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Magazine - Year 1974 - Version 2

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मरने के बाद हमारे अस्तित्व का अन्त नहीं हो जाता

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अब विज्ञान क्रमशः प्रौढ़ होता चला जाता है। पचास वर्ष पूर्व आत्मा और ईश्वर के अस्तित्व में इन्कार करने का जो उत्साह था वह अब ठण्डा हो चला है। यह माना जाने लगा है कि आत्मा है और मरणोत्तर जीवन के उपरान्त भी उसकी सत्ता पूर्णतया समाप्त नहीं हो जाती वरन् किसी न किसी रूप में बनी ही रहती है।

आत्मा के अस्तित्व के बारे में प्रयोगशालाओं ने कुछ उत्साहवर्धक निष्कर्ष प्रस्तुत किये है। ‘बिलसा क्लाउड चेम्बर’ के शोध निष्कर्ष अमेरिका में निकाले गये हैं पर उनकी जानकारी संसार के अन्य देशों ने भी प्राप्त की है और इस बात से आश्वस्त होना सम्भव हुआ है कि मृत्यु के उपरान्त भी प्राणी किसी रूप में बना रहता है। ‘बिलसा क्लाउड चेम्बर’ एक खोखला पारदर्शी सिलेण्डर है, जिसके भीतर से हवा पूरी तरह निकाल दी जाती है। उसके भीतर रासायनिक घोल पोत दिये जाते हैं जिनसे विशेष प्रकार का चमकदार हलका सा कुहरा गैस उसके भीतर छा जाता है। इस कुहरे की विशेषता यह होती है कि एक भी इलेक्ट्रोन उसमें होकर गुजरे तो फिट किये गये शक्ति शाली कैमरे उसका फोटो तुरन्त उतार लेते हैं और यह पता चल जाता है कि सिलेण्डर के भीतर क्या हलचल हुई।

इस सिलेण्डर के एक कक्ष में जीवित चूहे और मेढ़क रखे गये। परीक्षण काल में उन प्राणियों में से एक−एक का प्राण हरण बिजली का करेन्ट लगाकर किया गया। मरने के उपरान्त क्या होता है इसकी फिल्म उतारी गई तो प्रतीत हुआ कि भूत प्राणी की हू−व−हू आकृति उस रासायनिक कुहरे में तैर रही है। वह निश्चेष्ट नहीं थी वरन् वैसी ही हरकतें कर रही थी जैसी कि जीवित अवस्था में वह प्राणी किया करता है। छोटे−छोटे कीड़े−मकोड़ों से लेकर चूहे, मेढ़क जितने विकसित प्राणियों तक का मरणोपरान्त हरकतों के सम्बन्ध में इस चेम्बर ने इतना प्रमाण तो दे ही दिया है कि खुली आँखों ने न दीख पड़ने वाली—तोले जो सकने वाले पदार्थ स्तर से अधिक हलकी कोई सत्ता विद्यमान रहती है और उसे विशेष उपायों में देखा जा सकता है। यह सत्ता क्रमशः धुँधली पड़ती जाती है और फिर कैमरे की पकड़ से भी बाहर चली जाती हैं। अधिक विकसित कैमरे यदि बन सके होते तो शायद उस धुँधली सत्ता के क्रिया−कलाप के सम्बन्ध में भी कुछ अधिक जानकारी मिलती।

यह सत्ता शरीर छोड़कर जब अन्तरिक्ष में भ्रमण करती है तो उसका परिचय प्रेतात्माओं के रूप में मिलता है स्वर्ग−नरक की अनुभूति उसे इसी अवधि में होती है। इसके बाद पुनर्जन्म का चक्र चल पड़ता है। प्रेतों का आकार−प्रकार और उनके कर्म, स्वभाव का ठीक से पता नहीं चल सका है पर जो प्रमाण मिलते हैं उनसे उनका अस्तित्व अवश्य सिद्ध होता है। इसी प्रकार कैसा जीवन बिताने वाले को अगले जन्म में कैसा और कितने दिन बाद जन्म मिलता है इसका कोई नियम निर्धारण नहीं हो सका तो भी इस बात के अकाट्य प्रमाण मिल गये हैं कि मरने के उपरान्त भी फिर नया जन्म मिला है और पूर्व जन्म की स्मृति बनी रही है।

परकाया प्रवेश के सिद्धान्त का समर्थन करने वाले कुछ आधुनिकतम एवं परखे, पहचाने उदाहरण हैं जिन्हें किसी अन्ध−विश्वासी की भावुकता अथवा सनक नहीं कही जा सकती है। अमेरिका के हारवर्ड और कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय के दो प्रोफेसरों ने मिलकर “बीसवीं सदी में अचेतन मनोविज्ञान की नई खोज” विषय पर सुविस्तृत खोज की है। अपने विषय के अब उन्होंने अनेकों प्रमाण संग्रह किये हैं। उन्हें पुस्तक रूप में भी छपाया है और पत्र−पत्रिकाओं में भी उन प्रमाणित घटना−क्रमों को छपवाया है। प्रस्तुत विवरणों में यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता है और वह एक शरीर से दूसरे में परिवर्तन प्रत्यावर्तन करते रहने में सामर्थ्य है।

