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Magazine - Year 1975 - Version 2

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आत्मिक प्रगति के पाँच सोपान-पंच कोश

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मानवी चेतना की पाँच भागों में विभक्त किया गया है। (1) अन्न मय कोश (2) प्राण मय कोश (3) मनोमय कोश (4) विज्ञान मय कोश (5) आनन्द मय कोश।

अन्न मय कोश का अर्थ है इन्द्रिय चेतना, प्राण मय कोश अर्थात् जीवनी शक्ति, मनोमय कोश अर्थात् विचार बुद्धि, विज्ञान मय कोश अर्थात् भाव प्रवाह, आनन्द मय कोश अर्थात् आत्म-बोध-आत्म स्वरूप में स्थिति। यह पाँच चेतना स्तर है। निम्न स्तर के प्राणी इनमें निम्न भूमिका में पड़े रहते हैं। कृमि कीटकों की चेतना इन्द्रियों को प्रेरणा के इर्द-गिर्द अपना चिन्तन सीमित रखती है। वे शरीर की जीवनी शक्ति मात्र से जीवित रहते हैं संकल्प बल उनके जीवन-मरण में सहायक नहीं होता। मनुष्य की जिजीविषा इस शरीर के अशक्त-असमर्थ होने पर भी जीवित रख सकती है, पर निम्न वर्ग के प्राणी मात्र सर्दी गर्मी बढ़ने जैसे ऋतु प्रभावों से प्रभावित होकर अपना प्राण त्याग देते हैं उन्हें जीवन संपर्क के अवरोध में पड़ने की इच्छा नहीं होती। पेट और प्रजनन मात्र के लिए जीवित रहने वाले, जीवन और मरण के संबंध में उदास रहने वाले किसी प्रकार दिन गुजारने मर की बात सोचने तक सीमित रहने वाले निम्न स्तरीय प्राणि अन्न मय कोश तक ही विकसित हो पाये यह नहीं कहा जा सकता है। मनुष्यों में भी कितने ही इसी स्तर के पाये जाते हैं। वे अपने का परिस्थितियों के प्रवाह में जिस तिस दिशा में उड़ते रहने वाला तिनका भर मानते हैं। उनकी अन्तःचेतना कोई ऊँची प्रेरणा या दिशा नहीं देती। वे इन्द्रिय उत्तेजना से ही प्रेरित होकर विविध कर्म करते हैं। भूख लगती है तो रोटी कमाते या खाते हैं। कामोत्तेजना से विवश होकर रति कर्म का रास्ता ढूंढ़ते हैं। नींद आने पर सो जाते हैं और सर्दी गर्मी लगने के भय से वस्त्र या निवास का प्रबन्ध करते हैं। रोटी कपड़ा और मकान तक उनकी शारीरिक आवश्यकताएँ सीमित रहती है। सुख की परिभाषा वे स्वादिष्ट भोजन, कामोपभोग, श्रम से बचने की सुविधा, आदि में जिनकी आवश्यकता, इच्छा एवं प्रसन्नता सीमित है उन्हें इसी निम्न वर्ग का कह सकते हैं। भले ही वे कृमि कीटक हों या मनुष्य।

प्राण मय कोश की क्षमता जीवनी शक्ति के रूप में प्रकट होती है। जीवित रहने की सुदृढ़ और सुस्थिर इच्छा शक्ति के रूप में करो देखा जा सकता है। स्वस्थ सुदृढ़ और दीर्घ जीवन का लाभ शरीर को इसी आधार पर मिलता है। मनस्वी, ओजस्वी और तेजस्वी व्यक्तित्व ही विभिन्न क्षेत्रों में सफलताएँ प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत दीन−हीन, भयभीत, शंकाशील, निराश, खिन्न, हतप्रभ व्यक्ति अपने इसी दोष के कारण उपेक्षित, तिरस्कृत एवं उपहासास्पद बने रहते हैं। उत्साह के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े रहने वाली कर्मनिष्ठ का जहाँ अभाव होगा वहाँ अवनति और अवगति के अतिरिक्त और कुछ रहेगा ही नहीं। साहस बाजी मारता है। बहादुरों के गले में ही अनादि काल से विजय बैजन्ती पहनाई जाती रही है और अनन्त काल तक यही क्रम चलता रहेगा।

