
हमारी अधूरी जानकारियाँ और मूढ़ मान्यताएं
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हमारे ज्ञान की परिधि कितनी सीमित है-कई बार तो हम मोटी बातें भी नहीं जानने। हम साथी को सब प्राणियों में बड़ा समझते हैं, पर असल में वह गौरव ह्वेल मछली से प्राप्त है। पक्षियों में गरुड़ नहीं बाज सबसे तेज उड़ता है। आंखें हिरन की बड़ी मानी जाती है, पर शरीर के अनुपात से घोड़े की आंखें अधिक बड़ी होती है। कड़ी धूप में संसार के हर प्राणी को पसीना आ जाता है, पर कुत्ते इसके अपवाद है। स्तनपायी प्राणियों के शरीर पर बाल रहते हैं एक गेंडा ही ऐसा है जो स्तनपायी होने पर भी बिना बाल का रहता है। कमल का फूल सबसे बड़ा माना जाता है, पर असल में सबसे बड़ा फूल जीवों सुमीबा में पाया जाने वाला ‘रैफतेशिया’ का है जिसका घेरा 10 फुट और वजन 6 किलोग्राम तक होता है। वृक्षों में कट वृक्ष दीर्घजीवी माना जाता है, पर भारत में पाये जाने वाले पेड़ों में सबसे अधिक दिन जैतून का पेड़ जीवित रहता है।
मेंढक के पैदा होते समय दुम होती है, पर पैर नहीं। पर जब वह मरता है तो पैर रहते हैं, पर दुम नहीं।
हंस के बारे में किंवदंती है कि वह मिले हुए दूध पानी में से दूध पी लेता है और पानी अलग करता है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि वह मोती खाता है। यह दोनों ही किम्वदंतियां मिथ्या है। हंस भी अन्य पक्षियों की तरह कीड़े, बीज आदि का आहार करते हैं।
स्वातिनक्षत्र में वर्षा होने पर सीप में मोती, केले से कपूर और बाँस में वंशलोचन पैदा होता है यह मान्यता सर्वथा कपोल कल्पित है, इससे सचाई का एक अंश भी नहीं है। चातक स्वातिनक्षत्र की वर्षा का ही जल पीता है, वह बात भी बेसिर पैर की है वह अपनी आवश्यकतानुसार बेरोक-टोक पानी पीता है।
हममें से कितनों को मालूम है कि मक्खी अपने जीवन काल में औसत 10, 80, 320 अण्डे देती है।
दस-बीस भाषाओं और एक दर्जन मजहबों के अतिरिक्त कौन जानता है कि संसार में 3064 भाषाएँ बोली जाती है और 600 मत मतान्तर है।
कोयला और हीरा रासायनिक दृष्टि से बिल्कुल सजातीय है उनके अणुओं की चाल में तनिक-सा अन्तर रहने से दोनों के मूल्य में भारी अन्तर पड़ जाता है। कोयले में कठोर कार्बन मिले तो वह हीरा बन जायेगा किन्तु यदि नरम मिले तो वह पेन्सिलों में काम आने वाला ‘सुरमा’ मात्र बनकर रह जाएगा। तनिक सा अन्तर फलितार्थ में कितना बढ़ा-चढ़ा होता है वह देखने ही योग्य है।
हमारा सामान्य ज्ञान कितना स्वल्प है इस बात का पता इससे चलता है कि अपनी मान्यता प्राप्त जानकारियों में कितनी उपहासास्पद मान्यताएं भरी पड़ी हैं और कितनी मिथ्या धारणाएँ संजोये बैठे हैं, पर विवेक को अपनाने के लिए कोई तैयार नहीं।
कुत्ते को यदि खरगोश का पीछा करने के लिए छोड़ दिया जाय तो वह दौड़ते-दौड़ते बेदम हो जाने पर भी प्रसन्न दिखाई पड़ेगा भले ही उसके हाथ खरगोश न लगे। इसके विपरीत यदि उसे कोल्हू में चलने के लिए कहा जाय भोजन की सुनिश्चित व्यवस्था बनादी जाय तो वह उससे प्रसन्न न होगा। यो विवेक की दृष्टि से खरगोश के पीछे दौड़ने की अपेक्षा कोल्हू में चलने का श्रम अधिक उपयोगी और निश्चित परिणाम देने वाला है। शिकार पकड़ने का परिणाम अनिश्चित है किन्तु उस उद्योग में उसकी भी नियमित व्यवस्था बनी रहेगी। इतने पर भी कुत्ता अपनी आदत के अनुसार शिकार के पीछे भागने की अनिश्चित दौड़−धूप ही पसन्द करता है। हमारी कार्यशैली भी लगभग इसी प्रकार की है। अभ्यस्त दौड़−धूप ही रुचि कर लगती है। इससे अच्छी भी कोई उपयुक्त रीति-नीति हो सकती है-प्रस्तुत ढर्रे से लाभदायक भी कोई जीवन-क्रम हो सकता है इसे सुनने-समझने और जानने-मानने के लिए कोई तैयार होता दिखाई नहीं पड़ता।