाकी के सारे पारिवारिक अपने नरक के शिल्पी हुआ करते हैं, जो परिजनों की सहायता से उसका निर्माण करने में लगे रहते हैं। इसलिये हर गृही का कर्तव्य है कि वह सद्गृहस्थ बने, उसके सारे सात्विक सुख भोगे और परिणाम स्वरूप परलोक एवं परमगति का अधिकारी बने। वह अपना जीवन इस प्रकार पवित्रता पूर्वक यापन करे जिससे कि वह अपने गृहस्थ और गृहस्थ उसके लिए वरदान रूप सिद्ध होकर सार्थक बने।

सद्-गृहस्थ का पहला कर्तव्य तो यह है कि अपने परिवार में कलह का प्रवेश न होने दे। इस बुराई का प्रवेश तब ही होता है जब घर के सारे सदस्यों के बीच पारिवारिकता तथा परस्परता का अभाव रहता है। हर व्यक्ति निरंकुश रूप से, मनमाने ढंग से रहता और मनमाने ढंग से बर्ताव करना चाहता है। यह अप्रिय स्थिति तब उत्पन्न होती है जब परिजनों के बीच स्वार्थ भाव की प्रधानता हो जाती है। स्वार्थपरता के दो-तीन मुख्य कारण होते हैं। एक तो स्पष्ट अभाव, दूसरा अधिक सम्पन्नता और तीसरा विषम व्यवहार। जो गृहस्थ, आलसी, अकर्मण्य तथा कामचोर होते हैं, वे निश्चय ही उतना उपार्जन नहीं कर पाते जितने की आवश्यकता होती है। फल यह होता है कि जो कुछ थोड़ा बहुत घर में आ पाता है उसमें से अपनी आवश्यकता पूर्ति करने के लिये हर सदस्य अधिक से अधिक चाहने और पाने का प्रयत्न किया करता है। इस छीना-झपटी में स्वार्थ-परता को प्रश्रय मिलना स्वाभाविक ही है। इसको किसी प्रकार भी नहीं रोका जा सकता।

अधिक सम्पन्नता होने अथवा आवश्यकता से अधिक आय की स्थिति में भी सदस्य स्वार्थ-परायण हो जाते हैं। अधिकता के कारण हर सदस्य अपने लिये मनमाना भाग चाहने लगता है। विलासिता, व्यसन तथा फैशन परस्ती बढ़ जाती है, आलस्य, अहंकार तथा अकर्मण्यता घर बना लेती है। सब कोई एक-दूसरे पर हुक्म चलाने और अपनी प्रधानता के लिये प्रयत्नशील हो उठता है। एक-दूसरे की हिर्स तथा स्पर्धा उनका स्वभाव बन जाता है। ऐसी अस्त-व्यस्त तथा अव्यवस्थित दशा में स्वार्थ-परता तथा कलह-परायणता की वृद्धि हो जानी स्वाभाविक ही है।

परिवार में एक-दूसरे सदस्यों द्वारा और विशेषतया परिवार प्रमुख द्वारा किसी एक सदस्य को मुख्यता देना उस पर अधिक व्यय करना अथवा अधिक स्नेह रखना और दूसरों के प्रति उदासीनता अथवा उपेक्षा का भाव रखना, उनमें ईर्ष्या द्वेष की वृद्धि करने लगता है। ऊपर से भले ही सारे सदस्य एक सूत्र में आबद्ध दीखते रहें किन्तु अन्दर ही अन्दर वे विश्रृंखल होकर एक-दूसरे से फूट जाते हैं इस प्रकार की विश्रृंखल स्थिति में पारिवारिक शान्ति तथा प्रसन्नता का रह सकना कठिन है।

इस सत्य को दृष्टिगत रखते हुये सद्-गृहस्थ आलस अथवा अकर्मण्यता को कभी प्रश्रय नहीं देते। वे परिवार को अभाव के प्रभाव से बचाये रखने के लिये अधिक से अधिक परिश्रम करते और पसीना बहाते हैं। वे परिवार का अभाव दूर करने के लिये अपनी सीमा में कोई भी प्रयत्न उठा नहीं रखते।

