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Magazine - Year 1971 - Version 2

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पत्थर की मूर्ति में भगवान के दर्शन

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मनुष्य शरीर अपने आप में एक परिपूर्ण मशीन है, जिसे विधाता ने बड़ी लगन से, मनोयोग से बनाया है। जब सारे जीव जगत पर हम दृष्टि दौड़ाते हैं तो यह निष्कर्ष निकलता है कि मानवी काया के निर्माण में प्रकृति ने जो बुद्धि कौशल खर्च किया, श्रम किया है, उतना किसी अन्य जीवधारी के लिए नहीं किया। यों तो प्राणियों की दुनिया में कमी नहीं है। आकार, अण्डों की संरचना, प्रकृति के आधार पर अदृश्य जीवाणु से लेकर हाथी जैसे विशाल प्राणी तक करीब चौरासी लाख से भी अधिक प्रकार के जन्तु इस सृष्टि में है। एक से एक विचित्र आकृति, स्वभाव के प्राणी है। ऑक्टोपस भी यहाँ है एक दरियाई घोड़ा भी। पर जब दृष्टि को विस्तार देते हैं तो पता चलता है कि प्रकृति ने मानवेत्तर जीवों को विलक्षण तो अवश्य बनाया है, पर उन्हें मनुष्य की तरह का ऐश्वर्य प्रदान नहीं किया। किसी तरह बेचारे अपनी तुच्छ इच्छाएँ पुरी करते हुए जीवनलीला को समाप्त करते हैं। उनका सारा जीवन आत्मरक्षा, क्षुधा तुष्टि एवं वंश विस्तार में ही खप जाता है।

योगवशिष्ठ में जीवों की इसी स्थिति की ओर ग्रन्थकार संकेत करता है-

अनारतं प्रतिदिशं देशे-देशे जले स्थले। जायन्ते वा म्रियन्ते वा बुदबुदा इववारिणी॥

अर्थात्-जैसे जल के ऊपर बुलबुले उठते हैं और नष्ट होते रहता है, वैसे ही प्रत्येक देश और काल में अनन्त जीव उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं।

वस्तुतः आत्मज्ञान जैसी कोई भी वस्तु जीवों के लिए निरर्थक है। इसी कारण मानव शरीर के अन्दर जब उन असंख्य विशेषताओं की झाँकी देखने को मिलती है जो अन्य जीवों के शरीरों में पाई नहीं जाती, तो लगता है भगवान ने मनुष्य को वस्तुतः किसी विशिष्ट उद्देश्य से ही बनाया होगा।

विशिष्टता मानवी काया के रोम-रोम में छिपी पड़ी है। आत्मिक गरिमा पर चिन्तन वाद के लिए भी छोड़ दें और मात्र काय संरचना ओर विभिन्न अंगों की सुव्यवस्था सहकार पर विचार करें तो इस क्षेत्र में भी सब कुछ अद्भुत दिखाई पड़ सकता है। लगता है यह रचनाकार का हँसी-मजाक अथवा मात्र संयोग नहीं है। बल्कि सब कुछ सोद्देश्य ही है।

मानव शरीर की आधारभूत इकाई है-जीवकोश (बायोलॉजिकल सेल)। शरीर में साठ अरब के लगभग कोशिकाएं है। प्रत्येक कोष हजारों पावर स्टेशन, परिवहन संस्थान एवं संचार संस्थान की मिली-जुली व्यवस्था के रूप में एक सुसंचालित बड़ा शहर है। यहाँ कच्चा माल आयातित होता है, नया माल तैयार किया जाता है तथा अवशिष्ट मल पदार्थों को निकाल फेंकने की गतिविधियाँ भी सम्पादित होती हैं। एक समर्थ अनुशासनपूर्ण प्रशासन की झाँकी इस ईकाई के प्रतिफल के जीवन व्यापार में देखने को मिलती है।