शौर्य साहस को श्रम, निष्ठा, तत्परता, तन्मयता और अदम्य उत्साह के रूप में देखा जाता है। कायर और भयभीत संकोची और हतप्रभ व्यक्तियों से कुछ करते धरते नहीं बनता। जो करते हैं वह आधा अधूरा भौंड़ा और अव्यवस्थित होता है। पैट्रोल के अभाव में मोटर खर्च-खर्च करके रह जाती है। तेल के अभाव में दीपक टिम-टिम जलता बुझता दीखता है। साहस हीन व्यक्ति किसी तरह अपने सामने पड़े कार्य को रोता झींकता पूरा करने का कुछ प्रयत्न करता है पर जीवट के अभाव में वह सदा आधा अधूरा और काना कुबड़ा ही बनकर रह जाता है। उसका स्तर इतना घटिया होता है कि उपलब्ध परिणाम उपहासास्पद एवं असंतोषजनक बनकर रह जाता है।

डाकू से लेकर सिद्ध पुरुषों तक, समाज-सेवियों से लेकर राजनेताओं तक हर किसी को अपने प्रयास में सफल होने के लिये जीवट की आवश्यकता पड़ती है। इसी की व्याख्या अलभ्य उत्साह, अविचल धैर्य और मर मिटने के कटिबद्ध शौर्य के रूप में देखी जाती है। प्राण मय कोश इसी शक्ति का भाण्डागार है। सिंह जैसे पशु और गरुड़ जैसे पक्षी यों हिंसक होने के कारण मानवी गरिमा से बहुत पिछड़े हुए हैं तो भी उन्हें प्राण वान कह सकते हैं। शौर्य, साहस, एवं पुरुषार्थ के कारण ही वे अपने अपने वर्ग के अधिपति बने हुए हैं। यों शरीर बल की दृष्टि से उनकी तुलना में अन्य कई प्राणी अधिक समर्थ स्थिति के भी मौजूद हैं।

मनोमय कोश का अर्थ हैं विचार शीलता विवेक बुद्धि। यह तत्व जिसमें जितना सजग होगा उसे उसी स्तर का मनस्वी या मनोबल सम्पन्न कहा जायेगा। यों मन हर जीवित प्राणी का होता है। कीट पतंग भी उससे रहित नहीं हैं। पर मनोमय कोश के व्याख्याकारों ने उसे दूरदर्शिता, तर्क प्रखरता एवं विवेक शीलता के रूप में विस्तार पूर्वक समझाया है। मन की स्थिति हवा की तरह है वह दिशा विशेष तक सीमित न रहकर स्वेच्छाचारी वन्य पशु की तरह किधर भी उछलता-कूदता है। पक्षियों की तरह किसी भी दिशा में चल पड़ता है। इसे दिशा देना, चिन्तन को अनुपयोगी प्रवाह में बहने से बचा कर उपर्युक्त मार्ग पर सुनियोजित करना मनस्वी होने का प्रधान चिन्ह हैं। मनोनिग्रह-मनोजय इसी का नाम है। जंगली हाथी को पकड़ कर अनुशासित बनाने का काम तो कठिन हैं, पर इसकी उपयोगिता अत्यधिक हैं। जंगली हाथी फसलें उजाड़ते और झोपड़ियाँ तोड़ते हैं और भूखे प्यासे अनिश्चित स्थिति में भटकते हैं। किन्तु पालतू बन जाने पर उनकी जीवन चर्या भी सुनिश्चित हो जाती हैं और साथ ही वे अपने मालिक का भी बहुत हित साधन करते हैं। सधे हुए मन की तुलना पालतू हाथी से की जा सकती हैं और अनियंत्रित मन को उन्मत्त जंगली हाथी कहा जा सकता है।

आवेग और आवेश ग्रस्त होकर उन उत्तेजनाओं से प्रेरित मनुष्य कुछ भी सोच सकता है और कुछ भी कर गुजर सकता है। वह चिन्तन और कर्तव्य इतना असंगत हो सकता है कि फलस्वरूप जीवन भर पश्चाताप करना पड़े और असीम हानि उठानी पड़े। किन्तु आवेगों के प्रवाह में बुद्धि पर पर्दा पड़ जाता है और कुछ सूझ नहीं पड़ता। उन्मत्तों की तरह दूसरों की हत्या, आत्महत्या न सही ऐसे काम तो सहज ही बन पड़ते हैं जिन पर शान्त मन स्थिति में विचार करने पर स्वयं ही अपने पर क्रोध आता है। असंख्य मनुष्य ऐसे ही उद्धत कर्म करते हैं अथवा मरे हुए मन से अकर्मण्य बने हुए जीवन की लाश ढोते हैं। स्थिति से उबरने का कोई प्रकाश भी उन्हें नहीं मिलता।

