
मनोबल-अप्रत्याशित सफलताओं का आधार
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विराट् नगर के राजा सुकीर्ति के पास एक लौह शृंग नामक विशालकाय हाथी था। युद्ध कला में वह बड़ा प्रवीण था। राजा जब युद्ध करने जाते तो उसी पर बैठते। सेना के आगे चलने वाला पर्वताकार लौह शृंग अपनी क्रुद्ध मुद्रा में शत्रु पक्ष पर जो प्रचंड हुँकार के साथ आक्रमण करता तो देखते-देखते विपक्षियों के पाँव उखड़ जाते। इस प्रकार कितने ही युद्ध लौहशृंग के युद्धकौशल ने सहज ही जिताये थे।
समयचक्र के अनुसार लौहशृंग वृद्ध होने लगा। उसकी चमड़ी झल गई और युवावस्था वाला पराक्रम चला गया। अब वह हाथीशाला की शोभामात्र बन कर रह गया था। पहले जहाँ उसकी सेवा में कई-कई सेवक रहते थे और पर्याप्त भोजन मिलता था। उस सब में कमी हो गई। एक बूढ़ा सेवक उसके भोजन पानी की व्यवस्था करता सो भी कई बार चूक कर जाता और हाथी को भूखा-प्यासा रहना पड़ता।
एक दिन लौहशृंग बहुत प्यासा था। हाथीशाला में प्रबन्ध न देखकर वह चुपके से प्यास बुझाने के लिए चल पड़ा और पुराने परिचित तालाब में पहुँचकर उसने भरपेट पानी पिया, प्यास बुझाई और गहरे जल में जाकर शान्तिपूर्वक स्नान किया।
दुर्भाग्य से उस तालाब में कीचड़ बहुत थी। वृद्ध हाथी उसमें फँस गया। निकलने का जितना प्रयास करता उलटा उतना ही फँसता जाता। निदान वह गरदन तक घुस गया।
यह समाचार राजा को मिला तो वे बहुत दुखी हुए। अपने प्यारे हाथी को बचाने के लिए उन्होंने अनेक प्रयत्न कराये पर वे सभी निष्फल हुए। उसे बाहर न निकाला जा सका। उसे इस दयनीय दुर्दशा के साथ मृत्यु मुख में जाते देखकर सभी दुखी थे।
एक चतुर वयोवृद्ध सैनिक ने राजा के सम्मुख जाकर अभिवन्दन के साथ निवेदन किया कि उसे अवसर मिलता के हाथी को कीचड़ से बाहर निकाला जा सकता है। सैनिक को आज्ञा मिल गई।
इस सभी प्रयत्न करने वालों को वापिस बुलाया और उन्हें युद्ध सैनिकों की वेषभूषा पहनाई। वही वाद्य यन्त्र मंगाये जो लड़ाई के समय बजते थे। हाथी के सामने युद्ध नगाड़े बजने लगे और सैनिक इस प्रकार कूच करने लगे मानो वे शत्रु पक्ष की ओर से लौह शृंग की ओर बढ़ते चले आ रहे हैं।
यह दृश्य देखा तो वृद्ध हाथी को यौवन काल का जोश आ गया, क्रोध से वह काँपने लगा। जोर से चिंघाड़ लगाई और इन शत्रु सैनिकों पर आक्रमण करने के लिए वह पूरी शक्ति के साथ टूट पड़ा।
इस आक्रमण मुद्रा में न जाने कहाँ से उसमें इतना बल आ गया कि कण्ठ तक जिस कीचड़ में फँसा हुआ था उसे रौंदता हुआ क्षण भर में तालाब के तट पर आ खड़ा हुआ।
इस युक्ति की सभी ने बड़ी प्रशंसा की। वृद्धावस्था में भी इतना बल होने के कारण हाथी की भी सर्वत्र सराहना हुई। युक्ति कार को बहुमूल्य पुरस्कार मिले और राजा की खिन्नता प्रसन्नता में बदल गई। हाथी भी जीवन रक्षा का अवसर मिलने से सन्तुष्ट था।
उपरोक्त कथा तथागत ने अपने शिष्यों को सुनाई और उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा—भिक्षुओ, संसार में मनोबल ही सबसे प्रथम है। उसकी सहायता से असम्भव दीखने वाले काम पूरे हो सकते हैं। दुर्बल, साधन रहित और आपत्तिग्रस्त भी मनोबल के सहारे अप्रत्याशित सफलताएँ प्राप्त कर सकता है।