डा. आसवन ने अपनी शोध में एक ऐसे बर्तन विक्रेता का उल्लेख किया है जो घर से टहलने के लिए निकला था किन्तु अचानक गायब हो गया। कहीं अन्यत्र जाकर कुछ काम करने लगा। घर वालों ने तलाश किया पर कहीं कुछ पता न चला। दो वर्ष ऐसे ही बीत गये। इसके बाद अचानक उस बर्तन विक्रेता का पूर्व जन्म की स्मृति जगी और आश्चर्य के साथ अपनी नई स्थिति और पुरानी स्थिति की तुलना करने लगा और स्तब्ध रह गया कि उसका नाम, घर, व्यवसाय सब कुछ कैसे बदल गया। और पुरानी स्थिति से इस नई स्थिति में उसे किसने कैसे डाल दिया?

जिस नये व्यक्ति के रूप में वह दो वर्ष से रह रहा था वह भी कोई अवास्तविकता न थी। कुछ समय पूर्व वह नया आदमी भी जिसके स्थानापन्न बनकर उसे रहना पड़ा। वह मशीनों की मरम्मत का काम करता था और घूम फिरकर अपनी रोटी कमाता था। वही कार्य इसे भी नई स्थिति में मिल गया और दो वर्ष मजे की रोजी−रोटी कमाते गुजार लिए। जिस सराय में वह ठहराता था, जिस नानबाई के यहाँ वह रोटी खाता था उन्हीं के यहाँ उसने अपनी व्यवस्था ऐसे जमा ली मानों उन स्थानों से उसका पुराना परिचय चला आता है। उन दुकानों के नये पुराने सभी कर्मचारियों के नाम और व्यवहार उसे याद थे। इसी प्रकार मरम्मत का काम जहाँ मिलता था वह भी सब कुछ उसका जाना पहचाना था।

दो वर्ष बाद मानो वह गहरी निद्रा में से उठा। अपने घर की याद आई और वापिस चला गया। कुछ दिन उसे स्थानापन्न जन्म की स्मृति भी रही, पीछे वह धुँधली पड़ती चली गई और पीछे उसे उन दिनों की बातें लगभग पूरी तरह विस्मृत हो गई और पहले की तरह अपना कसेरे का धन्धा करने लगा।

शोधकर्ताओं ने इस घटना को बहुत गम्भीरता से लिया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हो न हो यह किसी प्रबल आत्मा का एक सामान्य आत्मा को वशवर्ती करके उसके शरीर पर अपना कब्जा कर लेने की घटना है। जब उसने कब्जा छोड़ा तो पुरानी आत्मा अपनी जागृत एवं स्वतन्त्र सत्ता का परिचय देने की स्थिति में आ गई। इस घटना को डा. आसवन ने अपने अनुमानित निष्कर्ष के साथ कई प्रसिद्ध समाचार पत्रों में छपाया।

एक दूसरी घटना रोडस नगर निवासी ऐसेलवर्न की है। वह बैंक से दस हजार का चैक भुनाकर बाहर निकला और अचानक गायब हो गया। घर वाले तलाश करते रहे पता न चला। सोचा डाकुओं ने उसका अपहरण करके मार डाला और धन छीन लिया है। पर ऐसा हुआ नहीं। गायब होने के बाद वह सैकड़ों मील दूर एक अन्य नगर में जा पहुँचा और वहाँ उसने चीनी का व्यापार इस कुशलता से किया मानो वह उस व्यवसाय का माहिर रहा हो। चीनी के व्यापारी उसकी वार्ता से बहुत प्रभावित थे और उसे निष्णात अनुभवी मानने लगे। नाम भी उसका बदल गया। इस व्यापारी को ए. जे. ब्राउन कहा जाने लगा। दो महीने में—उसने बहुत रुपया कमाया और अपने क्षेत्र में अच्छी धाक जमा ली। किन्तु इसके बाद अचानक उसे याद आई कि वह तो रोडस निवासी ऐसलवर्न है यहाँ कैसे आ गया और जिस चीनी के व्यवसाय से उसका दूर का भी वास्ता नहीं था उसे वह क्यों कर करने लगा? इस अपरिचित जगह में इतनी दूर उसे कौन कैसे ले आया। इन प्रश्नों का कोई उत्तर उसके पास नहीं था। वह डर गया। तुरन्त ही चीनी का व्यवसाय समेटा वापिस अपने नगर को चल दिया।

इस घटना का भी लगभग वैसा ही निष्कर्ष था। और यही अनुमान लगाया गया कि कोई मृत आत्मा किसी जीवित शरीर पर कब्जा करके उससे अपनी रुचि का काम करा सकती है।