प्रायः एक समय में एक प्रकार के विचार एक ही दिशा में दौड़ते हैं। यह प्रवाह जिधर भी चलता है उधर लाभ ही लाभ, औचित्य दिखाई पड़ता है। जब कि वास्तविकता कुछ और ही होती है। प्रवाह को रोक कर, धारा द्वारा उससे बाँध या बिजली घर बनाये जाते हैं। मन के प्रवाह को जिस दूसरी प्रतिरोध शक्ति से रोका जाता है, उचित अनुचित के मंथन से उलट-पुलट कर नवनीत निकाला जाता है, तब पता चलता है कि क्या सोचना सार्थक है क्या निरर्थक? लाभ किसमें हैं, और हानि किसमें? तत्काल के क्षणिक लाभ को ही सब कुछ न मान कर भविष्य के चिरस्थायी परिणाम का विचार करने में समर्थ एवं परिपक्व बुद्धि मन के प्रवाह को अवाँछनीय दिशा में रोक सकती, उसे उचित में नियोजित कर सकती हैं। इस परिष्कृत चिन्तन प्रक्रिया को मनोमय कोश की उपलब्धि कह सकते हैं।

महा मनीषी, तत्व दर्शी, शोध कर्ता एवं मनस्वी व्यक्ति ही महा मानवों की पंक्ति में बैठ सकने में समर्थ हुए हैं। उनने संसार का नेतृत्व किया है और अपने महान कर्तव्यों से इतिहास को यशस्वी किया है। इन सभी की यह प्रमुख विशेषता रही है कि उन्हें अपने मन पर अंकुश करना और उसे दिशा देना सीखा। सामान्य लोगों का मन हवा के साथ उड़ते फिरने वाले तिनके की तरह अपनी मानसिक चेतना को निरर्थक अथवा अनर्थ मूलक स्थिति में भटकने देता है जब कि मनस्वी व्यक्ति उसकी प्रत्येक लहर को सुनियोजित करता है। उचित और अनुचित की कसौटी का अंकुश रख कर मन को उसी दिशा में, उसी गति से चलने देता है जिससे कुछ महत्वपूर्ण हित साधन हो सके।

इच्छाओं को मोड़ने में, चिन्तन को सुनियोजित करने में सफलता प्रखर-तर्क बुद्धि से उत्पन्न होती है और आत्म-दमन कर सकने की साहसिकता से मनोनिग्रह वन पड़ता है। एकाग्रता का, चित-वृत्ति-निरोध का बहुत माहात्म्य योगशास्त्रों में बताया गया है। इसका अर्थ चिंतन प्रक्रिया को ठप्प कर देना, एक ही ध्यान में निमग्न रहना, नहीं वरन् यह है कि विचारों का प्रवाह नियत निर्धारित प्रयोजन से ही रुचि पूर्वक लगा रहे। यह कुशलता जिनकी करतल गत हो जाती है वे जो भी लक्ष्य निश्चित करते हैं उसमें प्रायः अभीष्ट सफलता ही प्राप्त करके होते हैं। बिखराव की दशा में चिन्तन की गहराई में उतरने का अवसर नहीं मिलता अस्तु किसी विषय में प्रवीणता और पारंगतता भी हाथ नहीं लगती। संसार में विशेषज्ञों का स्वागत होता है, यहाँ हर क्षेत्र में ‘ए-वन’ की माँग है और यह उपलब्धि कुशाग्र बुद्धि पर नहीं सघन मनोयोग के साथ सम्बद्ध है। यह मनोयोग का वरदान प्राप्त करने के लिए जो प्रयास व्यायाम करने पड़ते हैं उन्हें ही मनोमय कोश की साधना करते हैं।