जीवकोश कितने सूक्ष्म होते हैं, इसका यदि अनुमान लगाना चाहें तो इस तथ्य से लगा सकते हैं कि एक करोड़ सेल्स आराम से एक पिन के सिरे पर बैठ सकते हैं। इनके थोड़े बहुत स्थूल घटकों की झाँकी ही सूक्ष्मदर्शी यंत्र से हो सकती है। यदि और भी विस्तार से देखना हो तो इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप का आश्रय लेना होगा जो दृश्य को लाखों गुना विस्तार दे देता है। कोष (सेल) की तुलना में सारे शरीर पर दृष्टिपात करें तो वह किसी सौर-मण्डल या ब्रह्माण्ड से कम विलक्षण ओर विराट् नहीं लगेगा।

मात्र आँख की ही बात करें जो ज्ञात होता है कि प्रकाश देखने में सहायता करने वाले राँड सेल्स की संख्या 25 करोड़ है जिनमें 30 करोड़ से भी अधिक प्रकाश पकड़ने वाले सूक्ष्म रंगीन कण होते हैं। इन कणों की क्षमता का अनुमान इस बात से करना चाहिये कि 3 घंटे में दिखाई देने वाली फिल्म की लम्बाई यदि दस हजार मील से लम्बी हो यह आंखें 50 हजार मील प्रति दिन के दृश्य मस्तिष्क को भेज सकती हैं यही नहीं उनमें से अनेकों दृश्यों को आजीवन स्मृति कणों में सुरक्षित भी रख सकती है।

एकोऽहम् बहुस्यामी की झाँकी विराट् के इस लघु संस्करण में करनी हो तो एक कोष को देखा जा सकता है जिसे ओवम या डिम्ब कोष दो में बटे फिर चार में, इस तरह अनेकों में विभाजित होते चले जाते हैं जब तक कि दो अरब कोशिकाएं तैयार नहीं हो जातीं, इन समस्त कोशिकाओं व उनमें निहित गुण सूत्रों द्वारा ही एक नये जीवन का, नवजात शिशु का स्वरूप निर्धारित होता है।

हर जीवकोष में साइटोप्लाज्म जैसी एक बड़ी झील होती है जिसमें विभिन्न शक्ति केन्द्र तैरते रहते हैं। सतत् इसमें हलचल होती रहती है। माइटोकाण्ड्रिया, वैक्योल्स, एण्डोप्लाज्मिक रेटीकुलम गाल्गीलाँडिज जैसी महाशक्तियाँ इस झील में ही अवस्थित होती है। नाभिक (न्यूक्लियस) एवं उसके अन्दर की दुनिया अपने आप में एक पूरी सृष्टि है। माता-पिता से बच्चे में स्थानान्तरित होने वाली सूचनाओं के मूल में चमत्कारी शक्ति होती है, उसे डिसॉक्सी राइबो न्यूक्लिक एसिड (डी0एन0ए0) कहते हैं जो नाभिक में पाये जाने वाले गुण सूत्रों (क्रोमोसोम्स) का घटक होते हैं। इसे वास्तु शिल्पज्ञ, डिजाइनर या आर्कीटेक्ट कह सकते हैं जो कोषीय अवयवों को यक बताता है कि कैसा व्यवहार करना, क्या बनाना, क्या स्वीकार करना व किसे नकार देना ? पर बिल्डिंग कांट्रेक्टर की भूमिका आर.एन.ए. (राइबो न्यूक्लिक एसिड) निभाता है। सैकड़ों विभिन्न प्रकार के प्रोटीन घटकों के निर्माण का डिजाइन (ब्लू प्रिण्ट) डी.एन.ए. की केंचुली में छिपा होता है। यहाँ से एक तीसरा ही व्यक्ति मेसेन्जर आर.एन.ए. सन्देश लेकर जाता है। ए.आर.ए. को निर्देश देता है। इन सन्देशों के अनुसार ही यथा निर्देश पैर की माँसपेशियों या हृदय की माँसपेशियों के कोष बनते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि आँख में बैठे रॉड सेल्स के डी.एन.ए. में भी वे सारी सूचनाएँ होती है जो नवजात शिशु के सर्वांगपूर्ण निर्माण के लिये जरूरी है। परन्तु डी.एन.ए. के इन सूचनाओं वाले भाग (टैम्पलेट्स) को प्रकृति ने बड़ी सावधानी से ब्लॉक कर रखा है। केवल वही भाग डी.एन.ए. का सक्रिय रहता है जहाँ से उसका सम्बन्ध है।