सायकोलॉजीकल रिव्यू पत्रिका में सन् 1894 की एक घटना डाक्टर डामा ने प्रकाशित कराई थी। डाक्टर की चिकित्सा में एक मूर्छित रोगी आया। वह अच्छा तो हो गया पर प्रौढ़ता खोकर पाँच वर्ष के बालक जैसी मनःस्थिति में आ गया। छोटे बच्चे जिस तरह सोचते और करते है उसका सारा शारीरिक, मानसिक व्यवहार उसी तरह का था। वह सुशिक्षित था पर पढ़ना−लिखना बिलकुल भूल गया था। कई महीने उसकी यही स्थिति रही। इसके बाद उसे पुरानी स्थिति याद आई और पुनः प्रौढ़ता वाले व्यक्तित्व में जागृत हो गया।

बोस्टन के डा. नार्टनप्रिंस ने भी अपना इसी से मिलता जुलता एक अनुभव प्रकाशित कराया था। एक सुशिक्षित महिला उसके इलाज में आई जो हर दिन कुछ घण्टे एक विचित्र व्यक्तित्व की स्थिति में चली जाती थी। तब उसका उच्चारण व्यवहार, क्रिया−कलाप इतना बदल जाता था मानो वह उसका सामान्य व्यक्तित्व पूर्णतया बदल गया हो। यह नया व्यक्तित्व पागलपन नहीं था। उस समय भी वह एक सही सलामत पुरुष जैसा व्यवहार करती थी और अपना नया नाम सैली बताती थी।

उपरोक्त दो घटनाओं से मिलती−जुलती एक तीसरी घटना इंग्लैंड के पादरी होना की है। 15 अप्रैल सन् 1897 में वे मोटर दुर्घटना में घायल हुए। अचेत अवस्था में अस्पताल पहुँचाये गये। होश में आये तो वे बिलकुल छोटे बालक की तरह थे, और अपना नाम पता व्यवसाय आदि पूरी तरह भूल चुके थे, यहाँ तक कि जो कुछ उनने पढ़ा लिखा था वह भी विस्मृत हो गया। इसके बाद वे उस पुरानी यहूदी भाषा में बात करने लगे जिससे वे कभी परिचित नहीं रहे। इस विचित्र परिवर्तन से डाक्टर तथा दूसरे परिचित बहुत हैरान थे। आखिर उन्हें न्यूयार्क विशेष चिकित्सा के लिए भेजा गया। परिवर्तन धीरे−धीरे हुआ। कुछ समय उनके मस्तिष्क पर बालक का कब्जा रहता कुछ समय वे पादरी होना के रूप में बात करते। इस तरह उलट−पुलट बहुत समय चली तब कहीं वे अपने असली व्यक्तित्व में रह सकने योग्य बने।

इस प्रकार की अनेकानेक घटनाऐं सामने आती रहती है और यह सिद्ध करती रहती हैं कि मरने के साथ जीवन का अन्त नहीं हो जाता वरन् उसके उपरान्त भी बना रहता है। आत्मा का स्वतन्त्र और अनन्त अस्तित्व मानने से एक जन्म के कर्मफल दूसरे जन्म में मिलने की बात भी प्रमाणित हो जाती है। आज क्षमता एवं महानता की अभिवृद्धि के लिए जो प्रयास किये गये है वे आगे भी फलप्रद होंगे यह मान लेने पर नास्तिकता का वह विषैला प्रतिपादन निरस्त हो जाता है जिसमें शरीर के साथ जीवन का अन्त हो जाने और मरने के बाद किसी कर्म का फल न मिलने की बात कहकर अनैतिकता को शह दी गई है।

जीवन रथ में दो पहिये जुड़े है एक का नाम है आशा दूसरे का गति। जब तब वे दोनों सही रूप में है तब तक जीवन−यात्रा ठीक तरह चलती रहेगी। जब इनमें अवरोध उत्पन्न होगा तो इस बहुमूल्य रथ का तनिक भी आगे बढ़ सकना सम्भव न रहेगा।

आज की अपेक्षा कल हमें अधिक अच्छी स्थिति में पहुँचना है—पहुँचेंगे इस विश्वास को स्थिर रखकर ही प्रगति के लिए अभीष्ट पुरुषार्थ को सँजोया जा सकता है। जब तक अमुक कार्य पूरा करने और अमुक स्थिति तक पहुँचने की आकाँक्षा सजग रहेगी तभी तक मन में उत्साह रहेगा और उसकी प्रेरणा से कुछ करते रहने को जी चाहेगा। अभीष्ट की प्रगति की कल्पना में जो रस है उसे उपलब्धि के समय मिलने वाली तृप्ति से कम नहीं वरन् अधिक ही प्रेरणाप्रद मानना चाहिए।

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