विज्ञानमय कोश को सामान्य भाषा में भावना प्रवाह कह सकते हैं। यह चेतना की गहराई में अवस्थित अन्तःकरण से सम्बन्धित है। विचार शक्ति से भावशक्ति कहीं गहरी है, साथ ही उसकी क्षमता एवं प्रेरणा भी अत्याधिक सशक्त है। मनुष्य विचारशील ही नहीं संवेदन शील भी है। यह संवेदनाएँ ही उत्कट स्तर की आकांक्षाएं उत्पन्न करतीं हैं और उन्हीं से प्रेरित होकर मनुष्य बेचैन-विचलित हो उठता है जब कि विचार प्रवाह, मात्र मस्तिष्कीय हलचल भर पैदा कर पाता है। देव और दैत्य का वर्गीकरण इस भाव चेतना के स्तर को देखकर किया जाता है। आसुरी प्रकृति के व्यक्ति आत्मश्लाघा, दर्प, आतंक, निष्ठुरता, वर्चस्व जैसी उद्धत आकांक्षाओं में डूबे रहते हैं। उन्हें अपना गौरव दूसरों पर रौब गाँठने के लिए क्रूर कर्म करने में प्रतीत होता है। सृजन के लिए उच्च स्तरीय वरिष्ठता चाहिए पर ध्वंस तो निष्कृष्ट तम व्यक्ति कर सकता है। अहंकारी और उद्धत व्यक्ति सदा विनाश की, आतंक की, क्रूर कर्मों की बात सोचते हैं और आतंक वादी रीति नीति अपनाते हैं। ध्वंस देखकर ही उन्हें अपने गौरव का अनुभव होता है और तदनुसार वे संतोष लाभ करते हैं। ऐसे लोग यदि साहस हीन होते हैं तो विलासी, संग्रही, धनी, आकर्षक, अपव्ययी बन कर दूसरों की तुलना में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के ताने बाने बुनने लगते हैं। असुरता की परिभाषा इस लोभ मोह और अहंकार के साथ जुड़े हुए व्यक्तिवाद उद्धतता के रूप में की जा सकती है।

विज्ञानमय कोश की सुसंतुलित साधना मनुष्य को दयालु, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमों एवं शालीन बनाता है। उसे दूसरों को दुखी देखकर उसकी स्थिति में अपने को रखकर व्यथित होने की ‘सहानुभूति’ का अभ्यास होता है। तदनुसार औरों का दुख बँटाने की, सेवा परायणता की आकांक्षा सदा उठती रहती है। विभिन्न प्रकार के परमार्थ इसी स्थिति में बन पड़ते हैं। ऐसे व्यक्तियों की आत्म भावना सुविस्तृत होते-होते अतीव व्यापक बन जाती है। तब दूसरों के सुख में भी अपने निज के सुख जैसा आभास मिलता है। अपनी उपलब्धियों का उपभोग एकाकी कर सकना उनके लिए संभव ही नहीं होता। ‘बाँट कर खाओ’ उनकी सहज प्रकृति बन जाती है। जिओ और जीने दो दो की उदार दृष्टि उन्हें इस बात के लिए विवश करती है कि अपनी उन्नति और समृद्धि की तरह ही दूसरों को सुखी समुन्नत बनाने के लिए भी प्रयत्न किया जाय। अपने ऊपर खर्च होने वाले श्रम, समय, चिन्तन, प्रभाव एवं धन की मात्रा उन्हें न्यूनतम स्तर तक ले जानी पड़ती है ताकि दूसरों के लिए अधिक से अधिक कर गुजरने के लिए कुछ कहने लायक बचत हो सके। संयम इसी का नाम है। इन्द्रिय संयम तो इस दिशा में चलने की प्रथम सीढ़ी है। वस्तुतः वासना और तृष्णा पर संयम करके सादगी भरी मितव्ययी जीवन चर्या बनाना और अपनी उपलब्धियों से संसार में संव्याप्त पीड़ा और पतन का भार हटाने के लिए तत्पर रहना यही है भाव प्रवाह की सत्पथ गामिनी अन्तःचेतना का स्पष्ट परिचय। किसका विज्ञानमय कोश किस स्तर का है इसका पता लगाने के लिए इसी कसौटी को सक्रिय करना पड़ता है।

आनन्दमय कोश का विकास यह देख कर परखा जा सकता है कि मनुष्य क्षुब्ध, उद्विग्न, चिंतित, खिन्न, रुष्ट, असंतुष्ट रहता है अथवा हँसती मुस्कराती, हल्की फुलकी, सुखी सन्तुष्ट जिन्दगी जीता है। मोटी मान्यता यह है कि वस्तुओं, व्यक्तियों अथवा परिस्थितियों के कारण मनुष्य सुखी दुखी रहते हैं पर गहराई से विचार करने पर यह मान्यता सर्वथा निरर्थक सिद्ध होती है। एक ही बात पर सोचने के अनेकों दृष्टि कोण होते हैं। सोचने का तरीका किस स्तर का अपनाया गया-यही है मनुष्य के खिन्न अथवा प्रसन्न रहने का कारण।

अपने स्वरूप का, संसार का वास्तविकता का बाघ होने पर सर्वत्र आनन्द है। दुख तो अपने आपे को भूल जाने का, संसार को कुछ से कुछ समझ बैठने के अज्ञान का है। यह अज्ञान ही भव बन्धन है, इसे ही माया कहते हैं। प्राणी त्रिविध ताप इसी नरक की आग में जलने से सहता है। सच्चिदानन्द परमात्मा के इस सुरम्य नन्दन वन जैसे उद्यान में दुख का एक कण भी नहीं दुखी तो हम केवल अपने दृष्टि दोष के कारण वस्तु व्यक्ति और परिस्थिति का विकृत रूप देखकर ही डरते और भयभीत होते हैं। यदि यह दृष्टि दोष सुधर जाय तो मिथ्या आभास के कारण उत्पन्न हुई भ्रान्ति का निवारण होने में देर न लगे और आत्मा की निरन्तर आनन्द उल्लास से परिपूर्ण परितृप्त रहने की स्थिति बनी रहे।

प्रिय और अप्रिय यह दोनों प्रकार के परस्पर विरोधी अनुभव वस्तुतः एक दूसरे के पूरक है। अन्धकार के कारण ही प्रकाश की सत्ता है यदि संसार में कहीं अन्धकार दिखाई न पड़े तो फिर प्रकाश नाम का कोई तत्व ही अनुभव में अ आवेगा। तब प्रकाश की स्थिति का किसी को पता भी न चलेगा। प्रकाश सापेक्ष है। उसे अनुभव तभी किया जाता है, उसकी तुलना की जायं। ठीक इसी प्रकार सुख अथवा प्रिय नामक कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। दुख की तुलना में जो सामान्य स्थिति अधिक अनुकूल मालूम पड़ती है वह अनुकूलता ही सुखानुभूति है।

इस तत्व दर्शन को समझने वाला व्यक्ति जादूगर की कलाकारिता को देखकर हँसता रहता है और अपना पेट फाड़ने से लेकर हाथ में से रुपया बरसाने तक के चित्र विचित्र खेलों को तटस्थ भाव से देखता रहता है। कर्म प्राणी का कर्त्तव्य है। कर्त्तव्य को दोष न लगे इसलिए वह पूर्ण उत्तरदायी और कर्मनिष्ठ की तरह अपना हर कार्य पूरी कुशलता, तन्मयता एवं कलाकारिता के साथ सम्पन्न करता है और अपने उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्त्तृत्व मात्र से सन्तुष्ट तथा प्रसन्न बना रहता है। उसे आनन्दित रहने के लिए किसी बाहरी वस्तु-व्यक्ति या परिस्थिति की आवश्यकता नहीं पड़ती। कोई घटना-क्रम-कोई परिवर्तन उसकी स्थिर आनंदानुभूति में व्यवधान डाल सकने में समर्थ नहीं होता। उसे अनुकूल प्रतिकूल हर स्थिति में हँसता, मुसकराता-हल्का फुलका-देखा जा सकता है। नाटक के पात्रों की तरह वह अपनी भूमिका भर निबाहता रहता है। इतने पर भी उसे पानी में रहने वाली नाव की तरह-कीचड़ में उगे कमल की तरह अपनी स्वतन्त्र स्थिति बनाये रहने में कोई कठिनाई नहीं होती।

पाँच कोशों की भावनात्मक पृष्ठ भूमि यही है। इन्हीं कसौटियों पर कसकर किसी व्यक्ति की आन्तरिक स्थिति के बारे में जाना जा सकता है कि वह आत्मिक दृष्टि से कितना गिरा पिछड़ा है अथवा उठने विकसित होने में सफल हुआ है।

पंचकोशों की साधन में जप, तप, ध्यान, प्राणायाम, बंध, मुद्रा आदि को प्रयोग करना पड़ता है। इसके राजयोग, हठयोग, लययोग, प्राणयोग, ऋतुयोग, ज्ञानयोग भक्तियोग, कर्मयोग, तत्वयोग, आदि 84 योगों के आधार पर अनेकानेक व्यायाम क्रम बताये गये है। साधक उन्हें अपनी परम्परा एवं पात्रता के अनुसार अपनाते है॥ इन सब साधनाओं में ज्ञान और कर्म से सम्मिश्रित तत्वयोग की साधना है जिसमें स्वाध्याय, सत्संग और चिन्तन-मनन के माध्यम से आत्म-शोधन करते हुए आदर्श कर्मनिष्ठा का अवलम्बन लिया जाता है और सरलतापूर्वक लक्ष्यपूर्ति की दिशा में आगे बढ़ा जाता है।

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