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Magazine - Year 1974 - Version 2

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Language: HINDI
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जीवन सम्पदा समुद्र जितनी महान है

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मानव जीवन समुद्र की तरह महान् है। उसमें सन्निहित सम्पदाओं और विभूतियों का कोई वारापार नहीं। हुआ है। कारण कि गहराई में उतर कर यह नहीं खोजा गया कि हमारे समीप ही कितनी महिमामयी सम्पदा प्रचुर परिमाण में भरी पड़ी है और थोड़ा प्रयत्न करने से ही उसका समुचित लाभ उठाया जा सकता है। मनुष्य जीवन की ऊपरी परतें जिन्हें हम आमतौर से जानते पहचानते हैं नगण्य मूल्य महत्व की हैं। उपेक्षणीय गई-गुजरी स्थिति जैसा ही समुद्र तल दिखाई पड़ता है लगभग वैसा ही अभावग्रस्त दरिद्र और गया-गुजरा जीवन स्तर अपना भी होता है। समुद्र की गहराई में उतरने का साहस भी कोई बिरले ही कर पाते हैं जो करते हैं वे निहाल बनते हैं। इसी प्रकार जीवन सम्पदा को समझने और उसे उपलब्ध करने के लिए जो मनस्वी कटिबद्ध हो जाते हैं, वे मोती निकालने वाले गोताखोरों की तरह बहुमूल्य सम्पत्ति प्राप्त करने का आनन्द लेते हैं।

समुद्र सम्पदा और धरती की समृद्धि की तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सागर निश्चित रूप से कहीं अधिक धनवान है। खनिज पदार्थों को ही लें तो पता चलता है कि उसका वैभव कितना बढ़ा-चढ़ा है।

कनाडा के ‘माइनिंग जनरल मासिक पत्र में दिये गये आँकड़ों के अनुसार समुद्र जल में से अकेला नमक निकाला जा सके तो उसकी इतनी मोटी परत बन जायगी जिसे समूची पृथ्वी पर बिछाने से उसकी ऊँचाई कोई 500 फुट हो जाय।

समुद्र में जो पानी भरा है उसका आयतन 33 करोड़ घन मील है। एक घन मील समुद्री पानी का विश्लेषण किया जाय तो उसमें लाखों टन खनिज पदार्थ मिलेंगे फिर समस्त समुद्री जलराशि का मूल्याँकन कितना विस्तृत होगा यह सहज ही समझा जा सकता है।

साधारण नमक की मात्रा समुद्र जल में सबसे अधिक है। इसके बाद क्रमशः मैग्नेशियम क्लोराइड, मैग्नेशियम सल्फेट, कैल्शियम सल्फेट, कैल्शियम सल्फेट, कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नेशियम ब्रोमाइड, फ्लोरिन, बेरियम, आयोडीन, आर्सनिक, रुविडियम, चाँदी, सोना, रेडियम आदि का नम्बर आता है।

ब्रोमीन जैसे बहुमूल्य खनिज की तो धरती पर एक प्रतिशत मात्रा ही शेष रह गई है शेष 99 प्रतिशत तो समुद्र में जा पहुँची। समुद्री पौधे तथा जीव-जन्तु जिस पौष्टिक खुराक के आधार पर अपनी जीवन यात्रा चलाते हैं वह ‘आयोडीन’ समुद्र जल में प्रचुर मात्रा में भरा पड़ा है उसकी आवश्यकता मनुष्य को भी कम नहीं है। पोटाश जिसकी वनस्पतियों को नितान्त आवश्यकता है समुद्र के गर्भ में हिमालय जितनी मात्रा में भरी पड़ी है। ताँबा इतना है कि अकेले उसी से धरती पर धातुओं की आवश्यकता भली प्रकार पूरी हो सकती है।

समुद्र में स्वर्ण कणों की मात्रा आश्चर्यजनक है। एक घन मील जल से प्रायः तीन लाख किलो सोना निकाला जा सकता है। फिर पूरी तीन करोड़ घन मील जलराशि से कितना सोना प्राप्त हो सकता है इसकी कल्पना करने मात्र से हमारी आँखें चमकने लगती हैं।