परिश्रमी गृहस्थों के पास आवश्यकता से कुछ अधिक पैसा हो जाना कोई आश्चर्य नहीं। ऐसी स्थिति में वे सबके सब सदस्यों के सम्मुख लूटने-उड़ाने के लिये ढेर नहीं लगने देते। वे उनको उतना ही देते हैं जिससे उनकी आवश्यकता सरलतापूर्वक पूरी हो सके और वे अनुभाव की अनुभूति कर सकें। शेष आय उनके आगे के लिये, भविष्य के लिये सुरक्षित रखते अथवा ऐसे उद्योगों में लगा देते हैं जिस पूँजी सुरक्षित भी रहे और कुछ लोगों को आजीविका का भी साधन भी बन जाये साथ ही वे अपनी बचत का कुछ भाग धार्मिक तथा सामाजिक सेवा में भी व्यय करते जिससे परिवार के सदस्यों पर शुभ संस्कार पड़ें, लोगों की डडडड में उनका सम्मान बढ़े और इस प्रकार परिवार के सदस्य की गरिमा के भाव से बुराइयों तथा अनुत्तरदायित्व पूर्ण कामों से बचे रहें।

सद्-गृहस्थ अपने परिवार के सदस्यों के बीच असमानता का व्यवहार नहीं करते। एक तो गुणी होने से उनमें समभाव यों भी बना रहता है दूसरे पारिवारिक शान्ति के लिये वे वैसा करने से यों भी बचते रहते हैं। वे पहनाने, खिलाने तथा अन्य सुविधा-साधन देने में न्यायनिष्ठ ही रहा करते हैं। जिसकी जो आवश्यकता तथा स्थिति होती है उसी के अनुसार उस पर खर्च करते और ध्यान देते हैं। किन्तु भोजन एवं वस्त्र के विषय में वे सब को एक बराबर ही रखते हैं। वे वस्त्रों तथा भोजन का ऐसा माध्यमिक स्तर स्थिर कर देते हैं जो उपयोगी, भद्र तथा सदा निभ सकने वाला हो। इसके लिये न तो वे स्वयं फैशनेबुल बनते हैं और न किसी दूसरे सदस्य को इसकी छुट देते हैं। वे अपने एम. ए. में पढ़ने वाले लड़के के लिये उसके डडडड व्यय के अनुसार दूसरों की अपेक्षा अधिक खर्च तो कर सकते हैं किन्तु खाने-पीने के सम्बन्ध में उसका स्तर अनावश्यक रूप से बढ़ने नहीं देते। इस प्रकार वे समभाव तथा नियमन के आधार पर अपने परिवार को कलह क्लेश के नारकीय वातावरण से सुरक्षित किये रहते हैं।

सद्-गृहस्थ शिष्टाचार को बहुत महत्व देते हैं। वे न तो स्वयं घर में अथवा बाहर किसी से अशिष्ट व्यवहार करते हैं और न अपने परिजनों को ऐसा करने देते हैं। वे स्वयं अनुशासित रहकर दूसरों को भी मर्यादित रहने के लिये विवश करते हैं। शिष्टाचार को सभ्यता का लक्षण मानने वाले सद्-गृहस्थ बच्चों तक से मधुर तथा आदरपूर्ण भंगिमा तथा भाषा में बोलते, बात करते हैं तब दाम्पत्य मर्यादा का उनसे उल्लंघन हो ही किस प्रकार सकता है? शील, संकोच, शालीनता तथा शीलता उनके स्वभाव के अलंकार हुआ करते हैं।