लगता है परमात्मा ने मानव शरीर को खूब मन से रुचि ले लेकर बनाया है। एक ही घटक पर उसने अपनी सारी कला झोंक दी है। बात जीवकोषों की ही चल रही है। यदि थोड़ा और सूक्ष्म दृष्टि से इसकी बाहरी परत हो देखें तो लगता है ऐसा जिम्मेदार, जागरुक चौकीदार और कहीं नहीं। यह झिल्ली मात्र 0.0000001 मिली मीटर मोटी होती है। अन्दर यह किसी भी अपरिचित को नहीं जाने देती। नमक, कार्बनिक पदार्थ, जल विभिन्न खनिज एवं रसायन बिना सही निर्देश के, अपना कोर्डवर्ड इसे बताये अन्दर नहीं जा सकते। इन्हें अपने-पराये, आवश्यक व अनावश्यक की पहचान भी है। यह स्मृति इतनी तीक्ष्ण होती है कि कोई भी सजातीय कभी भी अवहेलना का शिकार नहीं होता। मान लीजिये यह गुण इनमें न हो एवं बाल बनाने के लिए उत्तरदायी गुण वाले तत्व आँख में प्रवेश कर जायें। नतीजा यह होगा कि आँख के अन्दर से बाल निकलने लगेंगे। आँख की पलकों से लीवर के कोष पैदा हो सकते हैं। पर यहाँ सब कुछ व्यवस्थित सन्तुलित है। कहीं कोई व्यक्तिक्रम नहीं है।

प्रति सेकेंड लाखों कोष मरते हैं- लाखों नये जन्म लेते हैं। यह तथ्य जीवन यात्रा के सतत् प्रवाह को ही सत्यापित करता है। यदि चमड़ी के सेल्स प्रति दस घण्टों में नये होते रहते हैं जो दूसरी ओर अपवाद स्वरूप मस्तिष्क भी है जहाँ टूटे-फूटे सेल्स मरते रहते हैं, पर कभी नयों से बदले नहीं जाते हैं।

जीवकोषों का पावर स्टेशन है माइटोकाण्ड्रिया। अति सूक्ष्म, आकार की ये इकाइयां ईंधन (शकर) को जलाकर ऊर्जा उत्पन्न करती हैं एवं अवशिष्ट राख को छोड़ देती हैं जो कार्बनडाइ आक्साइड एवं पानी के रूप में होती हैं। इस जटिल रासायनिक प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप एडिनोसिन ट्राइफास्फेट (एटीपी) उत्पन्न होता है जो कि सार्वभौम ऊर्जा स्त्रोत है। हर गतिविधि यहाँ तक कि पलक झपकाने, छाती के फूलने, हृदय धड़कने में ऊर्जा की आवश्यकता है। मस्तिष्क में निद्रा की स्थिति में भी ऊर्जा की आवश्यकता है। स्वप्न बिना एटीपी के उत्सर्जित हुए नहीं देखे जा सकते। अपवाद रूप में केवल एक ही प्रकार के सेल्स से हैं, जिनमें यह व्यवस्था नहीं होती। शरीर में सतत् घूम रहे 5 लाख की संख्या के ये रक्त के लाल कण परिव्राजक धर्म पूरी जिम्मेदारी से निभाते हैं। सम्भवतः इसी कारण प्रकृति ने स्वयं के उत्पादन के झंझटों से इन्हें छुट्टी दे रखी है।

जीवकोषों का यह समग्र संसार अपने आप में पूरी एक सृष्टि है, जिसके अनेकों ग्रह मंडल, निहारिकाएं है। आँतों के कोषों की अलग दुनिया है तो मस्तिष्क के न्यूरान्स की बिल्कुल ही अलग। इन सारी गतिविधियों पर विचार करते हैं जो अपने आपको बुद्धिमान समझने वाले मनुष्य से भी अधिक दूरदर्शी है, सूक्ष्म सामर्थ्यों से सम्पन्न है। वह ऐसे उपकरणों का निर्माण कर सकती है जो मानव चालें तो अरबों वर्षों तक आधुनिक साधनों का उपयोग कर नहीं सकता।

हृदय एक पम्प के रूप में अविरल गति से सशक्त रक्त को प्रवाहमान बनाये रखता है। यही एकमात्र ऐसा शक्ति स्त्रोत है जो जीवन भर एक पल को भी विश्राम किये बिना काम करता रहता है। आराम इसके लिये हराम है। इसके बदले में यदि एक बढ़िया से बढ़िया यान्त्रिक पम्प लगा दिया जाय तो 24 घंटे में विश्राम न मिलने पर वह इतना गर्म हो जायेगा कि उसके लन उठने, कार्य प्रणाली में गतिरोध आने की शंका उत्पन्न हो जाती है। पर हृदय है जो 250 ग्राम का एक माँस पिण्ड होते हुए भी प्रतिदिन छियानवे हजार किलोमीटर लम्बी रक्त वाहिनियों में सतत् रक्त को चलायमान रखता है। लाल भूरे रंग का यह अंग नाशपाती के आकार का होता है। चार चैम्बर होने के बावजूद भी इसके दो मुख्य भाग होते हैं जिनमें से प्रत्येक में 2 कक्ष परस्पर सहयोग के आधा पर बंटे होते हैं। एक हिस्सा रक्त को शुद्ध होने के लिये फेफड़ों में भेजता है एवं दूसरा हिस्सा शुद्ध होकर आये रक्त को शरीर के विभिन्न अंगों को भेजता है। जितना रक्त यह दिन भर में पम्प करता है, उतना 28000 लीटर के एक टैंक को भरने के लिये काफी है। चालीस वर्ष की उम्र तक यह करीब 300000 टन रक्त को पम्प कर चुका होता है।

महिलाओं के गर्भाशय को छोड़कर और कोई भी माँसपेशी इतनी मजबूत नहीं है जितना हृदय। पर गर्भाशय मात्र प्रसव के समय सक्रिय होता है, जबकि हृदय दिन रात हर पल। विधाता ने कुछ ऐसी व्यवस्था की है कि हर धड़कनों के बीच हृदय को इतना विश्राम मिल जाये जो अगली धड़कन के लिये उसे ताजा कर दे। करीब 3/20 सेकिण्ड सिकुड़ने के बाद आधे सेकिण्ड का आराम हृदय करता है। जब मनुष्य सोता है तो बहुत सी कोशिकाओं में गतिविधियाँ शिथिल हो जाती हैं। अपनी गति 72 प्रति मिनट से घटाकर 55 प्रति मिनट कर देता है।

मोटापा हृदय के लिये बड़ा भारी सिरदर्द है। प्रति किलो बढ़ने वाली शरीर की चर्बी करीब सात सौ किलोमीटर की रक्तवाहिनी नलियों की संख्या बढ़ा देती है। औसतन साठ किलोग्राम के एक व्यक्ति की 7 किलोग्राम वजनी सात सौ हड्डियों, सवा बारह मीटर लम्बे पाचन संस्थान एवं अगणित कोषों को घेरे 24 लीटर के करीब स्थान को अपने प्रवाह द्वारा निरन्तर निर्मल बनाये रखना, इसे आधे पौंड के जीवन्त अंग का ही कार्य है। इसकी क्षमता का अन्दाज इस एक तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि इसकी एक दिन की शक्ति द्वारा दस हजार किलोग्राम वजन एक मीटर की ऊँचाई तक बिना किसी कठिनाई के उठा सकते हैं और यदि मनुष्य की पूरी जिन्दगी के औसत सत्तर वर्ष मात्र के लिये जायें तो फिर 2 लाख टन रक्त को छियानवे हजार मीटर की ऊंचाई तक चढ़ाया जा सकता है।

जब हृदय संस्थान ही इतना अलौकिक है, तो फिर पम्प से उत्सर्जित द्रव्य को ले जाने वाले परिवहन संस्थान भी उससे कम नहीं है। यह एक ऐसी ट्राँसपोर्ट व्यवस्था हैं जिसका कार्यक्षेत्र है 1 लाख 20 हजार किलो मीटर लम्बा ।5॥ फुट लम्बी काया में इतना बड़ा जंजाल बिखरा पड़ा है जो छह सौ अरब सदस्यों तक अपना सन्देश पहुँचाता है। सारे विश्व की हवाई उड़ानों के परिपथ की कुल लम्बाई को जोड़ दिया जाये तो भी वह रक्तवाहिनी नलियों की कुल लम्बाई से कम ही होगा। कोशिकाओं द्वारा निकाली गयी गन्दगी विकार द्रव्यों को अपने साथ बहा ले जाना, उन्हें गुर्दे तथा फेफड़ों तक पहुँचा कर बाहर फेंकने में मदद करना तथा जीवन के लिये अति आवश्यक प्राणवायु प्रदान करना रक्त परिवहन संस्थान का ही कार्य है।

जितनी देर में हमारी पलक झपकती है उतनी देर में बारह लाख रक्त के लालकण अपनी एक सौ बीस दिन की यात्रा पूरी करके नष्ट हो जाते हैं। इतनी ही अवधि में अस्थि मज्जा उतने ही नये सेल्स बना देती है। खोपड़ी की चपटी हड्डियाँ एवं कशेरुकाएं अपने जीवन काल में कुल आधा टन रक्त कण पैदा करती है। अपने छोटे से जीवन में से कण हृदय से लेकर विभिन्न संस्थानों की 75 हजार परिक्रमा कर लेते हैं।

जैसे एक डिलीवरी कान से लोडिंग अनलोडिंग की जाती है उसी प्रकार केपीलरी व सेल्स के संसर्ग बिन्दुओं पर ऑक्सीजन को अनलोड किया जाता है तथा कोशिकाओं के जलने से उत्पन्न कार्बनडाइ ऑक्साइड को लोड किया जाता है। हर कोशिका की माँगे एक जैसी नहीं है। कोई कोबाल्ट माँगता है, कोई हारमोन्स, कोई विटामिन्स तो कोई शकर। जब आवश्यकताएँ बढ़ जाती है तो केपीलरीज पूरी सीमा तक काम करने लगती है। सारी त्वचा लाल हो जाती है। जब मनुष्य सो जाता है, आवश्यकताएं कम हो जाती हैं जो नब्बे प्रतिशत केपीलरीज बन्द हो जाती है।

जीवकोष, रक्त परिवहन संस्थान एवं हृदय का यह त्रिविध समन्वय तिलिस्मों से भरे शरीर की रहस्यमयी विलक्षणताओं का उद्घाटन करता है। यह तो मात्र एक ही समूह है। ऐसी न जाने कितनी सहकार व्यवस्थाएं शरीर में विद्यमान हैं। हमारे धरती के जीवन को सुनियोजित करने में एक छोटा-सा ब्रह्माण्ड ही जुटा रहता है। वास्तव में पिण्ड ब्रह्माण्ड की ही अनुकृति है और वह मानवी काया में हैं। इस शरीर के भीतर चल रही विधि व्यवस्थाओं को ब्रह्माण्डीय क्रिया-प्रक्रिया का लघु संस्करण कह सकते हैं।

इतना असाधारण शरीर पाकर भी यदि मनुष्य उसे साँसारिक खिलवाड़ में नष्ट कर दे तो उसे चन्दन का वन सूखी लकड़ियों के भाव बेच देने वाले लकड़हारे और पुष्पक विमान को बैलगाड़ी समझ कर जोत देने वाले किसान की तरह मूर्ख ही समझा जायेगा। बुद्धिमता तो इसमें है कि हम इतने महान उपहार के पीछे अभिव्यक्त विधाता की आकाँक्षा को पहचानें और उसे पूरा करें।

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