सोवियत वैज्ञानिकों ने 52 दिन आर्कटिक सागर में बनी प्रयोगशाला में बिताने केग उपरान्त कुछ ही समय पूर्व यह घोषणा की थी कि पूर्वी साइबेरिया के समुद्र क्षेत्र में सोने का विशाल भण्डार छिपा हुआ है। इस स्वर्ण राशि को निकाला जा सकता है। अब प्रयोग यह चल रहे हैं कि ऐसी विधियाँ ढूँढ़ निकाली जायँ जिससे जलराशि से स्वर्ण को पृथक करने का खर्च उतना न पड़े जितना कि इस समय पड़ता है। इस दिशा में अभीष्ट सफलता मिल गई तो रु स की स्वर्ण सम्पदा सबसे ऊपर होगी।

जर्मन रसायनवेत्ता फ्रिज हैवर ने इस दिशा में काफी प्रयत्न किया था वह समुद्र से स्वर्ण निकाल कर जर्मनी को ‘सोने की लंका बनाने का प्रयत्न कर रहा था कि महायुद्ध छिड़ जाने से उसके सपने पीछे पड़ गये और उन प्रयासों में शिथिलता आ गई।

हम बारहसिंगा की तरह कस्तूरी की तलाश में इधर-उधर दौड़ते हैं और निराश होकर थकान साथ लेकर घर लौटते हैं। कस्तूरी हिरन को जब यह पता चलता है कि सुगन्ध का केन्द्रबिन्दु उसकी नाभि में है तो वह चैन से बैठता है और पेट पर मुँह रखकर तृप्तिदायक आनन्द का रसास्वादन करता है। जीवन संपदा का मूल्य समझने वाले—उसका पर्यवेक्षण करने वाले—इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं—यदि हम अपने चिन्तन एवं क्रिया-कलाप को परिष्कृत कर लें तो उन छिपी हुई शक्तियों और विशेषताओं से सम्पन्न हो सकते हैं जो सर्वतोमुखी प्रगति का ‘महत्वपूर्ण आधार अपने गर्भ में सँजोये हुए हैं।

समुद्र तल में छिपी हुई सम्पदा को निकालने के लिए वैज्ञानिक प्रयास उत्साह पूर्वक आरम्भ हुए हैं और यह माना गया है कि बहुमूल्य खनिज सम्पदा तथा खाद्य-सामग्री प्रचुर परिमाण में समुद्र मंथन से प्राप्त हो सकती है। जीवन समुद्र को भी यदि उपेक्षित न पड़ा रहने दिया जाय, उसके अन्वेषण उपयोग का प्रयत्न किया जाय तो हमारी भौतिक एवं आत्मिक दरिद्रता सहज ही दूर हो सकती है।

पुराण गाथा के अनुसार थल निवासियों ने अभीष्ट समृद्धि प्राप्त करने के लिए किसी समय समुद्र मंथन किया था और उसमें से कौस्तुभ मणि, कामधेनु, लक्ष्मी, ऐरावत, अमृत आदि उपयोगी वस्तुएँ निकाली थीं। अब लगता है हमें पुनः समुद्र मंथन करना पड़ेगा क्योंकि धरती की सम्पदा क्रमशः चुकती जा रही है और उपयोगी सामग्री बढ़ी हुई जनसंख्या के लिए उपयुक्त मात्रा में न मिलने के कारण भूतल निवासी क्रमशः दरिद्र होते जा रहे हैं।

समूची पृथ्वी का क्षेत्रफल 196,940,000 वर्ग मील है। इससे से 139,715,000 वर्ग मील भाग समुद्र में डूबा पड़ा है। उसकी गहराई इतनी अधिक है कि समुद्र तल से ऊँची उठी हुई धरती और पहाड़ों को यदि उस जलराशि में डुबो दें तो वह समस्त थल संपदा 12000 फुट गहरे पानी में जाकर बैठ जायगी।

हम थलचरों ने इतना ही पर्याप्त समझा कि आँखों से धरती पर जो दिखाई देता है उसी का उपयोग करने में लगे रहें। यदि सूक्ष्म दृष्टि से जल सम्पदा की सम्भावनाओं पर ध्यान दिया गया होता तो प्रतीत होता कि प्रत्यक्ष की तुलना में अप्रत्यक्ष का विस्तार वैभव कहीं अधिक है। प्रत्यक्ष स्थूल जीवन की तुलना में हमारे सूक्ष्म जीवन की आन्तरिक सम्पदा कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हैं।

मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अगले दिनों धरती माता पर निर्भर रहने से काम नहीं चलेगा। बालकपन बीतता जा रहा है। उसे समुद्र पिता की सहायता से अपनी प्रौढ़ता के उपयुक्त सहारा लेना पड़ेगा। समुद्र से मछलियों के रूप में माँसाहारियों के लिए और वनस्पतियों के रूप में शाकाहारियों के लिए विपुल मात्रा में भोजन मिल जायगा। छिछले पानी में ऐसी वनस्पतियाँ उगाई जाने वाली हैं जो शाक-भाजी की, पशुओं के चारे की, मसालों की, औषधियों की आवश्यकताएँ पूरी कर सकें। निकट भविष्य में मछली पकड़ने की विद्या में अधिक अच्छी किस्म की अधिक मात्रा में—उपयुक्त स्थानों में मछलियाँ पैदा करने का प्रयत्न भी सम्मिलित किया जाने वाला हैं। यह कृषि सुविस्तृत समुद्र क्षेत्र में अधिक सफलता और सरलता के साथ सम्पन्न हो सकता है।

समुद्री खोज के लिए वैज्ञानिक प्रयोगशाला के रूप में ‘वाईस्केप’ ‘आटोगिरोस’ जैसे जल संस्थान अपना महत्वपूर्ण कार्य करते रहे हैं, अब ऐसे तैरते द्वीप तैयार किये जा रहे हैं जिन पर निर्वाह की सुविधा ही नहीं वरन् उन पर आजीविका उपार्जन के भी साधन बने रहें और वहाँ के निवासी स्वावलम्बी जीवन उसी प्रकार जी सकें जिस प्रकार समुद्री द्वीपों में रहने वाले इस समय जीते हैं। अणु शक्ति के कारखाने तथा एकाँत शोध कार्यों के लिए तो ऐसे तैरते द्वीपों की आवश्यकता विशेष रूप से समझी जा रही है।

समुद्र का खारेपन दूर किया जा सके और उस निरर्थक जलराशि को शुद्ध करके पेयजल के रूप में परिणत किया जा सके तो धरती का एक सुविस्तृत भाग जो आज अनुपयोगी स्थिति में पड़ा हैं, कल उपजाऊ बन सकता है। उस पर करोड़ों मनुष्यों और पशुओं का निर्वाह हो सकता है। धरती निवासियों की सुविधा में एक नई कड़ी जुड़ सकती है। मनुष्य जीवन में कषाय-कल्मषों की तरह धुला हुआ खारेपन यदि हटाया जा सके तो उसकी निर्मलता सर्वत्र श्री समृद्धि, शान्ति एवं प्रगति का वातावरण उत्पन्न कर सकती है।

सोलहवीं सदी में साम्राज्ञी एलिजावेथ ने 10 हजार पाउण्ड का पुरस्कार उस वैज्ञानिक को देने की घोषणा की थी जो समुद्री जल को नमक रहित करने की सस्ती विधि का आविष्कार कर सके। उनके जीवन काल में ऐसा कोई दावेदार सामने न आया। पीछे टेलीफोन के आविष्कर्ता ग्राह्मबेल ने भी इस दिशा में बहुत माथापच्ची की पर वे भी कृत-कार्य न हो सके। अब यह माना गया है कि सूर्य किरणों की ऊर्जा को एकत्रित करके उसकी गर्मी से उड़ाया हुआ समुद्री पानी पेय जल बन सकता है।

ब्रिटिश आणविक ऊर्जा प्राधिकार ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया है कि समुद्र जल का खारेपन पृथक करके उसे पीने योग्य बनाना अब उतना महंगा और कठिन नहीं रहा जितना कि कुछ समय पहले समझा जाता था। इसके लिए किसी अतिरिक्त ईधन को जुटाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। सूर्य की ऊर्जा इतनी विपुल मात्रा में उपलब्ध होती हैं कि उससे समुद्र जल को पीने योग्य बनाया जा सके। बिखरी ऊर्जा का केन्द्रीकरण नतोदर काँचों से तथा दूसरे उपकरणों से किया जा सकता है और उससे भाप बना कर उड़ाने का अथवा बर्फ जमाने एवं पिघलाने का प्रयोजन सरलता पूर्वक पूरा हो सकता है।

इस दिशा में प्राधिकार ने जो अन्वेषण एवं प्रयोग किये हैं उनका विवरण करते हुए यह बताया है कि यदि इस दिशा में अधिक ध्यान दिया जाय तो मनुष्य जाति की एक महती आवश्यकता पूर्ण करने में आशातीत सफलता मिल सकती है।

लवण मिश्रित जल को शुद्ध एवं पेय बनाने के लिए चल रहे प्रयोगों में आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक अग्रणी हैं। उस सूखे महाद्वीप को अधिकाधिक जलीय सुविधा उपलब्ध हों इसके लिए ऐसे प्रयोग वहाँ आवश्यक भी हैं।

इस जलशोधक पद्धति को ‘सिरोथम’ नाम दिया गया है। शोधकर्ताओं में प्रमुख हैं—डा. डोनाल्ड उन्होंने अपने देश में पाये जाने वाले खारी झरनों तथा झीलों का पानी नव आविष्कृत आई.सी. आई. नामक रसायन के द्वारा शुद्ध करने में सफलता प्राप्त की है। अन्य देशों में पानी उबाल कर भाप बनाने की पद्धति काम में लाई गई है पर वह बहुत महंगी पड़ती हैं। आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक का नव-निर्मित रसायन पानी में डाल दिया जाता है और वह नमक चूस लेता हैं। इसके बाद उसे धोकर फिर चूसने योग्य बना दिया जाता है। बड़ी मात्रा में यह रसायन खारी झीलों में डाला जाता रहता है और उसे धोकर शुद्ध किया जाता रहता है इस प्रकार सस्ती विधि से खारी पानी मीठा बनने लगता है। यह विधि छोटे जलाशयों के लिए तो ठीक बैठी है पर समुद्र की विशाल जलराशि को पीने योग्य कैसे बनाया जाय इसका कारगर हल अभी भी नहीं निकला है। ऐसी ही गहरी खोजें मानव-जीवन के समुद्र में से दोष दुर्गुणों के निराकरण के लिए की जानी चाहिए। उसमें घुले हुए पाप अनाचार के खारेपन को हटाकर उज्ज्वल चरित्र नर-पशु को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाया जाना चाहिए। जो प्रयत्न समुद्र को खोजने और उससे लाभ उठाने के लिए किये जा रहे हैं उसी स्तर के प्रयत्न यदि मानव-जीवन को—मनुष्य-समाज को परिष्कृत बनाने के लिए किये जाँय तो उस दिव्य संपदा से विश्व वसुधा में स्वर्गीय सुख सम्पदा का बाहुल्य सर्वत्र बिखरा हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है। सूर्य ऊर्जा से जब खारी पानी को मीठे पेयजल में बदला जा सकता है तो कलुषित स्थिति में पड़े हुए मनुष्य जीवन को तप साधना की ऊष्मा से पवित्र और परिष्कृत क्यों नहीं बनाया जा सकता। इन प्रयत्नों में भी हमें वैज्ञानिक उत्साह जैसी ही तैयारी के साथ संलग्न होना चाहिए।

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