सद्-गृहस्थ शिक्षा को जीवन में सर्वोपरि स्थान देते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि यदि उनका परिवार अशिक्षा के अंधकार में पड़ा रहा तो लाख प्रयत्न करने पर भी सदस्यों में सद्गुणों का विकास नहीं किया जा सकता। अशिक्षित तथा अपढ़ व्यक्तियों पर सदाशयता के सारे प्रयत्न विफल चले जाते हैं। इसलिए वे हर मूल्य पर बच्चों तथा यथा सम्भव प्रौढ़ सदस्यों को शिक्षित एवं साक्षर बनाने के प्रयत्न से कभी विरत नहीं होते। यदि वे सबके लिये पाठशाला का प्रबन्ध नहीं कर सकते तो शेष सदस्यों को नित्य की पारिवारिक गोष्ठी में सद्शिक्षा एवं सद्ग्रन्थों द्वारा बौद्धिक शिक्षण दिया करते हैं। यदि वे उन्हें साक्षर नहीं बना पाते तो विचारवान् तो बना ही देते हैं।

सद्-गृहस्थ नियोजित परिवार में अखण्ड विश्वास रखते हैं। वे अपनी, समाज की तथा राष्ट्र की स्थिति के अनुसार उतने बच्चों में ही संतुष्ट हो जाते हैं जिनको शिक्षित, दीक्षित करके सभ्य तथा सफल नागरिक बना सकें। वे आवारा, निकम्मे, अपढ़ तथा अपराधी बच्चों की श्रृंखला बढ़ा कर अपराध नहीं करते। स्थिति के अनुसार दो या तीन बच्चों के बाद विराम लगाकर शेष जीवन संयम तथा ब्रह्मचर्य पूर्वक बच्चों का समुचित विकास करने तथा आत्मोद्धार के लिये लगाकर सदा सर्वदा के लिये सुखी तथा सन्तुष्ट हो जाया करते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि अधिक सन्तानों में अधिकाँश अविकसित, अशिक्षित तथा असभ्य ही रह जाती हैं। ऐसी सन्तानें जीवन के लिये कितना बड़ा अभिशाप सिद्ध होती हैं इसका प्रमाण अनियन्त्रित एवं असद्-गृहस्थों की दशा देखकर पाया जा सकता है।

गृहस्थ जीवन सर्वोपरि जीवन है, किन्तु कब तक? जब तक सद्-गृहस्थ बन कर पारिवारिक शान्ति, शिष्टाचार, शिक्षित परिवार नियोजन तथा बाल-विकास की शर्तों को पूरा करते हुये पारमार्थिक जीवन-यापन किया जाये और दाम्पत्य जीवन को भोग का माध्यम नहीं एक धार्मिक तथा आध्यात्मिक कर्तव्य समझकर निभाया जाये।

First 19 21 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • जीवन की महत्ता समझें और उसका सदुपयोग करें
  • परमेश्वर के साथ अनन्य एकता का राजमार्ग
  • Quotation
  • उपासना- अन्तःकरण की गहराई से
  • Quotation
  • आत्म-ज्ञान बिना कल्याण नहीं
  • Quotation
  • समस्त शक्तियों का भंडार- हमारा मन
  • उल्लेखनीय सफलता
  • उत्कृष्ट जीवन के चार चरण
  • Quotation
  • कहीं से भी आनन्द खोज निकालने की कला
  • सेवा स्वीकार करें
  • अनुपयुक्त आकाँक्षाएँ और उनका असन्तोष
  • सन्त-रैदास की परिश्रमशीलता
  • हमें संकटों का भी सामना करना होगा
  • Quotation
  • सबकी उन्नति में अपनी उन्नति
  • मिस शारलोट
  • सद्-गृहस्थ और असद्-गृहस्थ का अन्तर
  • Quotation
  • भारतीय वेषभूषा और वस्त्र धारण
  • सधन्यवाद वापस
  • सौंदर्य की स्वाभाविकता और उसका आधार
  • आत्मा से आवाज फूटी
  • अपनों से अपनी बात-
  • VigyapanSuchana
  • नवनिर्माण का प्रेरणाप्रद साहित्य
  • ऐसी बात नहीं
  • ऐसी बात नहीं (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj