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Magazine - Year 1974 - Version 2

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पवित्रात्मा और पिशाचात्मा की आकृति

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उस कलाकार की इच्छा थी कि अपनी समस्त कला को समेट कर एक अमर कला−कृति बनाये। इसमें पवित्रात्मा और शैतान का समन्वित चित्रण हो।

पवित्रात्मा का प्रतीक वह महाप्रभु ईसा को मानता था और शैतान का प्रतीक उस व्यक्ति को जिसने महाप्रभु को कोड़े लगाकर और कीलें ठोक कर मर्मान्तक पीड़ा देते हुए उनका प्राण हरण किया था। चित्र में दोनों को पवित्रता और क्रूरता के आमने−सामने बड़ा हुआ दिखाया जाना था।

चित्रकार ऐसे दो जीवन्त व्यक्ति देखना चाहता था जिनकी आकृति में पवित्रात्मा और शैतान की प्रकृति का पूरी तरह आभास मिल सके। मात्र कल्पना से नहीं सजीव छवि देखकर उस प्रकार की आकृति बनाने की बात उसके मन में जँच रही थी।

पहले उसने पवित्रात्मा की आकृति वाला मनुष्य ढूँढ़ना आरम्भ कि या। इसके लिए वह दूर−दूर तक भटका। हजारों लाखों मनुष्यों के चेहरे गौर से देखे पर वैसा कोई मिला ही नहीं।

एक दिन भटकते−भटकते वह कि सी अनाथालय में जा पहुँचा वहाँ उसने एक पाँच वर्ष के बालक को देखा। उसके अभिभावक मर गये थे और भाई−बहिन बिछुड़ गये थे। स्नेह छिन जाने से उसकी आँखों से करुणा और कातरता बरस रही थी। वह प्यार खो चुका था—प्यार पाना चाहता था। चित्रकार ने उसे पवित्रात्मा के अधिक समीप पाया और चित्र के लिए उस आकृति को उपयुक्त मान लिया।

अनाथालय के अधिकारी से चित्रकार ने दो घण्टे के लिए उस बालक को माँग लिया अपने स्टूडियो ले गया। बहुत प्यार किया। खिलाया−पिलाया और सामने बिठा कर कुछ ही देर में उसकी आकृति कागज पर उतार ली। इसके बाद उसे धन्यवाद कहकर वापिस अनाथालय भेज दिया गया। ईसा की छवि के रूप में यह चेहरा उसे बहुत ही सन्तोषजनक प्रतीत हुआ।

बच्चे ने स्टूडियो में प्रवेश करते समय वहाँ जो स्नेह सद्व्यवहार पाया उससे उसकी आँखों में एक नया उल्लास चमका। किन्तु थोड़ी देर बाद जब उसे फिर उस नीरस कटघरे में लौटा दिया गया तो बच्चा समझ गया। स्नेह दुनिया में से उठ गया। प्रवेश करते समय और विदा होते समय का अन्तर उसके सामने स्पष्ट था। जिस धन्यवाद को साथ लेकर वह वापिस लौटा था वह बनावटी भी था और अपर्याप्त भी। स्नेह की, प्यास की एक बूँद भी समाधान उसमें न मिल सका।

यहाँ केवल मतलब के लिए किसी को दुलारने पुचकारने की प्रथा है। बच्चा मन पर भरोसा कर फिर अनाथालय में रहने लगा। स्नेह की एक कौंध स्टूडियो से उसने जो देखी थी उसमें भी उसने नकलीपन ही पाया आशा की किरणें फिर कभी उसने देखी भी नहीं।

चित्रकार का आधा चित्र बन चुका था। अब को मारने वाले शैतान की क्रूर आकृति की आवश्यकता पर ताकि उस कलाकृति में अधिक यथार्थता का समावेश कर सके। इसके लिए भी वह दूर−दूर तक भटका। अब की बार उसे पवित्रात्मा का चेहरा ढूँढ़ने से भी अधिक कठिनाई हुई। वैसी आकृति मिलती ही न थी जिसमें न पिशाच के समस्त चिन्ह पाये जा सकें।

खोज−बीन उसने बराबर जारी रखी। चेहरे देखकर और खोजने में बराबर लगा रहा। इस प्रयास में उसके बीस वर्ष गुजर गये। चित्र अधूरा ही पड़ा था। अन्त में उसे एक जेलखाने में अपनी इच्छित आकृति मिल गई। एक पच्चीस वर्षीय नौजवान लम्बी कैद की सजा भुगत रहा था। उसने अनेकों वीभत्स अपराध किये थे। आजीवन कारावास का दण्ड उसे न्यायालय से मिला था। उसकी आँखें, होठ, हँसी, भवें और चेहरे की प्रत्येक रेखा पर शैतान नाच रहा था। ऐसी भयंकर आकृति उसने इन बीस वर्षों में अन्यत्र कहीं नहीं देखी थी।

चित्रकार ने सन्तोष की साँस ली। जेल के अधिकारियों से संपर्क स्थापित किया और दो घण्टे उसे स्टूडियो में ले जाने की सुविधा प्राप्त कर ली।

कैदी सुरक्षा अधिकारियों के संरक्षण में स्टूडियो लाया गया। चित्रकार ने पूछा—आपका क्या आतिथ्य किया जाय? कैदी ने ह्विस्की की याचना की। उसने कहा शराब मेरी प्रिय अभिलाषा थी पर अब तो जेल में वह भी दुर्लभ हो गई। मिला सकें तो जीभर कर ह्विस्की पिलाने का प्रबन्ध कर दीजिये।

इच्छानुसार इसे शराब पिलाई गई। सामने कुर्सी पर बैठा नशे में धुत्त कैदी और भी भयंकर लग रहा था। ऐसी ही आकृति की तो चित्रकार को जरूरत थी। वह बड़े उत्साह के साथ चेहरे को देख−देख चित्र बनाता चला गया और शैतान की आकृति ठीक तरह बन गई। अपनी उस सफलता पर उसे बहुत सन्तोष था।

धन्यवाद देकर जब कैदी विदा किया जाने लगा, तब उसने नम्रतापूर्वक पूछा—क्या मैं अपनी आकृति का चित्रण देख सकता हूँ। चित्रकार ने उसकी इच्छा पूरी की और जो चित्र बनाया था वह हाथ में थमा दिया।

कैदी उसे देखकर अवाक् रह गया। उसने महाप्रभु की पवित्रात्मा और शैतान की पैशाचिकता को बार−बार देखा और हतप्रभ होकर सिर खुजाने लगा।

चित्रकार ने इस असमंजस का कारण पूछा। कैदी ने उसके कन्धे पर हाथ रखा और कान के पास मुँह ले जाकर कहा। आप भूल गये—पवित्रात्मा का चित्र भी मेरा ही है। आप अनाथालय में मुझे ही अब से बीस वर्ष पूर्व इसी स्टूडियो में लाये थे और उसी कुर्सी पर बिठा कर देख चित्र खींचा था।

बीस वर्ष पूर्व का पवित्रात्मा—इतनी छोटी अवधि में कैसे पिशाचात्मा बन गया। महाप्रभु की आकृति शैतान में कैसे बदल गई। चित्रकार इसका कारण न जान सका वह स्वयं भी स्तब्ध खड़ा था।

समाधान उभरा स्नेह की प्यास धन्यवाद से शाँत न हो सकी नीरस दुर्व्यवहार से उद्विग्न अन्तःकरण भटकता हुआ अनाचार के गर्त में जा गिरा।

चित्रकार सोचने लगा उस बालक की तरह इस कैदी की भी कुछ माँग है जिसे धन्यवाद देकर झुठला दिया जाता है। शायद अन्य पवित्रात्मा भी पिशाचात्मा बनने के लिए उसी उद्वेग द्वारा धकेल दिये जाते हैं।

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